क़ज़ा (judiciary)

अदलिया इस बात के लिए ज़िम्मेदार है कि वोह फैसला लागू करने के उद्देश्य के साथ उस फैसले को सुनाए। वो लोगों के बीच झगड़ों में फ़ैसले करती है या उस चीज़ को रोकती है जिससे समाज के अधिकारों को नुक़्सान पहुंचता है, लोगों के बीच, या किसी शख़्स और हुकूमत (हाकिम या कोई मुलाज़िम, ख़लीफ़ा या दूसरे) के बीच झगडों में फ़ैसला करती है।
क़ज़ा की हक़ीक़त और असलीयत किताबो सुन्नत है। जहां तक किताबुल्लाह का सवाल है, तो अल्लाह (سبحانه وتعال) फ़रमाता है:

وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَہُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ
आप उनके मुआमलात में ख़ुदा की नाज़िल करदा वही के मुताबिक़ ही हुक्म किया कीजिए।
(तर्जुमा मानिये क़ुरआन: अलमाइदा-49)

وَإِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَہُمۡ إِذَا فَرِيقٌ۬ مِّنۡہُم مُّعۡرِضُونَ

और जब उन्हें अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ बुलाया जाता है कि वो उनके बीच फ़ैसला करे...

(तर्जुमा मानिये क़ुरआन: अल नूर-48)

सुन्नत के मुताबिक़, हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم क़ज़ा के पद पर खुद पदासीन थे और वो लोगों के बीच अहकाम जारी फ़रमाते थे, बुख़ारी शरीफ़ में रिवायत है:

हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने क़ाज़ी मुक़र्रर फ़रमाए, चुनांचे हज़रत अली رضي الله عنه यमन के क़ाज़ी बनाए गए और आप  صلى الله عليه وسلم ने उन्हें क़ज़ा से मुताल्लिक़ हिदायात दीं, फ़रमाया:

((إذا تقاضا إلیک رجلان فلا تقض للأول حتی تسمع کلام الآخر فسوف تدري کیف تقضي))

जब तुम्हारे पास दो लोग कोई मुआमला लेकर आएं तो उस वक़्त तक फ़ैसला ना करो जब तक दूसरे शख़्स की भी बात ना सुन लो, फिर तुम्हें मालूम हो जाएगा कि कैसे फ़ैसला हो (तिरमिज़ी)

मुसनद अहमद की रिवायत में ये अल्फाज़ हैं:

जब तुम्हारे सामने दो फ़रीक़ बैठें तो उस वक़्त तक ना बोलो जब तक दूसरे की बात इस तरह ना सुन लो जैसे पहले की सुनी थी।

हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने हज़रत माज़ رضي الله عنه को अलजुनद का क़ाज़ी मुक़र्रर फ़रमाया था, और ये तमाम अहादीस क़ज़ा की मशरूईयत (validity) के लिए दलील ठहरती हैं।

जैसे की ज़िक्र किया गया, लोगों के बीच झगडों का निवारण करना क़ज़ा की तारीफ़ में दाख़िल है और इसी तरह हिस्बा भी इसी में शामिल है। हिस्बा की तारीफ़ यूं की गई है:

(الإخبار بالحکم الشرعی علی سبیل الإلزام فیما یضر حق الجماعۃ)
सामुहिक अधिकारों को जिन मुआमलात से नुक़्सान हो, उनसे सम्बन्धित शरई हुक्म की इत्तिला या ख़बर जिसको लागू करना लाज़मी हो।

सही मुस्लिम में हज़रत अबु हुरैराह رضي الله عنه से अनाज के ढेर से सम्बन्धित हदीस से इसी तारीफ़ की पुष्टी होती है:

हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم बाज़ार में एक गल्ले के ढेर के क़रीब से गुज़रे तो अपना हाथ उस ढेर के अंदर डाला और आप  صلى الله عليه وسلم की उंगलियां ग़ल्ला भीगा हुआ होने की वजह से नम हो गईं, तो फ़रमाया: ऐ अनाज बेचने वाले, ये क्या है? उस शख़्स ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल  صلى الله عليه وسلم, ये आसमान (यानी बारिश) की वजह से हुआ। आप ने फ़रमाया: तो इस भीगे हुए हिस्से को ऊपर क्यों नहीं रखा कि लोग देख सकें? जो धोखा दे वो हम में से नहीं!

इसी तरह मुआमलात मज़ालिम भी क़ज़ा में दाख़िल हैं जो कि शासकों के ख़िलाफ़ शिकायतों पर आधारित होते हैं, मज़ालिम की तारीफ़ इस तरह आई है:

(الإخبار بالحکم الشرعی علی سبیل الإلزامفیما یقع بین الناس و بین الخلیفۃ أو أحد معاونیہ،أو ولاتہ أو موظفیہ،و فیما یقع بینا لمسلمین من اختلاف فی معنی نصّ من نصوص الشرع الَّذی یراد القضاء بحسبھا والحکم بموجبھا)

किसी शरई हुक्म के बारे ऐसी ख़बर जो लागू करने योग्य  हो और जो अवाम और ख़लीफ़ा या इसके किसी मुआविन, वाली या मुलाज़िम के बीच झगडा और मुसलमानों के बीच नुसूसे शरीयत में से किसी नस के मानी और मफ़हूम के बारे में मतभेद, जिस पर क़ज़ा का फ़ैसला और इसकी वजह से हुक्म जारी करना मतलूब हो।

मज़ालिम का ज़िक्र हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم की इस हदीस में भी वारिद हुआ है जो अशीया की नर्ख़ मुतय्यन करने के सिलसिले में है:

((۔۔۔ و إنِّي لأرجو أن ألقی اللّّٰہ،ولا یطلبني أحد بِمَظْلِمَۃ ظلمتھا إیاہُ في دمٍ ولا مالٍ))
और मैं अल्लाह (سبحانه وتعال) से इस हाल में मिलना चाहता हूँ कि मुझ से कोई शख़्स किसी मज़लिमा का मुतालिबा ना करे, ना जान का ना माल का।(रावी हज़रत अनस رضي الله عنه :मुसनद अहमद)

इससे ये मालूम हुआ कि हाकिम, वाली या किसी मुलाज़िम के किसी मज़लिमा का मुआमला जब कोई शख़्स उठाए तो वो क़ाज़ीऐ मज़ालिम के पास जाएगा जो इस पर फ़ैसला जारी करेगा और जो काबिले निफाज़ होगा। लिहाज़ा क़ज़ा की विस्तृत तारीफ़ में ये तीनों चीज़ें शामिल होंगी जो हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم के क़ौल और फे़अल से साबित हैं, यानी: लोगों के बीच झगडों के फ़ैसले, समाज को नुक़्सान पहुंचाने वाली हर चीज़ को रोकना और जनता और शासक के बीच, या अवाम और हुकूमत के मुलाज़मीन के बीच झगडे का फ़ैसला।

क़ज़ा की क़िस्में:

क़ज़ा की तीन क़िस्में हैं: एक} क़ाज़ी, जो लोगों के बीच मुआमलात में या ताज़ीरात (उक़ूबात/ penal codes) के फ़ैसले करता है; दो} मुहतसिब, जो उन क़ानून के उलघंन का फ़ैसला करता है जिनसे समाज के अधिकारों को नुक़्सान पहुंचता हो; और तीन} क़ाज़ीऐ मज़ालिम, जो जनता और रियासत के बीच झगडे का फ़ैसला करता है।

ये तीन क़िस्म के क़ाज़ी हुए, पहली क़िस्म के क़ाज़ी, यानी जो लोगों के बीच झग़डों को रफ़ा करते हैं, तो उनकी दलील हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم का फे़अल (जैसा कि हज़रत साद इब्ने अबी वक़्क़ास वाली हदीस में गुज़रा) और हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم का हज़रत माज़ رضي الله عنه को यमन का क़ाज़ी बनाना है। दूसरी क़िस्म के क़ाज़ी, यानी मुहतसिब जो जनता के हक़ को नुक़्सान से रोकता है, ये भी हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم के क़ौल और फे़अल से साबित हुआ, आप  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((مَن غَشَّ فَلَیْسَ مِنِّي))
जो धोका दे वो हम में से नहीं!

