ग़ज़नी की विलायत
हम पढ़ चुके हैं कि पाकिस्तान में इस्लामी हुकूमत का प्रारंभ बनी उमय्या के काल ही में हो गया था, जबकि मुहम्मद बिन क़ासिम ने मकरान, सिंध और मुल्तान को जीतकर उन इलाक़ों को इस्लामी ख़िलाफ़त में शामिल कर लिया था। पाकिस्तान और भारत में इस्लामी विजयों का दूसरा दौर मुहम्मद बिन क़ासिम के तीन सौ साल बाद शुरू हुआ। इस बार मुसलमान मकरान के रास्ते से नहीं बल्कि खै़बर दर्रे के रास्ते आए। उस काल में लाहौर में एक हिन्दू राजा हुकूमत करता था, जिसका नाम जयपाल था। उसकी हुकूमत पेशावर से आगे काबुल तक फैली हुई थी और उसकी सीमाऍं सुबक्तगीन की हुकूमत से मिली हुई थीं। राजा जयपाल ने जब देखा कि सुबक्तगीन की हुकूमत शाक्तिशाली बन रही है तो उसने एक बडी़ फ़ौज लेकर ग़ज़नी की हुकूमत पर हमला कर दिया। लेकिन लडा़ई में सुबक्तगीन ने जयपाल को पराजित कर दिया और उसे गिरफ़्तार कर लिया। जयपाल ने सुबक्तगीन की अधीनता स्वीकर करके अपनी जान बचाई और वार्षिक खिराज देने का वादा किया। अब सुबक्तगीन ने जयपाल को रिहा कर दिया और वह लाहौर वापस आ गया। परन्तु उसने अपने वादे के अनुसार खिराज नहीं भेजा, जिसके कारण सुबक्तगीन ने हमला कर दिया और पेशावर घाटी पर क़ब्ज़ा कर लिया।
महमूद ग़ज़नवी (387 हि./997 ई. से 421 हि./1030 ई.)
बीस साल की हुकूमत के बाद सुबक्तगीन की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका लड़का महमूद ग़ज़नवी गद्दी पर बैठा। महमूद सुबक्तगीन ख़ानदान का सबसे बडा़ हुक्मरॉं हुआ है। वह इस्लामी इतिहास के प्रसिद्ध शासकों में गिना जाता है। महमूद बचपन ही से बडा़ निडर और बहादुर था। वह अपने बाप के साथ कई लडा़ईयों में हिस्सा ले चुका था। महमूद बडा़ सफल सिपहसालार और एक बडा़ विजेता था।
ऊपर बताया जा चुका है कि लाहौर की हुकूमत पहले ही अधीनता स्वीकार कर चुकी थी, परन्तु वहॉं के राजा बार-बार खिराज की रक़म बंद कर देते थे और भारत के राजाओं से मदद लेकर महमूद के मुक़ाबले पर आ जाते थे। महमूद ने उन्हें कई बार पराजित किया और आखिर तंग आकर 412 हि./1021 ई. में लाहौर की हुकूमत को सीधे अपनी सल्तनत में शामिल कर लिया। महमूद ने उन राजाओं के इलाक़ों पर भी हमला किया जो लाहौर के राजा की मदद किया करते थे और इस प्रकार उसने क़न्नौज और कालिंजर तक अपनी सल्तनत बढा़ दी, परन्तु इन इलाक़ों पर महमूद ने अपनी प्रत्यक्ष हुकूमत क़ायम नहीं की, बल्कि राजाओं से अधीनता का वादा लेकर ग़ज़नी वापस चला गया। महमूद का आखिरी हमला सोमनाथ पर हुआ। सोमनाथ से वापसी पर महमूद ने मंसूरा जीतकर सिंध को भी अपनी सल्तनत में मिला लिया। पाकिस्तान और भारत पर महमूद ने कुल सतरह हमले किए। महमूद की फ़ौजें दिल्ली, मथुरा, क़न्नौज, कालिंजर और सोमनाथ तक पहॅुंच गई लेकिन वे लडा़ई लड़कर, माले ग़नीमत एवं अधीनता का वादा लेकर वापस चली जाती थीं। ये राजा बार-बार बाग़ी हो जाते थे और महमूद को पुन: वापस आना पड़ता था।
