सुन्नत

सुन्नत
सुन्नत की तारीफ़ : 

ما ورد عن رسول اللّٰہ ﷺ من قول أو فعل أو تقریر
(क़ौल या फे़अल या इक़रार में से जो कुछ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के बारे में वारिद हुआ हो) सुन्नत और हदीस के एक ही मानी हैं। सुन्नत क़ुरआन की तरह एक शरई दलील है और ये भी अल्लाह سبحانه وتعال की तरफ़ से वह्यी है। अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:

قُلۡ إِنَّمَآ أُنذِرُڪُم بِٱلۡوَحۡىِۚ
कह दीजिए! मैं तो तुम्हें सिर्फ़ अल्लाह की वह्यी के ज़रीये आगाह कर रहा हूँ (अल अंबिया-45)

إِن يُوحَىٰٓ إِلَىَّ إِلَّآ أَنَّمَآ أَنَا۟ نَذِيرٌ۬ مُّبِينٌ
मेरी तरफ़ फ़क़त यही वह्यी की जाती है कि मैं साफ़ साफ़ आगाह कर देने वाला हूँ (अल साद-38)

إِن يُوحَىٰٓ إِلَىَّ إِلَّآ أَنَّمَآ أَنَا۟ نَذِيرٌ۬ مُّبِينٌ
 मैं तो सिर्फ़ उसी की पैरवी करता हूँ जो मेरी तरफ़ वह्यी भेजी गई है (अल अहक़ाफ-9)

قُلۡ إِنَّمَآ أَتَّبِعُ مَا يُوحَىٰٓ إِلَىَّ مِن رَّبِّى
आप कह दीजिए कि मैं उसकी इत्तिबा करता हूँ जो मेरे रब की तरफ़ से वह्यी भेजी गई है (अल आराफ-203)

وَمَا يَنطِقُ عَنِ ٱلۡهَوَىٰٓ ( ٣۳ ) إِنۡ هُوَ إِلَّا وَحۡىٌ۬ يُوحَىٰ
और ना वो अपनी ख़्वाहिश से कोई बात कहते हैं, वो तो सिर्फ़ वह्यी है जो उतारी जाती है (अन्नजम-3,4)

इन तमाम क़तई आयात से ये साबित है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم सिर्फ़ वह्यी से ही ख़बरदार करते हैं और जो कुछ भी कहते हैं वो ख़ालिस वह्यी है, यानी आप صلى الله عليه وسلمकी ज़बाने मुबारक से वह्यी के सिवा और कुछ नहीं निकलता। इसलिए सिर्फ़ क़ुरआन को ले लेना और सुन्नत को तर्क करना सरीह कुफ्र है जो इस्लाम से ख़ारिज कर देता है। जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि सुन्नत की इत्तिबा क़ुरआन की तरह लाज़िम है, तो इस के किताबुल्लाह में बेशुमार सरीह दलायल हैं:

وَمَآ ءَاتَٮٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَہَٮٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ
और तुम्हें जो कुछ रसूल दें ले लो और जिस से रोकें रुक जाओ (अल हश्र)

مَّن يُطِعِ ٱلرَّسُولَ فَقَدۡ أَطَاعَ ٱللَّهَۖ
जिस ने रसूल की इताअत की उस ने अल्लाह की इताअत की (अन्निसा-80)

فَلۡيَحۡذَرِ ٱلَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنۡ أَمۡرِهِۦۤ أَن تُصِيبَہُمۡ فِتۡنَةٌ أَوۡ يُصِيبَہُمۡ
  عَذَابٌ أَلِيمٌ

सुनो जो लोग हुक्मे रसूल की मुख़ालिफ़त करते हैं उन्हें डरते रहना चाहिए कि कहीं उन पर कोई ज़बरदस्त आफ़त ना आ पड़े या उन्हें दर्दनाक अज़ाब ना पहुंचे (अन नूर-63)

وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ۬ وَلَا مُؤۡمِنَةٍ إِذَا قَضَى ٱللَّهُ وَرَسُولُهُ ۥۤ أَمۡرًا أَن يَكُونَ لَهُمُ ٱلۡخِيَرَةُ مِنۡ أَمۡرِهِمۡۗ وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُ ۥ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَـٰلاً۬ مُّبِينً۬ا