ये मुसनद अहमद की उस हदीस का हिस्सा है जो हज़रत अबु हुरैराह رضي الله عنه से रिवायत है और ऊपर गुज़र चुकी है। हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم धोका देने वाले पर रोक टोक लगाते थे और सज़ा दिया करते थे। मुसनद अहमद में क़ैस इब्ने अबी ग़रज़ा अलकनानी की रिवायत नक़ल हुई है, कहते हैं कि हम मदीना में माल थोक से ख़रीदा करते थे और ख़ुद को वसीत या दलाल कहते थे, हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم बाज़ार आए और हमें एक बेहतर नाम से पुकारा:
ऐ ताजिरो (traders) ! ऐसी तिजारत में बकवास बातें होती हैं और क़समें खाई जाती हैं, उनको सदक़े से पाक कर लो।

मुसनद अहमद में अबी मिनहाल से रिवायत है:

(أن زید بن أرقم و البراء بن العازب کانا شریکین فاشتریا فضۃ بنقد و نسیءۃ ف فبلغ ذلک النبي فأمرھما أن ما کان بنقد فأجیزوہ وما کان بنسیءۃ فردوہ)
जै़द इब्ने अरक़म और अल बराअ इब्ने अल आज़िब आपस में शरीक (पार्टनर) थे, उन्होंने चांदी ख़रीदी, नक़दन और उधार। जब ये इत्तिला हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم को पहुंची तो आप ने नक़द ख़रीद को जायज़ क़रार दिया और उधार वाली को रोक दिया और कहा कि इसे वापिस कर दो।

ये मुआमला भी हिस्बा से मुताल्लिक़ है। हिस्बा उस क़ज़ा का नाम है जो सामाजिक अधिकारों को नुक़्सान पहुंचाने वाले मुआमले में फ़ैसला देती हो। हिस्बा रियासते इस्लामी में एक तय इस्तिलाह है जिसके अंतर्गत व्यापारीयों और दस्तकारों पर निगरानी की जाती है ताकि उन्हें अपनी तिजारत, काम और माल में लोगों को धोका देने से दूर रखा जाये, उन पर सही नाप, माप और तौल की पाबंदी की जाये वग़ैरा जिनसे समाज को नुक़्सान पहुंचता है। ये वो अमल है जो आप  صلى الله عليه وسلم ने बज़ाते ख़ुद किया, इस का हुक्म दिया और जैसा कि अल बराअ इब्ने अल आज़िब वाली हदीस से साबित है, दोनों पक्षों को उधार वाली चांदी के सौदे से मना फ़रमाया। तबक़ात इब्ने साद और इब्ने अब्दे बर की अल इस्तेआब में आता है कि फ़तह मक्का के बाद आप  صلى الله عليه وسلم ने हज़रत सईद इब्ने अल आस رضي الله عنه को मक्का के बाज़ार पर तैनात किया। चुनांचे हिस्बा का हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم की सुन्नत से साबित होना स्पष्ट है। इसी तरह हज़रत उमर इब्ने अल ख़त्ताब رضي الله عنه ने अपने क़बीला की एक ख़ातून अलशिफ़ा को जो उम्मे सुलेमान इब्ने अबी हस्मा के नाम से प्रसिद्द थीं, मदीना के बाज़ार पर क़ाज़ी नियुक्त किया और अब्दुल्लाह इब्ने उत्बा को भी मदीना के बाज़ार पर नियुक्त किया, यानी क़ाज़ीऐ हिस्बा मुक़र्रर किया। इसको इमाम मालिक ने अल मुअत्ता में और इमाम शाफ़ई ने अपनी मसनद में रिवायत किया है। मज़ीद ये कि हज़रत उमर बज़ाते ख़ुद बाज़ार का गशत लगाते और हिस्बा से मुताल्लिक़ फ़ैसले किया करते थे, जैसा कि ख़ुद रसूलुल्लाह  صلى الله عليه وسلم का अमल था। तमाम ख़लीफा का इसी पर अमल रहा यहां तक कि अलमहदी के दौरे ख़िलाफ़त में हिस्बा क़ज़ा की एक स्थाई शाख़ के तौर पर अलग से विभाग बन गया। हारून अलरशीद के दौर में क़ाज़ी हिस्बा बाज़ार का दौरा करते थे, नाप तौल के पैमानों की जांच करते ताकि लोगों को धोका ना हो और व्यापारियों के मुआमलात की ख़बरगीरी भी करते थे।

क़ज़ा की क़िस्मे मज़ालिम की दलील अल्लाह (سبحانه وتعال) का ये फ़रमान है:

فَإِن تَنَـٰزَعۡتُمۡ فِى شَىۡءٍ۬ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ
फिर अगर किसी चीज़ में तुम मतभेद करो तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ लौटा दो
(तर्जुमा माअनीये क़ुरआन:अन्निसा-59)

ये भी ध्यान में रहे कि अल्लाह (سبحانه وتعال) का ये फ़रमान, उसके इस हुक्म के बाद आया:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ
ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो और उनकी जो तुम में साहिबे इक़्तिदार हैं। (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन:अन्निसा-59)

लिहाज़ा जनता और हाकिम यानी उलिल अम्र के बीच जो भी झगडा हो, ये लाज़िम है कि उसे अल्लाह سبحانه وتعال और उसके रसूल  صلى الله عليه وسلم की तरफ़ लौटाया जाये, यानी अल्लाह के हुक्म से रुजू किया जाये। इस का लाज़िम तक़ाज़ा ये है कि एक क़ाज़ी हो जो इस झगडे में हुक्म जारी करे, यानी क़ाज़ीऐ मज़ालिम क्योंकि मज़ालिम की तारीफ़ में रियाया और ख़लीफ़ा के बीच झगडे के मुआमलात शामिल हैं। क़ज़ा के मज़ालिम की दलील हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم का क़ौल और फे़अल दोनों हैं, अलबत्ता आप  صلى الله عليه وسلم ने ख़ास तौर पर पर मज़ालिम के लिए पूरी रियासत में कोई स्थाई क़ाज़ी मुक़र्रर नहीं फ़रमाया, इसी तरह ख़ुलफाऐ राशिदीन رضی اللہ عنھم भी इस विभाग में ख़ुद ही फ़ैसले किया करते थे। यही अमल हज़रत अली رضي الله عنه के वक़्त भी रहा, अलबत्ता हज़रत अली ने इस काम के लिए कोई वक़्त ख़ास नहीं कर रखा था और ना ही कोई ख़ास तरीका जारी किया था, बल्कि जब भी कोई ऐसा हादिसा पेश आता, जो मज़ालिम की तारीफ़ में आता हो, उस वक़्त वो इस में हुक्म दिया करते थे, यानि कि मज़ालिम के फ़ैसले उनकी आम ज़िम्मेदारीयों में शामिल थे। अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के वक़्त यही सिलसिला जारी रहा, अब्दुल मलिक इब्ने मरवान वो पहले ख़लीफ़ा थे जिन्होंने मज़ालिम के मुआमलात के लिए एक दिन ख़ास कर लिया था और इसके के लिए एक ख़ास तरीक़ा भी अपनाया था। उसी दिन वो मज़लिमा के मुआमलात देखा करते थे। जब कोई ऐसा मुआमला मज़ालिम के अंतर्गत पेश आता जिसे वो ख़ुद नहीं हल कर पाते तो ऐसे मुआमला को वो एक क़ाज़ी को भेज देते थे जो इस पर फ़ैसला देता। इसके बाद ख़लीफा ने ख़ास नुमाइंदे मुक़र्रर किए जो मज़ालिम के मुआमलात देखा करते थे और उनके लिए ख़ास ढंग जारी हुए। उसको दारुल अद्ल (House of Justice ) कहा जाता था। ये जायज़ अमल है क्योंकि ख़लीफ़ा पर जो भी ज़िम्मेदारीयां होती हैं, उसके लिए जायज़ है कि वो उनको अंजाम देने के लिए अपने नायब मुक़र्रर करे जो उन्हें अंजाम दें। इसी तरह इस काम के लिए वक़्त और तरीक़ा ख़ास कर लेना भी जायज़ है क्योंकि ये सब मुबाह (जायज़) के दायरे में आता है।

क़ाज़ीयों के लिए शराइत:

जिसे क़ाज़ी के ओहदे पर मुक़र्रर किया जाये ये लाज़िम है कि वो मुस्लिम, आज़ाद, बालिग़, आक़िल, आदिल, फ़क़ीह (learned scholar) हो और अहकाम का हक़ीक़ते हाल पर इंतिबाक़ (apply) करना जानता हो। इसके अलावा जो शख़्स क़ाज़ीऐ मज़ालिम हो वह इन शराईत के साथ साथ मर्द हो और क़ाज़ीऐ क़ज़ाकी तरह मुज्तहिद हो क्योंकि इस ओहदे का हुक्म क़ज़ा के साथ साथ हाकिम पर भी लागू होता है और इस पर शरीयत लागू करता है, लिहाज़ा इस का बाक़ी शराइत के साथ साथ मर्द होना भी ज़रूरी है। इन शराइत में क़ाज़ी के लिए फ़क़ीह होना लाज़िमी है, लेकिन क़ाज़ीऐ मज़ालिम के लिए फ़क़ीह होने के साथ इस का मुज्तहिद होना भी ज़रूरी है, क्योंकि क़ाज़ीऐ मज़ालिम की ज़िम्मेदारीयों में ये देखना भी शामिल है कि कहीं हाकिम अल्लाह के नाज़िल करदा अहकाम के अलावा और किसी हुक्म को तो लागू नहीं कर रहा, यानी कोई ऐसा क़ानून तो नहीं जिस की कोई शरई दलील ना हो या हाकिम की कोई दलील ऐसी तो नहीं जिसका वाक़िये पर इंतिबाक़ शरई ना हो। ऐसे मुआमलात पर सिर्फ़ एक मुज्तहिद ही फ़ैसला कर सकता है और अगर फ़ैसला करने वाला मुज्तहिद ना हो तो वो फ़ैसला जहालत का फ़ैसला होगा जो कि हराम है। चुनांचे क़ाज़ीऐ मज़ालिम के लिए हाकिम और क़ाज़ी की शराइत से आगे बढ़ कर मुज्तहिद होना लाज़िमी होता है।