महमूद ग़ज़नवी का न्याय - महमूद एक बडा़ विजेता एवं सिपहसालर होने के अलावा प्रजा की देखभाल करने वाला भी था। उसके न्याय एवं इन्साफ़ के बहुत से किस्से प्रसिद्ध हैं। एक बार एक व्यापारी ने सुल्तान महमूद से उसके लड़के शहज़ादा मसऊद की शिकायत की और कहा कि मैं परदेसी व्यापारी हूँ और बहुत दिनों से इस शहर में पडा़ हुआ हॅूं। घर जाना चाहता हूँ, लेकिन नहीं जा सकता क्योंकि शहज़ादा ने मुझसे साठ हज़ार दीनार का सौदा ख़रीदा है और क़ीमत अदा नहीं किया हैं। मैं चाहता हॅूं की शहज़ादा मसऊद को क़ाज़ी (न्यायाधीश) के सामने भेजा जाए। महमूद को व्यापारी की बात सुनकर बहुत दुख हुआ और मसऊद को सूचित करवाया कि या तो व्यापारी को क़ीमत अदा कर दे या कचहरी में क़ाज़ी के सामने हाजिर हो, ताकि शरई आदेश जारी किया जाए। जब सुल्तान का संदेश मसऊद तक पहुँचा तो उसने तुरंत अपने ख़ज़ांची से पूछा कि ख़ज़ाने में कितनी नक़द रक़म मौजूद है। उसने बताया, बीस हज़ार दीनार। शहज़ादे ने कहा, ये रक़म व्यापारी को देकर शेष के लिए तीन दिन का समय मॉंग लो। ख़ज़ांची ने उसके आदेश का पालन किया। उधर शहज़ादे ने सुल्तान को सूचित करवा दिया कि मैने बीस हज़ार दीनार अदा कर दिए हैं और तीन दिन में शेष रक़म भी अदा कर दूँगा। सुल्तान ने कहा, मैं कुछ नहीं जानता जब तक तुम व्यापारी की रक़म नहीं अदा करोगे, मैं तुम्हारी सूरत देखना नहीं चाहता। मसऊद को जब यह जवाब मिला तो उसने इधर-उधर से क़र्ज़ लेकन दूसरी नमाज़ के वक़्त तक साठ हज़ार दीनार व्यापारी को अदा कर दिए। इसी प्रकार एक बार ईरान के किसी इलाक़े में जिसे हाल ही में महमूद ने जीता था, व्यापारियों का एक क़ाफिला लुट गया। उस क़ाफिले में एक बुढिया का लड़का भी था। बुढिया ने जब महमूद से इसकी शिकायत की तो उसने कहा कि इलाक़ा बहुत दूर है, इसलिए वहॉं सुरक्षा व्यवस्था बहुत कठिन है। बुढिया भी साहसी थी, उसने जवाब दिया कि जब तुम किसी इलाक़े की सुरक्षा व्यवस्था नहीं कर सकते तो नए-नए देश क्यों जीतते हो। महमूद ने जब बुढिया का यह जवाब सुना तो वह बहुत लज्जित हुआ। बुढिया को तो रुपये-पैसे देकर विदा कर दिया, परन्तु उस इलाक़े में सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ कर दी कि व्यापारियों के क़ाफ़ले को लूटने की हिम्मत फिर किसी ने नहीं की।
ज्ञान एवं साहित्य- महमूद ग़ज़नवी ज्ञान एवं साहित्य का संरक्षक एवं प्रेमी था। ज्ञान एवं कला के प्रति उसके इस आदर भाव के कारण उसके दरबार में बडे-बडे योग्य व्यक्ति जमा हो गए। उनमें केवल कवियों की संख्या चार सौ थी। महमूद के काल का एक बहुत बडा़ अन्वेषक अल-बैरूनी (362 हि./972 ई. से 440 हि./1048 ई.) था। अल-बैरूनी अपने काल का सबसे बडा़ अन्वेषक और वैज्ञानिक था। उसने गणित, खगोलशास्त्र, इतिहास एवं भूगोल में ऐसी-ऐसी श्रेष्ठ किताबें लिखीं जो अब तक शौक़ से पढी़ जाती हैं। उनमें एक किताब 'अलहिन्द' है। इसमें उसने हिन्दुओं के धार्मिक आस्थाओं, उनके इतिहास और