और (देखो) किसी मोमिन मर्द या औरत को अल्लाह और उसके रसूल के फ़ैसले के बाद अपने किसी अम्र का कोई इख़्तियार बाक़ी नहीं रहता, (याद रखो) अल्लाह سبحانه وتعال और उस के रसूल की जो भी नाफ़रमानी करेगा वो सरीह गुमराही में पड़ेगा (अल अहज़ाब-36)


فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِىٓ أَنفُسِہِمۡ حَرَجً۬ا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمً۬ا

सौ क़सम है तेरे परवरदिगार की ! ये मोमिन नहीं हो सकते जब तक कि तमाम आपस के इख़्तिलाफ में आप को फ़ैसला करने वाला ना मान लें, फिर जो फ़ैसले आप इन में कर दें उनसे अपने दिल में किसी तरह की तंगी और ना ख़ुशी ना पाऐ और फ़रमांबरदारी के साथ क़बूल कर लें (अन्निसा-65)

أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ
इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की (अन्निसा-59)


قُلۡ إِن كُنتُمۡ تُحِبُّونَ ٱللَّهَ فَٱتَّبِعُونِى يُحۡبِبۡكُمُ ٱللَّهُ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡۗ
कह दीजिए! अगर तुम अल्लाह से मुहब्बत रखते हो तो मेरी ताबेदारी करो, ख़ुद अल्लाह तुम से मुहब्बत करेगा और तुम्हारे गुनाह माफ़ फरमा देगा (आले इमरान-31)

लिहाज़ा ये जायज़ नहीं कि कोई सिर्फ़ क़ुरआन को अपना माख़ज़ बनाए और सुन्नत के इत्तिबा से इनकार कर दे, बल्कि सुन्नत भी क़ुरआन की तरह एक शरई माख़ज़ है। और ये क़ुरआन के मुजमल की तफ़सील को बयान, इस के मुतलक़ को मुकय्यद और आम को ख़ास, और उसकी अज़ीमत की रुख़सत को ज़ाहिर भी करती है वग़ैरा। यानी इस में बेशुमार अहकाम हैं जो क़ुरआन में मौजूद नहीं, चुनांचे इस के बगै़र इस्लाम को समझना और इस पर अमल करना मुम्किन नहीं है।

अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:

وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلذِّڪۡرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيۡہِمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ
ये ज़िक्र (किताब) हम ने आप की तरफ़ उतारा है कि लोगों की जानिब जो नाज़िल फ़रमाया गया है आप उसे खोल खोल कर बयान कर दें, शायद कि वे ग़ौर-व-फ़िक्र करें (अल नहल-44)

चुनांचे सुन्नत एक मुनफ़रिद शरई माख़ज़ होने के अलावा, क़ुरआन के मुजमल को बयान करती है। मसलन नमाज़, रोज़ा, हज, खरीदो फ़रोख़्त, मीरास, निकाह-व-तलाक़, बैत-उल-माल, उक़ूबात, दावत-ओ-जिहाद, अदालत, इमारत-व-हुकूमत वग़ैरा के मसाइल क़्रुरआने पाक में आम और मुजमल तौर पर वारिद हैं जब कि सुन्नत ने उन की तफ़सील को बयान किया है। क़ुरआन की निसबत सुन्नत का किरदार मुलाहिज़ा हो:

क़ायदा ये है कि अगर कोई मुबय्यन फ़र्ज़ है, तो इस का बयान भी फ़र्ज़ होगा, अगर मंदूब तो इस का बयान भी मंदूब और अगर मुबय्यन मुबाह है, तब इस का बयान भी मुबाह होगा। यानी बयान, अपनी हुक्मे शरई की किस्म के ऐतबार से, मुबय्यन के ताबे होगा।

मुबय्यन का बयान 

وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا
और जो चोरी करे, मर्द हो या औरत, उनके हाथ काट डालो (अल माईदा-38)

इस मुबय्यन आयते मुबारका के बयान में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने चोर का हाथ कलाई से काटा। चूँकि (इस्लामी रियासत के लिए) चोर का हाथ काटना फ़र्ज़ है, इसलिए उसके हाथ को कलाई से काटना भी फ़र्ज़ ठहरा।