क़ाज़ीयों की नियुक्ति:

ये जायज़ है कि क़ाज़ी, क़ाज़ीऐ मुहतसिब और क़ाज़ीऐ मज़ालिम की नियुक्ति आम हो, यानी पूरी रियासत पर हवावर ये भी जायज़ है कि ये तक़र्रुरी किसी ख़ास इलाक़े या ख़ास श्रेणी के मुआमलात तक सीमित हो। ये दोनों सूरते हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم के फे़अल से अख़ज़ की हुई हैं। आप ने हज़रत अली इब्ने अबी तालिब رضي الله عنه को यमन का क़ाज़ी, और हज़रत मआज़ इब्ने जबल رضي الله عنه को यमन के एक ख़ास इलाक़े का क़ाज़ी मुक़र्रर फ़रमाया था, जबकि अमरो इब्ने अलआस رضي الله عنه को एक ख़ास श्रेणी के मुआमले का क़ाज़ी नियुक्त किया था।

क़ज़ा की तनख़्वाहें:

अल्लामा हाफ़िज़ “अल फतह’ में कहते हैं कि रिज़्क (बमानी रो अतब या तनख़्वाह) वो होता है जो ख़लीफ़ा मुसलमानों के मुआमलात की निगरानी करने वालों के लिए बैतुल माल से मुक़र्रर करे और क़ज़ा उन विभागों में शामिल है जिनके लिए बैतुल माल से रिज़्क लिया जा सकता है क्योंकि क़ज़ा वो अमल है जिसमें मुसलमानों की मस्लिहत के लिए रियासत क़ाज़ीयों को तनख़्वाह पर नियुक्त करती है। रियासत मुसलमानों की मस्लिहत के मद्दे नज़र किसी भी काम के लिए लोगों को उजरत पर मुक़र्रर करती है जो इस काम को सही शरई तरीक़े से अंजाम दे सकें । हर वो शख़्स जो ऐसे किसी भी काम पर नियुक्त किया जाये, रिज़्क या तनख़्वाह का हक़दार होता है चाहे ये काम इबादात से सम्बन्धित हो या इबादात के मासिवा। उसकी दलील ये है कि अल्लाह سبحانه وتعال   ने सदक़ात वसूल करने वालों को भी सदक़ात में शरीक बनाया है, चुनांचे अल्लाह का इरशाद है:

إِنَّمَا ٱلصَّدَقَـٰتُ لِلۡفُقَرَآءِ وَٱلۡمَسَـٰكِينِ وَٱلۡعَـٰمِلِينَ عَلَيۡہَا
जो इस काम पर मामूर हो  (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: तौबा-60)

सुनन अबी दाऊद और इब्ने खुज़ैमाह ने अपनी सही में और बैहक़ी और हाकिम ने शैख़ीन की शर्त पर बुरीदा رضي الله عنه से नक़ल किया है जिससे अल्लामा अलज़हबी رحمت اللہ علیہ ने सहमती वयक्त की है कि हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((أیما عامل استعملناہ و فرضنا لہ رزقاً ،فما أصاب بعد رزقہ فھو غلول))
हम जब किसी शख़्स को किसी काम पर मुक़र्रर करें और इसके लिए उजरत या तनख़्वाह मुक़र्रर कर दें, तो इसके बाद वो जो कुछ इज़ाफ़ी हाँसिल करे वो इस्तग़लाल (deception) है।

अल्लामा अलमावरदी رحمت اللہ علیہ अपनी तसनीफ़ अलहावी में तहरीर करते हैं: क़ज़ा उन मुआमलात में शामिल है जिनके लिए बैतुल माल से रिज़्क या तनख़्वाह ली जा सकती है, क्योंकि अल्लाह ने सदक़ात वसूल करने पर तैनात लोगों को इस में हिस्सादार बनाया है। हज़रत उमर ने शरीह को क़ाज़ी के तौर पर नियुक्त किया और उनके लिए माहाना सौ दिरहम बतौर तनख़्वाह मुक़र्रर की और जब ख़िलाफ़त हज़रत अली इब्ने अबी तालिब رضي الله عنه को मिली तो उन्होंने इस तनख़्वाह को बढ़ा कर पाँच सौ दिरहम माहाना कर दिया और हज़रत जै़द इब्ने साबित رضي الله عنه ने भी क़ज़ा पर नियुक्त होने की तनख़्वाह हाँसिल की। इसी पर टिप्पणी करते हुए इमाम बुख़ारी ने भी लिखा है कि: शरीह क़ाज़ी होने की हैसियत से तनख़्वाह लिया करते थे। इस टिप्पणी पर अल्लामा हाफिज़ رحمت اللہ علیہ ने अपनी टिप्पणी लिखी है: शरीह के बारे में सईद इब्ने मंसूर, सुफ़ियान से और वो मुजाहिद से अश्शाबी की रिवायत नक़ल करते हैं कि “मसरूक़ क़ज़ा की तनख़्वाह हाँसिल नहीं करते थे जबकि शुरेह तनख्वाह लिया करते थे।
Masruq did not use to take a wage on judiciary, and
Shurayh used to take."

“अल्लामा हाफ़िज़  رحمت اللہ علیہ  अपनी किताब अल फतह में ज़िक्र करते हैं: इब्ने मंज़र ने बताया कि हज़रत जै़द इब्ने साबित رضي الله عنه क़ज़ा पर नियुक्त होने की तनख़्वाह हाँसिल करते थे। और तबक़ात इब्ने साद में नाफ़े से रिवायत नक़ल है: हज़रत उमर इब्ने अलख़ताब رضي الله عنه ने हज़रत जै़द इब्ने साबित رضي الله عنه को क़ज़ा के लिए मुतय्यन फ़रमाया और उनके लिए तनख़्वाह मुक़र्रर की। क़ज़ा के लिए तनख़्वाह हाँसिल करने पर सहाबाऐ किराम और उनके बाद भी इजमा (Consensus) रहा। अल्लामा हाफ़िज़ رحمت اللہ علیہ  अपनी किताब अल फतह में तहरीर करते हैं: अबु अली अल क़राबीसी का क़ौल है: “अहले इल्म और जलीलुल अलक़द्र सहाबा और उनके बाद इस बात पर इत्तिफ़ाक़ रहा है कि क़ाज़ी के लिए क़ज़ा पर फ़ाइज़ होने की उजरत लेने में कोई हर्ज नहीं है और यही फुक़्हा का भी क़ौल, मुझे नहीं मालूम कि इस बारे में किसी को भी मतभेद हो, अलबत्ता कुछ लोगों को जिनमें मसरूक़ शामिल हैं उजरत लेना नागवार था बहरहाल में नहीं जानता कि किसी ने भी उसको हराम बताया हो।“ अल्लामा इब्ने क़ुदामह رحمت اللہ علیہ अपनी तसनीफ़ अल मुग़नी में लिखते हैं: हज़रत उमर رضي الله عنه ने जब हज़रत मआज़ इब्ने जबल رضي الله عنه और हज़रत अबु उबैदा رضي الله عنه को शाम भेजा तो उन्हें रिसाला लिखा कि वो वहाँ नेक लोगों को चुन कर उन्हें क़ज़ा के काम पर रखें, और अल्लाह के माल में से उनकी परवरिश करें, उन्हें उजरत दें और उनकी तंगी दूर करें।

अदालतों की तशकील :

ये जायज़ नहीं है कि किसी भी अदालत में एक से ज़्यादा क़ाज़ी हों, जिन्हें फ़ैसला करने का अधिकार हो। अलबत्ता ये जायज़ है कि क़ाज़ी के साथ एक या एक से ज़्यादा क़ाज़ी अदालत में हों, लेकिन इन अतिरिक्त क़ाज़ीयों को फ़ैसला करने का अधिकार नहीं हो सकता, वो सिर्फ़ राय मश्वरा दे सकते हैं और फ़ैसला करने वाला क़ाज़ी इन राय मश्वरे को क़बूल करने का पाबंद नहीं होता।