पाकिस्तान और भारत के भौगोलिक हालात बहुत खोजपूर्ण रूप से लिखे हैं। इस किताब से हिन्दुओं के इतिहास से सम्बन्धित जो जानकारी प्राप्त होती है, उनमें से बहुत सी जानकारी ऐसी हैं जो और कहीं से प्राप्त नहीं हो सकतीं। इस किताब को लिखने में उसने बहुत मेहनत की। हिन्दू ब्राह्राण अपना ज्ञान किसी दूसरे को सिखाते नहीं थे, परन्तु अल-बैरूनी ने कई साल पश्चिमी पाकिस्तान में रहकर संस्कृत भाषा सीखी और हिन्दुओं के ज्ञान में ऐसी दक्षता प्राप्त कर ली कि ब्राह्राण आश्चर्य करने लगे। अल-बैरूनी की एक प्रसिद्ध किताब 'क़ानूने मसऊदी' है, जो उसने महमूद के लड़के सुल्तान मसऊद के नाम पर लिखी। यह अंतरिक्ष विज्ञान एवं गणित की बडी़ अहम किताब है। इसके कारण अल-बैरूनी को एक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ समझा जाता है।
महमूद ने ग़ज़नी शहर को भी बहुत विकसित किया। जब वह हुक्मरान बना तो यह एक मामूली शहर था, लेकिन महमूद ने अपनी तीस साल की हुकूमत में ग़ज़नी को दुनिया का एक विशाल और विकसित शहर बना दिया। यहॉं उसने एक विशाल मस्जिद का निर्माण करवाया, एक बहुत बडा़ मदरसा और एक संग्रहालय भी बनाया, उसने क़न्नौज की विजय की यादगार के लिए मीनार भी बनायी जो अब तक ग़ज़नी में मौजूद है।
ग़ज़नवी हुक्मरानों में सुल्तान इबराहीम (451 हि./1059 ई. से 492 हि./1099 ई.) का नाम सबसे प्रसिद्ध है। उसने अपने चालीस वर्षीय शासनकाल में सल्तनत को बहुत सुदृढ़ बनाया। सलजूक़ियों से अच्छे सम्बन्ध बनाए और भारत में कई युद्धों में विजयी भी हुआ। उसके काल में हिन्दुओं ने मुसलमानों को पंजाब से बेदख़ल करने की कोशिश की, परन्तु वे इसमें सफल नहीं हुए। इबराहीम ने दिल्ली तक तमाम इलाक़ा ग़ज़नी की सल्तनत में सम्मिलित कर लिया और उसकी फ़ौजों ने वाराणसी तक सफ़ल आक्रमण किए। इबराहीम बडा़ धर्मपरायण और प्रजा का ध्यान रखने वाला शासक था। रात को ग़ज़नी के मुहल्लों में गश्त करता और जुरूरतमंदों एवं विधवाओं को तलाश करके उनकी मदद करता था। वह एक श्रेष्ठ कातिब था। हर वर्ष एक क़ुरआन लिखता, जिसे एक साल मक्का और दूसरे साल मदीना भेज देता था। उसे महल बनाने से ज़्यादा शौक़ ऐसी इमारतों को बनाने का था, जिनसे लोग लाभ उठा सकें। अत: उसके काल में चार सौ से अधिक मदरसे, खानक़ाहें, मुसाफिरख़ाने और मसजिदें बनाई गई। उसने ग़ज़नी के शाही महल में एक बहुत बडा़ दवाख़ाना क़ायम किया था, जहॉं लोगों को मुफ़्त दवाऍं मिलती थीं। इस दवाख़ाने में विशेष रूप से ऑंख की बीमारियों की बडी़ अच्छी दवाऍं थीं।