मुजमल की तफ़सील

नमाज़ पढ़ना फ़र्ज़ है जो कि क़ुरआन से साबित है और उसकी तफ़सील सुन्नत में है

صلوا کما رأیتموني  (البخاري(
इस तरह नमाज़ पढ़ो जैसा कि तुम मुझे देखो

आम की तख़सीस


وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٲجً۬ا يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرۡبَعَةَ أَشۡہُرٍ۬ وَعَشۡرً۬اۖ

तुम में से जो लोग फ़ौत हो जाएं और बीवीयां छोड़ जाएं वो औरतें अपने आप को चार महीने और दस दिन इद्दत में रखें (अल बक़रह-234)

अलबत्ता हदीस में वारिद है कि एक औरत ने शौहर की वफ़ात के बाद बच्चे को जन्म दिया और पंद्रह रोज़ बाद शादी कर ली, रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस अमल को जायज़ क़रार दिया, लिहाज़ा आयत ग़ैर हामिला के बारे में ख़ास है।

मुतलक़ का तक़य्युद

وَلَا تَحۡلِقُواْ رُءُوسَكُمۡ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡهَدۡىُ مَحِلَّهُ ۥۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ بِهِۦۤ أَذً۬ى مِّن رَّأۡسِهِۦ فَفِدۡيَةٌ۬ مِّن صِيَامٍ أَوۡ صَدَقَةٍ أَوۡ نُسُكٍ۬ۚ

और जब तक क़ुर्बानी अपने मुक़ाम तक ना पहुंच जाये सर ना मुंढाओ और अगर तुम में कोई बीमार हो या उसके सर में किसी तरह की तकलीफ़ हो तो अगर वो सर मुंढा ले तो इस के बदले रोज़े रखे या सदक़ा दे या क़ुर्बानी करे (अल बक़रह-196) 

ثلاثۃ آصع أو صم ثلاثۃ أیام أو انسک نسیکۃ (مسلم(
तो अपना सर मुंढाओ और छः मसाकीन में एक फ़र्क़ खिलाओ और फ़र्क़ तीन प्याले हैं या तीन दिन के रोज़े या एक क़ुर्बानी (मुस्लिम)

मुहतमिल का तअय्युन

وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٲلِڪُمۡ
और जो उन (औरतों) के अलावा हैं वो तुम्हरे लिए जायज़ हैं (अन्निसा-24)

لا تنکح المرأۃ علی عمتھا ولا علی خالتھا (أحمد(
किसी औरत को उसकी ख़ाला या चाची के साथ निकाह में रखना जायज़ नहीं (अहमद)

क़ुरआन के असल के साथ फुरुअ का इलहाक़

وَأُمَّهَـٰتُڪُمُ ٱلَّـٰتِىٓ أَرۡضَعۡنَكُمۡ وَأَخَوَٲتُڪُم مِّنَ ٱلرَّضَـٰعَةِ
और तुम्हारी वे माएं जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया और तुम्हारी दूध शरीक बहनें (अन्निसा-23)

یحرم من الرضاع ما یحرم من النسب (البخاري(
जो नसब से हराम किया गया है वो रज़ाअत से भी हराम है (बुखारी)

ये तमाम मिसालें इन अहकाम की हैं जिन की असल क़ुरआन में मज़कूर है और सुन्नत को बयान करती है, और यही अक्सर है। अलबत्ता सुन्नत में ऐसे अहकाम भी वारिद हैं जिन की असल क़ुरआन में मौजूद नहीं, इसीलिए कहा गया है कि सुन्नत एक मुनफ़रिद शरई माख़ज़ है । मसलन ये हदीस असले क़ुरआन से ग़ैर मुल्हिक़ है, मगर इस से हुक्मे शरई साबित होता है:

لا یدخل الجنۃ صاحب مکس (أحمد(
कस्टम लेने वाला जन्नत में दाख़िल नहीं होगा (अहमद)

मगर जहां बराहे रास्त क़ुरआन के क़तई मानी और हदीस (अहद) में तआरुज़-ओ-तज़ाद हो, तो इस सूरत में हदीस को रद्द किया जाएगा क्योंकि क़तई दलील और ज़न्नी दलील का सामना है, इसलिए पहली को इख़्तियार किया जाएगा और दूसरी को रद्द। मसलन एक हदीस में फ़ातिमा बिंत क़ैस से मर्वी है :