इसलिए कि हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने किसी भी मुआमले में एक से ज़्यादा क़ाज़ी नियुक्त नहीं फ़रमाए, बल्कि एक मुआमले के लिए एक ही क़ाज़ी मुक़र्रर फ़रमाया। मज़ीद ये कि क़ज़ा हक़ीक़त में हुक्मे शरई की ख़बर है जिसे मानना लाज़िम है, और एक मुस्लिम के लिए एक मुआमले में एक ही हुक्म शरई होता है। ये अल्लाह का हुक्म होता है और एक ही होता है, एक से ज़्यादा हरगिज़ नहीं। ये ठीक है कि इस के कई मफ़हूम हो सकते हैं लेकिन एक मुस्लिम के लिए, जहां तक इस हुक्म पर अमल का ताल्लुक़ है, एक ही हो सकता है इस से ज़्यादा बिल्कुल नहीं। किसी हुक्म का जो मफ़हूम एक मुस्लिम समझता है वही उसके हक़ में अल्लाह का हुक्म है, हालाँकि इस हुक्म के दूसरे मफ़ाहीम को भी वो शरई हुक्म ही मानता है। इस के बारे में जो भी मफ़हूम वो समझे और उस पर अमल करे, वही इस के हक़ में अल्लाह का हुक्म है, जबकि दूसरी कोई भी तक़लीद इसके लिए अल्लाह का हुक्म नहीं होती। लिहाज़ा क़ाज़ी जब किसी मुआमले में अल्लाह का हुक्म सुनाता है, जिसको तस्लीम करना उस शख़्स पर लाज़िम है, तो ये ज़रूरी हुआ कि ये एक ही हुक्म हो, क्योंकि अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ इस फ़ैसले (ख़बर) को मानना इस पर फ़र्ज़ है। इसके लिए इस हुक्म को मानना और  उस पर अमल करना अल्लाह के हुक्म पर अमल करना होता है और किसी भी मुआमले में अल्लाह का हुक्म एक ही है, अगरचे कि इस हुक्म के कई मफ़ाहीम ही हों। चुनांचे एक अदालत में फ़ैसला करने वाला एक ही क़ाज़ी हो सकता है क्योंकि ये नामुमकिन है कि अल्लाह का हुक्म एक से ज़्यादा हो। ये जायज़ है कि एक ही इलाक़े में तमाम मुक़द्दमात के लिए दो अलग अलग अदालतें हों, क्योंकि क़ज़ा दरहक़ीक़त ख़लीफ़ा की नियाबत है और नुमाइंदगी की तरह इस में भी एक से ज़्यादा की इजाज़त है। इसी तरह एक ही इलाक़े में एक से ज़्यादा क़ाज़ी भी हो सकते हैं और अगर दोनों पक्षों में इस बात पर ठन जाये कि किस अदालत में मुक़द्दमा जाये, तो मुद्दई (दावा करने) का हक़ होगा कि वो जिस अदालत में चाहे जाये क्योंकि वो हक़ का तालिब है और इस मुआमले में मुद्दई की पसंद मुद्दई अलैह (जिस पर दावा किया गया) की पसंद पर ग़ालिब होगी।

क़ाज़ी के लिए ये जायज़ नहीं कि वो अदालत के अलावा कहीं और फ़ैसला दे, इसी तरह हलफ़ उठाना और सबूत भी अदालत ही में पेश हो सकते हैं।

इसकी दलील हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم की ये हदीस है, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर رضي الله عنه से रिवायत है:

((قضی رسول اللّٰہا أن الخصمین یقعدان بین یدي الحاکم))
हुज़ूर का हुक्म है कि दोनों फ़रीक़ क़ाज़ी के सामने बैठें। (मुसनद अहमद और सुनन अबु दाऊद)
इस हदीस से अदालत की हैयत (form) का पता चलता है जो अदालतों के लिए बयान की गई हैं, यानी कि उन की एक ख़ास शक्ल होती है जिसमें फ़ैसले किए जाते हैं, जहां दोनों फ़रीक़ क़ाज़ी के सामने बैठते हैं। इस हैयत की ताईद एक और हदीस से होती है जिसमें हज़रत अली رضي الله عنه से नक़ल है कि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((إذا جلس إلیک الخصمان فلا تکلّم حتی تسمع من الآخر کما سمعت من الأول))
जब तुम्हारे सामने दो फ़रीक़ बैठें तो उस वक़्त तक ना बोलो जब तक दूसरे की बात इस तरह ना सुन लो जैसे पहले की सुनी थी।

इस हदीस में भी जहाँ ((إذا جلس إلیک خصمان)) कहा गया जिससे मालूम होता है कि फ़ैसले की सेहत और हलफ़ उठाने के लिए बाक़ायदा अदालत का होना शर्त है, क्योंकि हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((الیمیں علی المدعی علیہ))
बारे हलफ़ मुद्दई अलैह पर है।(रावी हज़रत इब्ने अबासस:बुख़ारी शरीफ़)

कोई शख़्स अदालत ही में मुद्दई अलैह हो सकता है। इसी तरह सबूत का पेश किया जाना भी अदालत ही में ज़रूरी है, क्योंकि हुज़ूरे अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((۔۔۔ولکن البینۃ علی المدعي،والیمین علی من أنکر))
.......लेकिन, सबूत पेश करने की ज़िम्मेदारी मुद्दई पर है और बारे हलफ़ उस पर जो (इस सबूत से) इंकार करे। (बैहक़ी)

और कोई शख़्स अदालत ही में मुद्दई हो सकता है या सबूत की सेहत से इंकार कर सकता है।
ये जायज़ है कि अदालतों के विभिन्न दरजात हों जहां विभिन्न क़िस्म के मुक़द्दमे पेश हों। ये भी जायज़ है कि कुछ क़ाज़ी किसी ख़ास नौईयत के और किसी ख़ास हद तक के मुक़द्दमात के लिए ख़ास किए जाएं और दूसरे मुक़द्दमात दूसरी अदालतों को ट्रांसफर कर दिए जाएं।

उसकी दलील ये है कि क़ज़ा ऐन नुमाइंदगी ही की तरह ख़लीफ़ा की नियाबत का मुआमला है जहां दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है। नुमाइंदगी (प्रतिनिधित्व) आम भी हो सकती है और ख़ास भी। लिहाज़ा क़ाज़ी का नियुक्ति किसी ख़ास मुआमले तक भी हो सकती है, इस तरह कि उसे दूसरी क़िस्म के मुक़द्दमात से रोक दिया जाये, और उन दूसरी क़िस्म के मुक़द्दमात के लिए दूसरे क़ाज़ी मुक़र्रर किए जाएं, जबकि ये तमाम एक ही इलाक़े में हो सकते हैं । इससे अदालतों के विभिन्न दरजात होना साबित होता है और ऐसा माज़ी (इतिहास) में होता भी रहा है। अल्लामा अलमावरदी رحمت اللہ علیہ
अपनी किताब अल अहकाम अलसुल्तानिया में लिखते हैं: अबु अब्दुल्लाह अलज़बीरी ने कहा कि बसरा में उमरा (Amirs) जामि मस्जिद में क़ाज़ी मुक़र्रर किया करते थे जो क़ाज़ई मस्जिद ( judge of the mosque) कहलाते थे, ये क़ाज़ी दो सौ दिरहम और बीस दीनार तक के मुआमलात और नफ़क़ात के मुआमलात में फ़ैसले किया करते थे। ये क़ाज़ी अपनी मुक़र्ररा हदों से आगे नहीं बढते थे और इसी दायरे में अपनी ज़िम्मेदारीयां निबाहते थे।

फिर ये कि हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने सिर्फ़ एक ख़ास मुआमला के लिए क़ाज़ी की नियुक्ति फ़रमाई, जैसा कि हज़रत अमरो इब्ने अल आस की तक़र्रुरी में हुआ और आप  صلى الله عليه وسلم ने तमाम तरह की क़ज़ा के लिए एक पूरी विलायत पर क़ाज़ी मुक़र्रर फ़रमाया, जैसा कि हज़रत अली इब्ने अबी तालिब رضي الله عنه की यमन के क़ाज़ी के तौर पर नियुक्ति में हुआ, जो दलील हुई कि क़ाज़ी की आम और ख़ास दोनों तरह नियुक्ति की जा सकती है।

रियासते ख़िलाफत में अपील अदालतें (Appeals & Cassation Courts) नहीं होतीं, लिहाज़ा किसी भी मुआमले को निमटाने के लिए क़ज़ा की एक ही अदालत होती है और जब क़ाज़ी अपना हुक्म जारी कर दे तो इसका लागू करना लाज़िमी हो जाता है जिसे किसी भी दूसरे क़ाज़ी का हुक्म रद्द नहीं कर सकता। जिस तरह कि शरई ज़ाब्ता है कि: (الإجتھاد لا ینقضہ بمثلہ) यानी एक इज्तिहाद ऐसे ही दूसरे इज्तिहाद को बातिल नहीं कर देता; इसी तरह एक मुज्तहिद दूसरे मुज्तहिद के लिए हुज्जत नहीं होता। लिहाज़ा ऐसी अदालतों का होना सही नहीं जो दूसरे अदालतों के जारी किये अहकाम को निरस्त करें।

अलबत्ता अगर कोई क़ाज़ी शरई अहकाम के मुताबिक़ हुक्म जारी करने को तर्क करके अहकामे कुफ्र से हुक्म जारी करे, या कोई ऐसा फ़ैसला जारी करे जो क़ुरआन और सुन्नत की क़तई नस, या इज्माऐ  सहाबा के विपरीत हो, या फिर ऐसा हुक्म जारी करे जो वास्तविकता के ख़िलाफ़ हो, जैसेकि किसी शख़्स को जानबूझ कर क़त्ल करने के जुर्म में क़िसास का हुक्म जारी कर दे और फिर इसके बाद असल क़ातिल मौजूद हो, या इन जैसे दूसरे हालात तो फिर ऐसी सूरत में इस क़ाज़ी का हुक्म निरस्त किया जाता है, क्योंकि बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत आईशा (سبحانه وتعال) से रिवायत है कि हुज़ूर अक़्दस  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:
((من احدث في أمرنا ھذا ما لیس منہ فھو ردّ))
जो हमारे मुआमले (देन) में कोई नई बात ईजाद करे जो इस में ना हो, तो वो काबिले रद्द 
है।
और इसी तरह हज़रत जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह رضي الله عنه से रिवायत है:

((أن رجلاً زنی بامرأۃ فأمر بہ النبيا فجُلِد۔ ثم أخبر أنہ محصن،فأمر بہ فَرُجم))
एक शख़्स ने एक औरत से ज़िना किया तो हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने उसे कोड़े लगाने का हुक्म दिया, फिर आप  صلى الله عليه وسلم को बताया गया कि वो शादीशुदा है, तो आप ने उसे संगसार करने का हुक्म दिया।

हज़रत मालिक इब्ने अनस رضي الله عنه से रिवायत है:
(بلغني أن عثمانص أُتي بامرأۃ ولدت من ستۃ أشھر فأمر برجمھا۔ فقال لہ علی ص:ما علیھا رجم،لأن اللّٰہ تعالیٰ یقول:)

मुझे पता चला कि एक (ज़ानिया) औरत को ज़िना के कारण छः माह पहले बच्चा हुआ था, हज़रत उस्मान के पास लाई गई, उन्होंने उसे संगसार करने की सज़ा सुनाई। हज़रत अली رضي الله عنه ने उनसे कहा कि उसे संगसारी की सज़ा नहीं है, क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) का क़ौल है:

وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَـٰنَ بِوَٲلِدَيۡهِ إِحۡسَـٰنًاۖ حَمَلَتۡهُ أُمُّهُ ۥ كُرۡهً۬ا وَوَضَعَتۡهُ كُرۡهً۬اۖ وَحَمۡلُهُ ۥ وَفِصَـٰلُهُ ۥ ثَلَـٰثُونَ شَہۡرًاۚ
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ أَشُدَّهُ
और उसके हमल की हालत में रहने और दूध छुड़ाने की मुद्दत तीस माह है,
(तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अल अहकाफ-15)
और फ़रमाया:

وَٱلۡوَٲلِدَٲتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَـٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ وَعَلَى ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُ ۥ رِزۡقُهُنَّ وَكِسۡوَتُہُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِ
और जो कोई पूरी मुद्दत तक दूध पिलवाना चाहे तो माएं अपने बच्चों को पूरे दो साल तक दूध पिलाऐं। ( तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अल बक़रह-233)

हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

(فالحمل یکون ستۃ أشھر،فلا رجم علیھا فأمر عثمان برددھا)
लिहाज़ा उसे संगसार नहीं किया जाएगा, हज़रत उस्मान ने हुक्म दिया कि औरत को वापिस बुलाया जाये ।

अब्दुर्रज़्ज़ाक़ इमाम अलसोरी के बारे में बताते हैं कि उन्होंने फ़रमाया:

अगर क़ाज़ी किताबुल्लाह, सुन्नते रसूल या किसी ऐसी चीज़ के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे जिस पर (सहाबा का) इजमा है, तो दूसरा क़ाज़ी उसे तब्दील कर दे।

वो क़ाज़ी जिसे किसी क़ाज़ी के फ़ैसले तब्दील करने का (उपरोक्त हालात में) अधिकार है, वो क़ाज़ी मज़ालिम है।

मुहतसिब या क़ाज़िये हिस्बा:

मुहतसिब वो क़ाज़ी होता है जिसे तमाम उन मुआमलात में फ़ैसले करने का अधिकार हो जो आम अधिकार से सम्बन्धित हों, इस में कोई मुद्दई (दावा करने वाला) नहीं होता, और ये मुआमलात हुदूद और ताज़ीरात (Penal Offences) के दायरा से बाहर के होते हैं।

ये मुहतसिब या क़ाज़ी हिस्बा की तारीफ़ है जो भीगे हुए अनाज वाली हदीस से माख़ूज़ है, जिसमें हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने भीगे हुए अनाज को ऊपर रखने का हुक्म दिया ताकि लोग उसे देख सकें। ये आम अधिकार का मुआमला था जिसमें हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने हुक्म दिया कि नम या भीगे हुए हिस्से को ऊपर रखा जाये जिससे लोगों को धोका ना हो। इस में वो तमाम अधिकार शामिल हैं जो इस श्रेणी के हैं, अलबत्ता इस में हदूद और ताज़ीरात के मुआमलात शामिल नहीं होते, क्योंकि वो उस श्रेणी के नहीं होते और वो दरहक़ीक़त लोगों के आपसी झगडों के मुआमलात होते हैं।

क़ाज़िये हिस्बा के अधिकार:

क़ाज़ी हिस्बा किसी भी मुआमले में, जो उसके अधिकार क्षेत्र में आता हो, हुक्म जारी करता है, इसके लिए किसी बाक़ायदा अदालत ही में हुक्म जारी करना ज़रूरी नहीं। क़ाज़ी हिस्बा के तसर्रुफ़ में पुलिस का अमला होता है जो इसके अहकामात को फ़ौरन लागू करता है।

किसी मुआमले में सुनवाई करने के लिए मुहतसिब को अदालती मजलिस की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि घटना की ख़बर मिलते ही वो हुक्म जारी कर सकता है, चाहे कोई जगह हो या कोई भी वक़्त हो; बाज़ार हो घर हो, घोड़े पर सवार हो या मोटरकार में हो, रात हो या दिन हो। दूसरे क़ाज़ीयों के लिए जिस तरह अदालत ही में कार्यवाही होने की शर्त है वो क़ाज़िये हिस्बा पर लागू नहीं होती, क्योंकि जिस हदीस में अदालत और फ़रीक़ैन (दोनों पक्षों) की मौजूदगी ज़रूरी क़रार दी गई है, इसके बाक़ौल:

((إن الخصمین یقعدان بین یدي الحاکم))
दोनों फ़रीक़ क़ाज़ी के सांय बैठें। (मुसनद अहमद और सुनन अबु दाऊद)

((إذا جلس إلیک الخصمان ۔۔۔))

जब तुम्हारे सामने दो फ़रीक़ बैठें..........

ये शराइत मुहतसिब या क़ाज़िये हिस्बा पर लागू नहीं होतीं, क्योंकि हिस्बा में मुद्दई और मुद्दई अलैह नहीं होता, सिर्फ़ एक हक़े आम (public right) होता है जिसे नुक़्सान पहुंचा हो, या कोई शरई ख़िलाफ़वर्ज़ी सरज़द होती है। मज़ीद ये कि जिस वक़्त हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने भीगे हुए अनाज वाले मुआमले में हुक्म जारी किया तो आप  صلى الله عليه وسلم बाज़ार में गशत पर थे और सामान नज़र के सामने था। आप  صلى الله عليه وسلم ने उस दूकानदार को तलब नहीं फ़रमाया, बल्कि वहीं मौक़ाऐ वारदात पर ही हुक्म जारी फ़रमाया जो इस बात की दलील है कि मुहतसिब को ख़ुद किसी मुआमले की सुनवाई के लिए ख़ास अदालती मजलिस का होना ज़रूरी नहीं।

मुहतसिब को ये अधिकार होता है कि वो अपने नायब (deputies) चयनित करे जिनमें वो शराइत मौजूद हों जो एक मुहतसिब के लिए हैं। मुहतसिब उन्हें विभिन्न इलाक़ों के लिए मुक़र्रर कर सकता है। ये काज़ी अपने लिए तय इलाक़ों में और उन निश्चित मुआमलात में हिस्बा की ज़िम्मेदारीयां अदा कर सकते हैं।

अलबत्ता मुहतसिब का ये अधिकार कि वो और मुहतसिब मुक़र्रर कर सकता है, इस बात पर शर्त पर होगा कि ख़ुद उसकी नियुक्ति के वक़्त उसे अपने नुमाइंदे मुहतसिब मुक़र्रर करने का अधिकार दिया गया था या नहीं, अगर उसे ये हक़ नहीं दिया गया हो तो फिर मुहतसिब को दूसरे मुहतसिब मुक़र्रर करने का हक़ नहीं होता।

क़ाज़ीये मज़ालिम:

क़ाज़ीऐ मज़ालिम वो क़ाज़ी होता है जिसको रियासत में होने वाले हर मुज़लिमा (अन्याय) या रियासत की तरफ़ से रियासत में रहने वाले हर शख़्स पर होने वाले मुज़लिमा को दूर करने के लिए नियुक्त किया जाये, चाहे वो इस रियासत का शहरी हो या ना हो, चाहे मुज़लिमा का ज़िम्मेदार ख़लीफ़ा हो या रियासत का कोई और हाकिम या मुलाज़िम।

क़ाज़ीऐ मज़ालिम की ये तारीफ़ ठहरी, क़ज़ाऐ मज़ालिम की हक़ीक़त हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم से रिवायत नुक़्सान पहुंचने का नाम मुज़लिमा है हज़रत अनस رضي الله عنه ने फ़रमाया:
 हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم के अहदे मुबारक में एक बार वस्तुओं की क़ीमतों में बढोतरी आ गई तो लोगों ने आप  صلى الله عليه وسلم से कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल  صلى الله عليه وسلم आप क़ीमतें मुक़र्रर फ़रमा दीजिए। इस पर आँहज़रत  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((إن اللہ ھو الخالق القابض الباسط الرازق المسعر،و إني لأرجو أن ألقی اللہ ولا یطلبي أحد بمظلمۃ ظلمتھا إیاہ في دمٍ ولا مال))