ग़ज़नवी हुक्मरानों का काल पाकिस्तान के इतिहास में विशेषकर बहुत महत्व रखता है। पश्चिमी पाकिस्तान लगभग दो सौ साल तक ग़ज़नी की सल्तनत का एक हिस्सा रहा और इस काल में इस क्षेत्र में इस्लामी सभ्यता की जडें मज़बूत हुई। कोहे सुलैमान के इलाक़े में रहने वाले पठानों ने इसी काल में इस्लाम धर्म स्वीकर किया और लाहौर पहली बार ज्ञान एवं साहित्य का केन्द्र बना। उसी काल में फ़ारसी के कई साहित्यकार एवं कवि या तो लाहौर में पैदा हुए या यहॉ आकर आबाद हो गए। यहॉं के कवियों में मसऊद, सअद सलमान और रूनी बहुत प्रसिद्ध हैं। ये फ़ारसी के अग्रणी कवियों में गिने जाते हैं। ये दोनों कवि सुल्तान इबराहीम और उसके उत्तराधिकारियों के काल में थे। लाहौर के आलिमों में हज़रत अली उसमान हुजवेरी (400 हि./1010 ई. से 465 हि./1072 ई.) बहुत प्रसिद्ध हैं। वे एक बहुत बडे़ वली हुए हैं। उनकी कोशिशों से लाहौर के इलाक़े में इस्लाम का प्रसार हुआ और बहुत से लोग मुसलमान हुए। हज़रत हुजवेरी (رحمت اللہ علیہ) आजकल 'दातागंज बख़्श' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने इस्लामी दुनिया के बहुत बडे़ भाग की चालीस वर्ष तक सैर की और अन्त में लाहौर आकर रहने लगे। उनकी क़ब्र अब तक लाहौर में मौजूद है।
ग़ज़नवी काल की चर्चा समाप्त करने से पूर्व इस काल की दो महान हस्तियों की चर्चा करना ज़रूरी है। इनमें एक अबू सईद अबुल खै़र (357 हि./967 ई. से 440 हि./1049 ई.) हैं, जो अपने काल के बडे़ सूफ़ी और वली थे। दूसरी हस्ती, सनाई (465 हि./1072 ई. से 545 हि./1150 ई.) की है। सनाई ग़ज़नवियों के अन्तिम दौर के सबसे बडे़ कवि हैं और फ़ारसी में सूफ़ी कविता के प्रवर्तक हैं। उनकी कविता नैतिक शिक्षाओं से भरी हुई है। अबू सईद अबुल खै़र का सम्बन्ध ख़ुरासान से था और सनाई का ग़ज़नी से। अरबी भाष का प्रसिद्ध साहित्यकार बदीउज़्ज़मा हमदानी (मृत्यु 398 हि./1007 ई.) भी इसी काल से सम्बन्ध रखता है। वह हरात का रहने वाल था, उसकी किताब 'मक़ामात' अरबी साहित्य का उत्कृष्ट नमूना समझी जाती है।
हम पढ़ चुके हैं कि पाकिस्तान में इस्लामी हुकूमत का प्रारंभ बनी उमय्या के काल ही में हो गया था, जबकि मुहम्मद बिन क़ासिम ने मकरान, सिंध और मुल्तान को जीतकर उन इलाक़ों को इस्लामी ख़िलाफ़त में शामिल कर लिया था। पाकिस्तान और भारत में इस्लामी विजयों का दूसरा दौर मुहम्मद बिन क़ासिम के तीन सौ साल बाद शुरू हुआ। इस बार मुसलमान मकरान के रास्ते से नहीं बल्कि खै़बर दर्रे के रास्ते आए। उस काल में लाहौर में एक हिन्दू राजा हुकूमत करता था, जिसका नाम जयपाल था। उसकी हुकूमत पेशावर से आगे काबुल तक फैली हुई थी और उसकी सीमाऍं सुबक्तगीन की हुकूमत से मिली हुई थीं। राजा जयपाल ने जब देखा कि सुबक्तगीन की हुकूमत शाक्तिशाली बन रही है तो उसने एक बडी़ फ़ौज लेकर ग़ज़नी की हुकूमत पर हमला कर दिया। लेकिन लडा़ई में सुबक्तगीन ने जयपाल को पराजित कर दिया और उसे गिरफ़्तार कर लिया। जयपाल ने सुबक्तगीन की अधीनता स्वीकर करके अपनी जान बचाई और वार्षिक खिराज देने का वादा किया। अब सुबक्तगीन ने जयपाल को रिहा कर दिया और वह लाहौर वापस आ गया। परन्तु उसने अपने वादे के अनुसार खिराज नहीं भेजा, जिसके कारण सुबक्तगीन ने हमला कर दिया और पेशावर घाटी पर क़ब्ज़ा कर लिया।
महमूद ग़ज़नवी (387 हि./997 ई. से 421 हि./1030 ई.)