طلقنيٖ زوجي ثلاثا علی عھد رسول اللّٰہﷺ فأتیت
النبي ﷺ فلم یجعل لي سکنا ولا نفقہ  (مسلم(

नबी करीम के ज़माने में मेरे शौहर ने मुझे तीन मर्तबा तलाक़ दी तो मैं आप صلى الله عليه وسلم के पास आई मगर आप ने (मेरे हक़ में) ना घर किया और ना ही नफ़क़ा) (मुस्लिम)


أَسۡكِنُوهُنَّ مِنۡ حَيۡثُ سَكَنتُم مِّن وُجۡدِكُمۡ

(मुतल्लक़ा औरतों को अय्यामे इद्दत में) अपने मक़दूर के मुताबिक़ वहीं रखो जहां ख़ुद रहते हो (अत्तलाक़-6)
यहां इस आयत को क़ुबूल किया जाएगा और हदीस को तर्क।

जब हदीसे अहद किसी क़ुरआन की आयत, या हदीस मुतवातिर, या हदीसे मशहूर, या इन तीनों में मज़कूर सरीह इल्लत के मुतआरिज़ हो, तो इस सूरत में हदीस वाहिद को क़बूल नहीं किया जाएगा। इस के अलावा अगर हदीसे अहद और क़ियास में तआरुज़ वाक़ेअ हो, तो हदीस मक़बूल होगी और क़ियास को रद्द किया जाएगा।

ये तमाम बातें इस सूरत में हैं जब वाक़ई नुसूस के बाबैन तज़ाद हो, वर्ना क़ायदा ये है कि शराअ में कोई तज़ाद नहीं, इसलिए नुसूस को जमा किया जाएगा ताकि तमाम नुसूस पर अमल हो सके ।

अपनी सनद के ऐतबार से हदीस की तीन अक़साम हैं : मुतवातिर, मशहूर और अहद।
हदीसे मुतवातिर की तारीफ़:

ہي التي یرویھا جمع من تابعي التابعین عن جمع من التابعین عن جمع من الصحابۃ عن النبي ﷺ بشرط أن یکون کل جمع 
یتکون من عدد کاف بحیث یؤمن تواطؤھم علی الکذب في جمیع طبقات الروایۃ

(वो जिस को ताबइ ताबईन की एक जमाअत ने ताबईन की एक जमाअत से और उसने सहाबा किराम की एक जमात से इस शर्त पर रिवायत किया हो कि हर जमाअत की तादाद इस क़दर हो कि ये हर तबक़े में, उनके आपस में झूट पर इत्तिफ़ाक़ से महफ़ूज़ रहे )

हदीसे मशहूर की तारीफ़:

ھو ما زاد نقلتہ عن ثلاثۃ في جمیع طبقاتہ و لم یصل حد التواتر
(वो जिस के हर तबक़े में तीन से ज़ाइद रावी हों और जो तवातुर की हद तक ना पहुंचे)

हदीसे अहद की तारीफ़: 

ھو ما رواہ عدد لا یبلغ حد التواتر في العصور الثلاثۃ
(वो जिस के रावियों की तादाद, तीनों अदवार में, तवातुर की हद तक ना पहुंचे) 

हदीसे मशहूर भी हदीसे अहद (ख़बरे वाहिद) के हुक्म में शामिल है क्योंकि ये नबी करीम से अहद के तरीक़ से साबित है, अलबत्ता ये ताबईन या ताबई ताबईन के ज़माने में मशहूर हुई । चुनांचे ये मुतवातिर में शामिल नहीं क्योंकि ये मुतवातिर की शराइत पर पूरी नहीं उतरती । इसलिए ये ख़बरे वाहिद की तरह, ज़न को फ़ायदा देती है यक़ीन को नहीं। इस के बरअक्स हदीसे मुतवातिर इल्म व यक़ीन को फ़ायदा पहुंचाती है।

क़बूलीयत या मर्दूदियत के ऐतबार से हदीसे अहद की तीन अक़साम हैं : सही, हसन और ज़ईफ़।

 हदीस सही की तारीफ़: 