बेशक अल्लाह ही ख़ालिक़, क़ाबिज़, बासित, राज़िक और मेअसर (क़ीमतें तय करने वाला) है, मैं ये उम्मीद करता हूँ कि अल्लाह (سبحانه وتعال) से इस हाल में मिलूं कि मुझ से कोई किसी मुज़लिमा का मुतालिबा ना करे, चाहे जान का या माल का।(मुसनद अहमद)
लिहाज़ा आप  صلى الله عليه وسلم ने क़ीमतों के (साहिबे माल के बजाय किसी और की तरफ से) तय करने को मुज़लिमा करने को क़रार दिया, यानी अगर आप  صلى الله عليه وسلم क़ीमतों को मुक़र्रर कर देते तो ये ऐसा फे़अल होता जिसका आप  صلى الله عليه وسلم को हक़ ना था। इसी तरह आप ने वो हुक़ूक़े आम (common rights) जिन्हें रियासत व्यवस्थित करती है, इन झगडों को मुज़लिमा क़रार दिया। लिहाज़ा अवामी मुआमलात की निगरानी के लिए जो विभाग क़ायम हों और जनता में किसी को ये लगे कि विभाग इसके हक़ में ज़ुल्म कर रहा है, तो ये मुआमला मज़ालिम के अंतर्गत आ जाता है, जैसेकि कृषि भूमि को मुशतर्का (public property/मिल्कियते आम के) पानी से बारी बारी सिंचित करना, जो कि रियासत ने तय कर दिया हो।

इसकी दलील वो मुआमला है जिसमें एक अंसारी सहाबी के मुज़लिमा मज़कूर है क्योंकि रियासत ने पानी से ज़मीन की आबपाशी (सिंचाई) को बारी बारी करने का निज़ाम मुक़र्रर किया था यानी जिस शख़्स की ज़मीन से पानी की धार पहले गुज़र रही हो, पहले उसकी ज़मीन की आबपाशी का हक़ है। अंसारी सहाबी ये चाहते थे कि हज़रत ज़ुबैर رضي الله عنه जिन की ज़मीन से पानी की धार पहले गुज़र रही थी, वो पहले पानी को इन अंसारी की ज़मीन की तरफ़ फेर दें और फिर अपनी ज़मीन की आबपाशी करें। हज़रत ज़ुबैर رضي الله عنه ने इस बात से इंकार कर दिया और ये मुआमले हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم के पास फ़ैसले के लिए पेश हुआ। हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم ने फ़ैसला फ़रमाया कि पहले हज़रत ज़ुबैर رضي الله عنه अपनी ज़मीन पर हल्की सी आबपाशी कर लें और फिर पानी के बहाओ को उन पड़ोसी अंसारी सहाबी की ज़मीन की तरफ कर दें। यानी वो अंसारी सहाबी की मदद की ख़ातिर अपनी बारी का पूरा इस्तिमाल ना करें। अंसारी को ये फ़ैसला मंज़ूर ना था, वो चाहते थे कि हज़रत ज़ुबैर رضي الله عنه अपनी ज़मीन की आबपाशी से पहले ही पानी को उनकी ज़मीन की तरफ फेर दें। इस पर इन अंसारी सहाबी ने कहा कि आप ने ऐसा फ़ैसला इसलिए दिया कि हज़रत ज़ुबैर رضي الله عنه आपके चचाज़ाद भाई हैं ये बात फ़िलहक़ीक़त हुज़ूर की शान में गुस्ताख़ी थी लेकिन जैसा कि बुख़ारी शरीफ़ की रिवायत में आता है कि आप  صلى الله عليه وسلم ने शायद अंसारी सहाबी को जंगे बदर में शरीक होने के कारण माफी का मुआमला फ़रमाया। फिर आपने हुक्म दिया कि पहले हज़रत ज़ुबैर अपने हक़ का पूरा इस्तिमाल करें और अपी ज़मीन को पानी दें, यहां तक कि पानी दीवार तक या दरख़्तों के तने तक आ जाए।

((اسقِ یا زبیر ثم ارسل الماء إلی جارک))
ऐ ज़ुबैर पहले अपनी ज़मीन को पानी दो फिर अपने पड़ोसी की तरफ़ बहाव कर दो।

ये हदीस बुख़ारी और मुस्लिम दोनों में नक़ल है, और यहां अल्फाज़ मुस्लिम शरीफ़ के हैं।
इसकी तफ्सीर में औलमा ने लिखा कि इस का मतलब ये हुआ कि पानी इंसान के पैरों को ढांक ले। मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत उर्वा इब्ने ज़ुबैर رضي الله عنه से इस पूरी हदीस को नक़ल किया है कि हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर सुने उन्हें बताया:

(أنَّ رجلاً من الانصار خاصم الزبیر عند رسول اللّٰہ ا فی شراج الحرّۃِ التي یسقون بھا النخل فقال الأنصاریسَرِّح الماءَ یمرُّ،فَاَبی علیھم،فاختصموا عند رسول اللّٰہا فقال رسول اللّٰہ ا للزبیر:’’اسق یا زبیر ثم ارسل الماءَ اِلی جارِکَ‘‘،فغضب الأنصاریُّ فقال أن کان ابن عمتک فتلوَّ وجہ بی اللّٰہ ثم قال:’’یا زبیر اسق ثم احبس الماءَ حتی یرجع اِلی الجَدْرِ‘‘)

अंसारियों में से एक शख़्स ने हुज़ूर अक़्दस  صلى الله عليه وسلم के सामने हज़रत ज़ुबैर से अपनी मुख़ासमत का मुआमला पेश किया जो पानी के बहाव या धार से सम्बन्धित था जिससे वो दोनों अपनी अपनी ज़मीन सेराब करते थे और अंसारी ने हज़रत ज़ुबैर से कहा था कि वो पानी को उसकी ज़मीन की तरफ पहले बहने दें जिस पर हज़रत ज़ुबैर ने इंकार कर दिया था और यूं ये मुआमला हुज़ूर अक़्दस  صلى الله عليه وسلم के सामने पेश हुआ। हुज़ूर अक़्दस  صلى الله عليه وسلم ने हज़रत ज़ुबैर से फ़रमाया कि पहले तुम अपनी ज़मीन को सेराब कर लो फिर पड़ोसी की ज़मीन की तरफ बहाव मोड़ दो। इस पर अंसारी सहाबी ग़ज़बनाक हो गए और कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल, ये इसलिए कि वो आप के फूफीज़ाद भाई हैं। हुज़ूर अक़्दस  صلى الله عليه وسلم के चेहराऐ मुबारक का रंग बदल गया और फिर आप  صلى الله عليه وسلم ने हज़रत ज़ुबैर से फ़रमाया किए ज़ुबैर पहले तुम अपनी ज़मीन को सेराब करो और पानी को रोक लो यहां तक कि तनों तक पानी आ जाए।  हज़रत ज़ुबैर फरमाते हैं कि मेरा गुमान है कि ये आयत इसी शान में नाज़िल हुई है:

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِىٓ أَنفُسِہِمۡ حَرَجً۬ا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمً۬ا

पस तुम्हें तुम्हारे रब की क़सम! ये मोमिन नहीं हो सकते, जब तक कि उनके बीच जो झगडा हो, इस में ये तुम से फ़ैसला ना करायें, फिर तुम जो फ़ैसला कर दो उस पर ये अपने दिल में कोई तंगी भी ना पाऐं (तर्जुमा माअनीये क़ुरआन: अन्निसा-65)

हदीस में शिराज अल हर्रा (شراج الحرّۃِ) के माने पानी के बहाव से हैं और अल हर्रामदीना का एक प्रसिद्द मुक़ाम है, जहां का ये वाक़िया है, अल्लामा अबु अबीद رحمت اللہ علیہ  कहते हैं कि मदीना में दो वादीयां हुआ करती थीं जिनमें बारिश का पानी भरा रहता था और लोग इस पानी के इस्तिमाल के लिए एक दूसरे से मुक़ाबला किया करते थे, हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने हुक्म दिया कि वादीयों के बालाई हिस्सों में रहने वाले पहले इस्तिमाल करें फिर उनके नीचे आबाद लोग इस्तिमाल करें।

लिहाज़ा हर वो शख़्स जो किसी मुज़लिमा का शिकार हुआ हो, चाहे हाकिम की तरफ से, रियासत के विभिन्न विभाग या क़वानीन से, वो मुज़लिमा ही तसव्वुर किया जाता है जैसा कि पिछले दोनों अहादीस से ज़ाहिर होता है। ये मुज़लिमा ख़लीफ़ा या इसके ज़रीये नामज़द किए हुए ख़ास विभाग यानी महकमाऐ मज़ालिम के सामने फ़ैसले के लिए पेश होता है।