बीस साल की हुकूमत के बाद सुबक्तगीन की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका लड़का महमूद ग़ज़नवी गद्दी पर बैठा। महमूद सुबक्तगीन ख़ानदान का सबसे बडा़ हुक्मरॉं हुआ है। वह इस्लामी इतिहास के प्रसिद्ध शासकों में गिना जाता है। महमूद बचपन ही से बडा़ निडर और बहादुर था। वह अपने बाप के साथ कई लडा़ईयों में हिस्सा ले चुका था। महमूद बडा़ सफल सिपहसालार और एक बडा़ विजेता था।
ऊपर बताया जा चुका है कि लाहौर की हुकूमत पहले ही अधीनता स्वीकार कर चुकी थी, परन्तु वहॉं के राजा बार-बार खिराज की रक़म बंद कर देते थे और भारत के राजाओं से मदद लेकर महमूद के मुक़ाबले पर आ जाते थे। महमूद ने उन्हें कई बार पराजित किया और आखिर तंग आकर 412 हि./1021 ई. में लाहौर की हुकूमत को सीधे अपनी सल्तनत में शामिल कर लिया। महमूद ने उन राजाओं के इलाक़ों पर भी हमला किया जो लाहौर के राजा की मदद किया करते थे और इस प्रकार उसने क़न्नौज और कालिंजर तक अपनी सल्तनत बढा़ दी, परन्तु इन इलाक़ों पर महमूद ने अपनी प्रत्यक्ष हुकूमत क़ायम नहीं की, बल्कि राजाओं से अधीनता का वादा लेकर ग़ज़नी वापस चला गया। महमूद का आखिरी हमला सोमनाथ पर हुआ। सोमनाथ से वापसी पर महमूद ने मंसूरा जीतकर सिंध को भी अपनी सल्तनत में मिला लिया। पाकिस्तान और भारत पर महमूद ने कुल सतरह हमले किए। महमूद की फ़ौजें दिल्ली, मथुरा, क़न्नौज, कालिंजर और सोमनाथ तक पहॅुंच गई लेकिन वे लडा़ई लड़कर, माले ग़नीमत एवं अधीनता का वादा लेकर वापस चली जाती थीं। ये राजा बार-बार बाग़ी हो जाते थे और महमूद को पुन: वापस आना पड़ता था।
महमूद ग़ज़नवी का न्याय - महमूद एक बडा़ विजेता एवं सिपहसालर होने के अलावा प्रजा की देखभाल करने वाला भी था। उसके न्याय एवं इन्साफ़ के बहुत से किस्से प्रसिद्ध हैं। एक बार एक व्यापारी ने सुल्तान महमूद से उसके लड़के शहज़ादा मसऊद की शिकायत की और कहा कि मैं परदेसी व्यापारी हूँ और बहुत दिनों से इस शहर में पडा़ हुआ हॅूं। घर जाना चाहता हूँ, लेकिन नहीं जा सकता क्योंकि शहज़ादा ने मुझसे साठ हज़ार दीनार का सौदा ख़रीदा है और क़ीमत अदा नहीं किया हैं। मैं चाहता हॅूं की शहज़ादा मसऊद को क़ाज़ी (न्यायाधीश) के सामने भेजा जाए। महमूद को व्यापारी की बात सुनकर बहुत दुख हुआ और मसऊद को सूचित करवाया कि या तो व्यापारी को क़ीमत अदा कर दे या कचहरी में क़ाज़ी के सामने हाजिर हो, ताकि शरई आदेश जारी किया जाए। जब सुल्तान का संदेश मसऊद तक पहुँचा तो उसने तुरंत अपने ख़ज़ांची से पूछा कि ख़ज़ाने में कितनी नक़द रक़म मौजूद है। उसने बताया, बीस हज़ार दीनार। शहज़ादे ने कहा, ये रक़म व्यापारी को देकर शेष के लिए तीन दिन का समय मॉंग लो। ख़ज़ांची ने उसके आदेश का पालन किया। उधर शहज़ादे ने सुल्तान को सूचित करवा दिया कि मैने बीस हज़ार दीनार अदा कर दिए हैं और तीन दिन में शेष रक़म भी अदा कर दूँगा। सुल्तान ने कहा, मैं कुछ नहीं जानता जब तक तुम व्यापारी की रक़म नहीं अदा करोगे, मैं तुम्हारी सूरत देखना नहीं चाहता। मसऊद को जब यह जवाब मिला तो उसने इधर-उधर से क़र्ज़ लेकन दूसरी नमाज़ के वक़्त तक साठ हज़ार दीनार व्यापारी को अदा कर दिए। इसी प्रकार एक बार ईरान के किसी इलाक़े में जिसे हाल ही में महमूद ने जीता था, व्यापारियों का एक क़ाफिला लुट गया। उस क़ाफिले में एक बुढिया का लड़का भी था। बुढिया ने जब महमूद से इसकी शिकायत की तो उसने कहा कि इलाक़ा बहुत दूर है, इसलिए वहॉं सुरक्षा व्यवस्था बहुत कठिन है। बुढिया भी साहसी थी, उसने जवाब दिया कि जब तुम किसी इलाक़े की सुरक्षा व्यवस्था नहीं कर सकते तो नए-नए देश क्यों जीतते हो। महमूद ने जब बुढिया का यह जवाब सुना तो वह बहुत लज्जित हुआ। बुढिया को तो रुपये-पैसे देकर विदा कर दिया, परन्तु उस इलाक़े में सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ कर दी कि व्यापारियों के क़ाफ़ले को लूटने की हिम्मत फिर किसी ने नहीं की।
ज्ञान एवं साहित्य- महमूद ग़ज़नवी ज्ञान एवं साहित्य का संरक्षक एवं प्रेमी था। ज्ञान एवं कला के प्रति उसके इस आदर भाव के कारण उसके दरबार में बडे-बडे योग्य व्यक्ति जमा हो गए। उनमें केवल कवियों की संख्या चार सौ थी। महमूद के काल का एक बहुत बडा़ अन्वेषक अल-बैरूनी (362 हि./972 ई. से 440 हि./1048 ई.) था। अल-बैरूनी अपने काल का सबसे बडा़ अन्वेषक और वैज्ञानिक था। उसने गणित, खगोलशास्त्र, इतिहास एवं भूगोल में ऐसी-ऐसी श्रेष्ठ किताबें लिखीं जो अब तक शौक़ से पढी़ जाती हैं। उनमें एक किताब 'अलहिन्द' है। इसमें उसने हिन्दुओं के धार्मिक आस्थाओं, उनके इतिहास और पाकिस्तान और भारत के भौगोलिक हालात बहुत खोजपूर्ण रूप से लिखे हैं। इस किताब से हिन्दुओं के इतिहास से सम्बन्धित जो जानकारी प्राप्त होती है, उनमें से बहुत सी जानकारी ऐसी हैं जो और कहीं से प्राप्त नहीं हो सकतीं। इस किताब को लिखने में उसने बहुत मेहनत की। हिन्दू ब्राह्राण अपना ज्ञान किसी दूसरे को सिखाते नहीं थे, परन्तु अल-बैरूनी ने कई साल पश्चिमी पाकिस्तान में रहकर संस्कृत भाषा सीखी और हिन्दुओं के ज्ञान में ऐसी दक्षता प्राप्त कर ली कि ब्राह्राण आश्चर्य करने लगे। अल-बैरूनी की एक प्रसिद्ध किताब 'क़ानूने मसऊदी' है, जो उसने महमूद के लड़के सुल्तान मसऊद के नाम पर लिखी। यह अंतरिक्ष विज्ञान एवं गणित की बडी़ अहम किताब है। इसके कारण अल-बैरूनी को एक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ समझा जाता है।
महमूद ने ग़ज़नी शहर को भी बहुत विकसित किया। जब वह हुक्मरान बना तो यह एक मामूली शहर था, लेकिन महमूद ने अपनी तीस साल की हुकूमत में ग़ज़नी को दुनिया का एक विशाल और विकसित शहर बना दिया। यहॉं उसने एक विशाल मस्जिद का निर्माण करवाया, एक बहुत बडा़ मदरसा और एक संग्रहालय भी बनाया, उसने क़न्नौज की विजय की यादगार के लिए मीनार भी बनायी जो अब तक ग़ज़नी में मौजूद है।