ھو الحدیث المسند الذي یتصل إسنادہ بنقل العدل الضابط عن العدل الضابط إلی منتھاہ ولا یکون شاذا ولا معللا
(वो मुसनद हदीस जिस को आदिल और ज़ाबित रावी दूसरे आदिल और ज़ाबित रावी से रिवायत करे यहां तक कि ये (सिलसिला) अपनी इंतिहा तक पहुंचे और वो शाज़ (वो जिस में एक सिका रावी, इस से ज़्यादा सका लोगों की मुख़ालिफ़त करे ) और मोअलल (वो जिस में किसी ऐसी इल्लत (वजह) का पता चले जिस से हदीस में क़दह वारिद हो जाती हो, अगरचे बज़ाहिर वो हदीस इलल से सालिम नज़र आती हो ) भी ना हो )

हदीस हसन की तारीफ़: 

ھوما عرف مخرجہ و اشتھر رجالہ و علیہ مدار أکثر الحدیث و ھو الذي یقبلہ أکثر العلماء و یستعملہ عامۃ الفقھاء

(वो जिस का साहबे तख़रीज मारूफ़ हो और जिस के रावी मशहूर हूँ और ये ज़्यादा तर मौज़ू ए बहस हो और वो जिस को अक्सर उलमा कुबूल करें और इस का इस्तिमाल फुक़हा में आम हो )

हदीस ज़ईफ़ की तारीफ़: 


ہو کل حدیث لم تجتمع فیہ صفات الحدیث الصحیح ولا صفات الحدیث الحسن
(हर वो हदीस जिस में हदीस सही व हसन की सिफ़ात ना पाई जाती हों )

हदीसे अहद (ख़बर वाहिद) अहकामे शरईया में हुज्जत है और इस पर अमल वाजिब है बशर्ते कि ग़ालिब गुमान हो कि ये रसूलुल्लाह से ही मनक़ूल है या आप ने ही किसी फे़अल को सरअंजाम दिया है या आपऐ का किसी फे़अल या क़ौल पर सुकूत, आप ही का सुकूत है। दूसरे लफ़्ज़ों में जब ये हदीस सही या हसन हो, तोख़ वाह इस का ताअल्लुक़ इबादात से हो या मुआमलात से या फिर उक़ूबात से, ये वाजिब उल-अमल होगी। उसकी दलील ये है कि शराअ ने दावा के इस्बात के लिए, खबरे वाहिद की गवाही को क़बूल किया है, जैसा कि करानी नुसूस से साबित है। माली मसाइल में दो मर्दों की या एक मर्द और दो औरतों की गवाही मक़बूल है, ज़िना में चार मर्दों की गवाही और क़िसास में दो की। और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का एक शख़्स की गवाही और साहबे हक़ की क़सम खाने पर फ़ैसला करना साबित है और आपऐ ने रज़ाअत में एक औरत की गवाही को क़बूल फ़रमाया। ये तमाम अख़बार आ हाद हैं, लिहाज़ा शराअ ने उन्हें शहादत में कुबूल किया है। शहादत में ख़बर वाहिद की क़बूलीयत को हदीसे अहद की रिवायत की कुबूलीयत पर क़ियास किया जाएगा क्योंकि दोनों, गवाह या रावी, किसी वाकिऐ की ख़बर दे रहे हैं। चुनांचे हदीसे अहद मक़बूल है बशर्ते कि रावी मुसलमान, बालिग़, आक़िल, आदिल, सादिक़ और ज़ाबित हो जिस वक़्त इस ने हदीस की अदायगी की। जब तक रावियों की तरफ़ से कोई झूट साबित नहीं होता तो उनके सिदक़ की तर्जीह लाज़िम होगी। और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का फ़रमान है :

نضر اللّٰہ عبدا سمع مقالتي فوعاھا عني وأداھا فرب حامل
فقہ غیر فقیہ ورب حامل فقہ إلی من ھو أفقہ منہ  (ابن ماجہ(

अल्लाह उस बंदे का चेहरा रोशन करे जिस ने मेरा क़ौल सुना और उसे समझा और उसे आगे पहुंचाया, अक्सर ये होता है कि कोई फ़िक़्ह का हामिल होता है मगर फ़कीह नहीं होता और ये भी कि कोई फ़िक़्ह का हामिल उसे जिस की तरफ़ आगे पहुंचाता है वो इस से भी ज़्यादा फ़िक़्ह का हामिल होता है (इब्ने माजा)