क़ाज़ीऐ मज़ालिम की तक़र्रुरी और उनकी बर्ख़ास्तगी:

क्योंकि मज़ालिम क़ज़ा ही के अंतर्गत आते हैं और ये उस हुक्मे शरई की ख़बर है जिसका निफाज़ लाज़िमी होता है लिहाज़ा क़ाज़ीऐ मज़ालिम की नियुक्ति ख़लीफ़ा या क़ाज़ी अल क़ज़ा ही कर सकते हैं। तमाम क़िस्म के क़ाज़ीयों की नियुक्ति ख़लीफ़ा ही की तरफ से होती है क्योंकि हुज़ूर अक़्दस

 صلى الله عليه وسلم से ऐसा ही साबित है, जैसा कि पिछले पृष्टों पर हम देख चुके हैं आप  صلى الله عليه وسلم ही क़ाज़ीयों को नियुक्त फ़रमाते थे। चुनांचे क़ाज़ीऐ मज़ालिम की नियुक्ति ख़लीफ़ा ही की तरफ से होती है गो कि अगर क़ाज़ी अलक़ज़ाको ऐसा हक़ उसकी नियुक्ति के वक़्त दिया गया हो तो उनके ज़रीये भी क़ाज़ीऐ मज़ालिम की नियुक्ति किया जाना जायज़ है। ये मुम्किन है कि रियासत के केन्द्र में महकमाऐ मज़ालिम को वो अधिकार हों कि विभाग ख़लीफ़ा, ख़लीफ़ा के मंत्रीयों और मुआविनीन और क़ाज़ी अलक़ज़ाके ख़िलाफ़ मज़ालिम के मुआमलों की सुनवाई करे जबकि उसकी तमाम विलायात में फैली हुई शाख़ें वाली, आमिल और रियासत के दूसरे कर्मचारियों के ख़िलाफ़ उठाए गए मुज़लिमों के मुआमलात की सुनवाई करें, और ख़लीफ़ा को अधिकार है कि वो केन्द्रीय महकमाऐ मज़ालिम को अपने अंतर्गत आने वाली शाख़ाओं में क़ाज़ीऐ मज़ालिम की नियुक्ति और बर्ख़ास्तगी का हक़ सौंपे।

रियासत के केन्द्रीय महकमाऐ मज़ालिम के सदस्यों की नियुक्ति और बर्ख़ास्तगी का अधिकार सिर्फ़ ख़लीफ़ा ही को होता है अलबत्ता केन्द्रीय महकमाऐ मज़ालिम के अमीर, यानी वो क़ाज़ी मज़ालिम जो ख़लीफ़ा ही के ख़िलाफ़ मुज़लिमा की सुनवाई कर रहा हो, गो कि तमाम क़ाज़ीयों की तरह उसकी नियुक्ति और बर्ख़ास्तगी भी फ़िलहक़ीक़त ख़लीफ़ा ही का अधिकार होता है, जबकि ये एक ऐसी हालत होती है जिसके बारे में ये गुमान ग़ालिब होता है कि अगर उस ख़ास सूरते हाल में भी इस क़ाज़ीऐ मज़ालिम की बर्ख़ास्तगी का अधिकार ख़लीफ़ा ही पर छोड़ दिया जाये तो इस अधिकार के ज़रीये हराम का अंदेशा होगा, लिहाज़ा इस शरई क़ायदा का इंतिबाक़ (aaply) होगा जिस की रो से (الوسیلۃ الی الحرام حرام) यानी वो वसीला जो हराम की तरफ़ ले जाये, खु़द भी हराम हो जाता है। इस क़ाअदे के इंतिबाक़ के लिए सिर्फ सन्देह का होना ही काफ़ी होता है।

ऐसी सूरते हाल उस वक़्त होती है जब ख़लीफ़ा, उसके मुआविनीन या क़ाज़ी अलक़ज़ाके ख़िलाफ़ मुज़लिमा उठाया गया हो; इस में क़ाज़ी अलक़ज़ासिर्फ़ ऐसी हालत में शामिल होगा जब ख़लीफ़ा ने उसे क़ाज़ीऐ मज़ालिम की नियुक्ति और बर्ख़ास्तगी का अधिकार सौंप रखा हो। ऐसी सूरते हाल में क़ाज़ीऐ मज़ालिम की बर्ख़ास्तगी के अधिकार का ख़लीफ़ा के हाथ में होना हुक्म शरई पर असरअंदाज़ होता है और क़ाज़ीऐ मज़ालिम के लिए ख़लीफ़ा या इसके मुआविनीन को बर्ख़ास्त कर देने की राह में रुकावट बन सकता है जो कि हराम के लिए वसीला हुआ, यानी ऐसी हालत में क़ाज़ीऐ मज़ालिम की बर्ख़ास्तगी का अधिकार ख़लीफ़ा के हाथ में बाक़ी होना हराम हुआ।

इस ख़ास सूरते हाल के अलावा ये अधिकार अपनी असल जगह ही रहेगा, यानी क़ाज़ीऐ मज़ालिम की बर्ख़ास्तगी का अधिकार ख़लीफ़ा ही के पास होगा जैसे उसे नियुक्ति का हक़ होता है।
महकमाऐ मज़ालिम के अधिकार:

महकमाऐ मज़ालिम के अधिकार में तमाम क़िस्म के मज़ालिम की सुनवाई होती है चाहे वो रियासत के किसी भी इदारे के ख़ास व्यक्तियों से सम्बन्धित हों, ख़लीफ़ा की तरफ से किसी शरई हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी के हों, रियासत के दस्तूर और क़वानीन की किसी नस से ताल्लुक़ रखते हों या ख़लीफ़ा के ज़रीये तबन्नी शूदा (adopted) किसी शरई हुक्म के लिये हों, अवाम के मुआमलात के लिए रियासत के किसी तंज़ीमी इदारे के क़वानीन के मज़ालिम हों या टैक्स आइद किए जाने से ताल्लुक़ रखते हों वग़ैरा।

उपरोक्त तमाम अस्नाफ़ में से, यानी मुज़लिमा चाहे वो रियासत के किसी भी इदारे के व्यक्तियों से सम्बन्धित हूँ, ख़लीफ़ा की तरफ से किसी शरई हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी के हों, रियासत के दस्तूर और क़वानीन की किसी नस से ताल्लुक़ रखते हों या ख़लीफ़ा के ज़रीये तबन्नी शूदा (adopted) किसी शरई हुक्म के लिये हों, अवाम के मुआमलात के लिए रियासत के किसी तंज़ीमी इदारे के क़वानीन के मज़ालिम हों या टैक्स आइद किए जाने से ताल्लुक़ रखते हों वग़ैरा; रियासत की तरफ से अवाम के अधिकारों का हनन और उनसे ज़ुल्म और ज़बरदस्ती करके महसूलात (texes) वसूल करना, रियासत की तरफ से कर्मचारीयों और सिपाहीयों की तनख़्वाहों में नुक़्स करना या तनख़्वाहों में देरी करना; इन तमाम मुक़द्दमात में बाक़ायदा अदालती मजलिस का होना, मुद्दई अलैहि (Respondent) को तलब किया जाना (Summon) या ख़ुद मुद्दई (Plaintiff) का मौजूद होना शर्त नहीं होता बल्कि महकमाऐ मज़ालिम का ये अधिकार होता है कि वो किसी भी मुज़लिमा का निवारण करे चाहे किसी ने वो मुआमला पेश ना किया हो, यानी (Suomoto) कार्यवाही की जाये।

इस का कारण ये है कि मुक़द्दमात के लिए अदालती मजलिस होने की जो शर्त है वो मज़ालिम की अदालत पर लागू नहीं होती क्योंकि यहां किसी मुद्दई की मौजूदगी ज़रूरी नहीं होती, अदालते मज़ालिम बगै़र किसी मुद्दई के किसी भी मुज़लिमा पर ग़ौर कर सकती है और ना ही यहां मुद्दई अलैह को पेश होना ज़रूरी है जब कि अदालत मुज़लिमा की तफ्तीश कर रही हो, चुनांचे बाक़ायदा मजलिस आयोजित करने की ज़रूरत की दलील मज़ालिम की अदालत पर लागू नहीं होती, जिसके मुताल्लिक़ हुज़ूर  صلى الله عليه وسلم से मर्वी अहादीस ((قضی رسول اللہؐ أن الخصمین یقعدان بین یدي الحاکم)) और ((إذا جلس إلیک الخصمان)) ऊपर गुज़रीं। लिहाज़ा महकमाऐ मज़ालिम को ये अधिकार होता है कि जैसे ही कोई मुज़लिमा घटित हो, वो वक़्त, जगह और बाक़ायदा मजलिस होने की शर्त के बगै़र इस पर ग़ौर करे। महकमाऐ मज़ालिम के अधिकार उसे अज़मत और हैबत के लिहाज़ से एक ख़ास मुक़ाम पर खड़ा कर देते हैं। मिस्र और शाम में सुल्तानों के दौर में जब सुल्तानों के दरबार में मज़ालिम के मुआमलात सुने जाते थे, तो इस का नाम दारुल अदल (House of Justice) था जहां सुल्तान के नुमाइंदे उनकी नुमाइंदगी करते थे, और फुक़्हा और क़ाज़ी मौजूद रहा करते थे। अलमक़रीज़ी अपनी किताब “अलसुलूक अला मारिफत दौलल मुलूक” में लिखते हैं कि सुल्तान अल मलिक अल सालेह अय्यूब ने दारुल अदल में मज़ालिम के निवारण के लिए अपना नुमाइंदा नियुक्त कर रखा था, जहां क़ाज़ी, फुक़्हा और गवाह मौजूद होते थे। महकमाऐ मज़ालिम के लिए ऐसी आलीशान इमारत की तामीर कराने में जिससे इस विभाग की अज़मत ज़ाहिर हो कोई बुराई नहीं क्योंकि ये मुआमलाते मुबाह से सम्बन्धित है।