ग़ज़नवी हुक्मरानों में सुल्तान इबराहीम (451 हि./1059 ई. से 492 हि./1099 ई.) का नाम सबसे प्रसिद्ध है। उसने अपने चालीस वर्षीय शासनकाल में सल्तनत को बहुत सुदृढ़ बनाया। सलजूक़ियों से अच्छे सम्बन्ध बनाए और भारत में कई युद्धों में विजयी भी हुआ। उसके काल में हिन्दुओं ने मुसलमानों को पंजाब से बेदख़ल करने की कोशिश की, परन्तु वे इसमें सफल नहीं हुए। इबराहीम ने दिल्ली तक तमाम इलाक़ा ग़ज़नी की सल्तनत में सम्मिलित कर लिया और उसकी फ़ौजों ने वाराणसी तक सफ़ल आक्रमण किए। इबराहीम बडा़ धर्मपरायण और प्रजा का ध्यान रखने वाला शासक था। रात को ग़ज़नी के मुहल्लों में गश्त करता और जुरूरतमंदों एवं विधवाओं को तलाश करके उनकी मदद करता था। वह एक श्रेष्ठ कातिब था। हर वर्ष एक क़ुरआन लिखता, जिसे एक साल मक्का और दूसरे साल मदीना भेज देता था। उसे महल बनाने से ज़्यादा शौक़ ऐसी इमारतों को बनाने का था, जिनसे लोग लाभ उठा सकें। अत: उसके काल में चार सौ से अधिक मदरसे, खानक़ाहें, मुसाफिरख़ाने और मसजिदें बनाई गई। उसने ग़ज़नी के शाही महल में एक बहुत बडा़ दवाख़ाना क़ायम किया था, जहॉं लोगों को मुफ़्त दवाऍं मिलती थीं। इस दवाख़ाने में विशेष रूप से ऑंख की बीमारियों की बडी़ अच्छी दवाऍं थीं।
ग़ज़नवी हुक्मरानों का काल पाकिस्तान के इतिहास में विशेषकर बहुत महत्व रखता है। पश्चिमी पाकिस्तान लगभग दो सौ साल तक ग़ज़नी की सल्तनत का एक हिस्सा रहा और इस काल में इस क्षेत्र में इस्लामी सभ्यता की जडें मज़बूत हुई। कोहे सुलैमान के इलाक़े में रहने वाले पठानों ने इसी काल में इस्लाम धर्म स्वीकर किया और लाहौर पहली बार ज्ञान एवं साहित्य का केन्द्र बना। उसी काल में फ़ारसी के कई साहित्यकार एवं कवि या तो लाहौर में पैदा हुए या यहॉ आकर आबाद हो गए। यहॉं के कवियों में मसऊद, सअद सलमान और रूनी बहुत प्रसिद्ध हैं। ये फ़ारसी के अग्रणी कवियों में गिने जाते हैं। ये दोनों कवि सुल्तान इबराहीम और उसके उत्तराधिकारियों के काल में थे। लाहौर के आलिमों में हज़रत अली उसमान हुजवेरी (400 हि./1010 ई. से 465 हि./1072 ई.) बहुत प्रसिद्ध हैं। वे एक बहुत बडे़ वली हुए हैं। उनकी कोशिशों से लाहौर के इलाक़े में इस्लाम का प्रसार हुआ और बहुत से लोग मुसलमान हुए। हज़रत हुजवेरी (رحمت اللہ علیہ) आजकल 'दातागंज बख़्श' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने इस्लामी दुनिया के बहुत बडे़ भाग की चालीस वर्ष तक सैर की और अन्त में लाहौर आकर रहने लगे। उनकी क़ब्र अब तक लाहौर में मौजूद है।
ग़ज़नवी काल की चर्चा समाप्त करने से पूर्व इस काल की दो महान हस्तियों की चर्चा करना ज़रूरी है। इनमें एक अबू सईद अबुल खै़र (357 हि./967 ई. से 440 हि./1049 ई.) हैं, जो अपने काल के बडे़ सूफ़ी और वली थे। दूसरी हस्ती, सनाई (465 हि./1072 ई. से 545 हि./1150 ई.) की है। सनाई ग़ज़नवियों के अन्तिम दौर के सबसे बडे़ कवि हैं और फ़ारसी में सूफ़ी कविता के प्रवर्तक हैं। उनकी कविता नैतिक शिक्षाओं से भरी हुई है। अबू सईद अबुल खै़र का सम्बन्ध ख़ुरासान से था और सनाई का ग़ज़नी से। अरबी भाष का प्रसिद्ध साहित्यकार बदीउज़्ज़मा हमदानी (मृत्यु 398 हि./1007 ई.) भी इसी काल से सम्बन्ध रखता है। वह हरात का रहने वाल था, उसकी किताब 'मक़ामात' अरबी साहित्य का उत्कृष्ट नमूना समझी जाती है।
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