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने यहां نضر اللّٰہ عبدا कहा है ना कि عبدا यानी सैग़ा ऐ वाहिद का इस्तिमाल फ़रमाया ना कि सैग़ा ऐ जमा का। यहां एक शख़्स का हदीस आगे बयान करने पर मदह पाई गई है जिस से ख़बर वाहिद की तस्दीक़ होती है । अलावा अज़ीं रसूलुल्लाह का आपऐ की अहादीस को नक़ल करने का हुक्म इस बात का भी हुक्म है कि उसे कुबूल किया जाए, वर्ना वो बेअसर होगी। और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने बारह बादशाहों को इस्लाम की दावत के लिए, एक एक सफ़ीर भेजा । अगर बादशाहों पर इस्लाम की दावत कुबूल करना फ़र्ज़ ना होता तो आप खबरे वाहिद पर इक्तिफा-ए-ना फ़रमाते । इसी तरह आप अपने क़ाज़ीयों और वालियों की तरफ़ एक एक पयाम्बर भुजते और ये आपऐ का हुक्म बजा लाते, अगर ख़बरे वाहिद पर अमल लाज़िम ना होता तो वो ऐसा ना करते। इस बात पर सहाबा ऐ किराम का भी इजमा है और उन्होंने कभी किसी हदीस को इस वजह से रद्द नहीं किया क्योंकि वो खबर-ए-वाहिद थी, बल्कि सिर्फ़ इस वजह से कि वो काबिल-ए-एतिमाद ना होती । इन तमाम दलायल से ये साबित है कि अहकामे शरईया में खबरे वाहिद पर अमल वाजिब है और उस को तर्क करना गुनाह है।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के अफ़आल की तीन अक़साम हैं:

अफआले ख़ास: ये वो अफ़आल हैं जो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के लिए ख़ास हैं। मसलन एक वक़्त में चार से ज़्यादा औरतों के साथ निकाह। इन अफ़आल में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की पैरवी नाजायज़ है।

अफआले जिबिल्ली: ये वो अफ़आल हैं जो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم फ़ितरी तौर पर किया करते थे (जैसा कि इंसान का चलने, बैठने, बोलने वग़ैरा का अंदाज़)। मसलन जब आप صلى الله عليه وسلم पीछे मुड़ कर देखते तो अपने धड़ समेत घूमा करते। इन अफ़आल में रसूलुल्लाह की पैरवी बुनियादी तौर पर मुबाह है।

अफआले आम: इन में मुसलमान पर रसूलुल्लाह की पैरवी लाज़िम है। अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:

لَّقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِى رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٌ۬ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأَخِرَ وَذَكَرَ ٱللَّهَ كَثِيرً۬ا

यक़ीनन तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में बेहतरीन नमूना है उस शख़्स के लिए जो अल्लाह سبحانه وتعال और क़ियामत के रोज़ से उम्मीद रखता है और कसरत से अल्लाह का ज़िक्र करता है (अल अहज़ाब-21)

आयते करीमा में يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأَخِرَ  (अल्लाह और क़ियामत के रोज़ से उम्मीद रखना) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की पैरवी की फ़र्ज़ीयत का क़रीना है। इस का मतलब ये नहीं है कि हम पर रसूलुल्लाह के हर फे़अल को फ़र्ज़ की हैसियत से अदा करना लाज़िम है, बल्कि ये कि इस पैरवी में अफ़आल को इसी दर्जे पर सरअंजाम देना ज़रूरी है, जिस दर्जे पर हुज़ूर ने ख़ुद उन्हें सरअंजाम दिया। यानी अगर आप ने किसी फे़अल को बतौर फ़र्ज़ अदा किया तो हम पर भी उसकी अदायगी बतौर फ़र्ज़ लाज़िम होगी। और अगर आप ने किसी फे़अल को बतौर मंदूब या मुबाह सरअंजाम दिया तो उसकी बजा आवरी भी इसी दर्जे की होगी और इस में रद्दो बदल नाजायज़ होगा, मसलन किसी मुबाह को बतौर फ़र्ज़ अदा किया जाये या किसी फ़र्ज़ को मंदूब या मुबाह के दर्जे पर ।

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