क़यामे ख़िलाफ़त से पहले के मुआमलात, मुक़द्दमात और सौदे:

ऐसे मुआमलात (Transactions), मुक़द्दमात (Disputes) और सौदे(Contracts), जो निज़ामे ख़िलाफत क़ायम होने से पहले तय हुए हों और उनका निफाज़ भी हो चुका हो, उन्हें दोनों पक्षों के बीच सही तसव्वुर किया जाएगा; रियासत ऐसे मुआमलात पर ना तो रोक लगाएगी और ना उन्हें दुबारा उठाया जाएगा, और ख़िलाफ़त के क़ायम हो जाने के बाद ऐसे मुआमलात के ख़िलाफ़ कोई दावे भी क़बूल नहीं किए जाऐंगे। अलबत्ता दो क़िस्म की सूरते हाल इससे बरी होंगी:

1. अगर ऐसा कोई मुआमला जो क़यामे ख़िलाफ़त से पहले तय और लागू हो चुका हो लेकिन इसके असरात बाक़ी रहें और वो इस्लाम के ख़िलाफ़ हो।

2. ये मुआमला उसके ख़िलाफ़ हो जिस ने इस्लाम या मुसलमानों को नुक़्सान पहुंचाया या तकलीफ दी हो।

इन दोनों सूरतों के अलावा ऐसे मुआमलात का ना उठाए जाने का कारण हुज़ूर नबी अकरम से साबित है क्योंकि हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم ने दारुल इस्लाम के क़ायम हो जाने के बाद दौरे जाहिलियत के किसी भी मुआमले या क़ज़ीया पर रोक नहीं लगाई। चुनांचे हुज़ूर नबी अकरम फतह मक्का के बाद उस घर पर नहीं गए जहां से हिजरत की थी और क़ुरैश के क़ानून के मुताबिक़ हज़रत अक़ील इब्ने अबी तालिब رضي الله عنه अपने उन रिश्तेदारों के घरों के वारिस थे जो मक्का से हिजरत करके मदीना चले गये थे। हज़रत अक़ील इब्ने अबी तालिब رضي الله عنه का ही उनके घरों पर अधिकार रहा और उन्होंने ही उसे बेचा, इन्हीं में हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم का घर भी शामिल था। जब हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم से पूछा गया कि आप किस घर पर क़याम फ़रमाएंगे? तो आप ने जवाब दिया:
((وَ ھَل تَرَکَ لَنَا عقیل من رباع))
या एक दूसरी रिवायत में:
((وَ ھَل تَرکَ لَنَا عقیل من منزِلٍ))
क्या अक़ील ने हमारे लिए कोई हिस्सा छोड़ा है ।
या
क्या अक़ील ने हमारे लिए कोई घर छोड़ा है ।

हज़रत अक़ील हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم का घर बेच चुके थे और आप ने अब फ़तह मक्का के बाद इस फ़रोख़्त (बेचान) को रद्द नहीं किया। इस सम्बन्ध में इमाम बुख़ारी ने हज़रत उसामा इब्ने जै़द رضي الله عنه से हदीस नक़ल की है:

((أنَّہُ قال زَمَن الفتح یا رسول اللّٰہ أین تنزل غداًقال النبیا وَ ھَل تَرکَ لَنَا عقیل من منزِلٍ ))
फ़तह मक्का के वक़्त आप से पूछा गया कि ए अल्लाह के रसूल कल आप कहां क़याम फ़रमाएंगे? नबी अकरम ने जवाब दिया: क्या अक़ील ने हमारे लिए कोई घर छोड़ा है?
इसी तरह ये भी रिवायत नक़ल है कि जब अबुल आस इब्ने रबीया ने इस्लाम क़बूल किया और हिजरत करके मदीना पहुंचे, तो हज़रत ज़ैनब رضي الله عنها जंग बदर के बाद हिज्रत कर चुकी थीं और ख़ुद अबुल आस अपने शिर्क के साथ मक्का ही में रह गए थे। जब दो साल के बाद अबुल आस इस्लाम क़बूल करके मदीना आए तो आप  صلى الله عليه وسلم ने उनकी बीवी उन्हें पिछले निकाह की तजदीद (renewing) के बगै़र वापिस कर दी। ये उस अक़्द (contract) का इक़रार था जो मक्का में दौरे जाहलीयत में हो चुका था। सुनन इब्ने माजा में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास رضي الله عنه से रिवायत नक़ल है कि:

((أن رسول اللّٰہا ردّ ابنتہ،ای زینب علی ابی العاص ابن ربیع بعد سنتین من نکاحھا الأول))
हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم ने अपनी बेटी यानी हज़रत ज़ैनब رضي الله عنها को उनके पहले निकाह के दो साल बाद अबुल आस इब्ने रबीया को वापिस कर दिया।

जहां तक उन मुआमलात का ताल्लुक़ है जिनका असर बाक़ी हो और जो इस्लाम के ख़िलाफ़ हों, तो हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم ने इस्लामी रियासत के क़ायम हो जाने के बाद जिन लोगों पर किसी का सूद बाक़ी था, उसे ख़त्म किया और क़र्ज़ की असल रक़म को बाक़ी रखा। यानी दारुल इस्लाम बन जाने के बाद पिछले सूद को ख़त्म कर दिया। सुनन अबु दाऊद में सुलेमान इब्ने अमरो की अपने वालिद से रिवायत नक़ल की है, कहते हैं कि मैंने हज्जतुल विदा के मौक़े पर हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم से सुना:

((ألا إن کل ربا من الجاھلیۃ موضوع لکم رؤوس اموالکم،لا تَظْلِمون ولا تُظْلَمون))
ख़बरदार दौरे जाहिलियत के तमाम सूद बातिल हुए, तुम्हारे लिए हक़ सिर्फ़ तुम्हारी असल रक़म है, ना तुम ज़ुल्म करो और ना तुम पर ज़ुल्म हो।
इसी तरह वो लोग जिनकी दौरे जाहिलियत के क़ानून के मुताबिक़ चार से ज़्यादा शादियां चली आ रही थीं, अब दारुल इस्लाम क़ायम हो जाने के बाद वो पाबंद बनाए गए कि सिर्फ़ चार बीवीयों को रख कर बाक़ी को छोड़ दें। तिरमिज़ी में हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर رضي الله عنه रिवायत वारिद होती है कि ग़ैलान इब्ने सलमा अलसक़फ़ी ने जब इस्लाम क़बूल किया तो उनकी दौरे जाहलीयत से दस बीवीयां थीं जिन्होंने उनके साथ इस्लाम क़बूल किया, उन्हें आप ने हुक्म दिया कि वो इनमें से चार को चुन लें।

लिहाज़ा ऐसे मुआमलात जो इस्लाम के ख़िलाफ़ हों और जिनका असर बाक़ी रहे, तो ख़िलाफ़त के क़याम के बाद इस असर को ख़त्म कर दिया जायेगा, और इसका ख़त्म कर दिया जाना वाजिब होगा।

मिसाल के तौर पर अगर एक मुस्लिम औरत किसी ईसाई से शादी किए हुए हो तो ख़िलाफ़त के क़याम के बाद शरीयत के अहकाम के मुताबिक़ उनका ये अक़्द (contract) निरस्त हो जाएगा।

क़यामे ख़िलाफ़त के बाद ऐसे मुआमलात को दुबारा उठाना जो उन लोगों से सम्बन्धित हों जिन्होंने इस्लाम या मुसलमानों को नुक़्सान या तकलीफ पहुंचाई हो तो इस का कारण ये है कि हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़तह मक्का के वक़्त कुछ लोगों के क़त्ल का हुक्म दिया था जो दौरे जाहिलियत में इस्लाम और मुसलमानों को तकलीफ दिया करते थे और इस हुक्म में ये भी फ़रमाया था कि अगर वो काअबे के पर्दों में छिप जाएं तो उन्हें ना छोड़ा जाये; जबकि मालूम होना चाहीए कि हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया था कि इस्लाम अपने से साबिक़ा (पिछले) का पाबंद है, (रावी अमरो इब्ने अल आस : मुसनद अहमद और तबरानी)। इसके मानी ये हुए कि जो लोग इस्लाम और मुसलमानों को ईज़ा पहुंचाएं वो इस हदीस से मुस्तसना (excluded/प्रथक) होंगे।

चूँकि हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم ने बाद में कुछ को जैसे इकरिमा इब्ने अबी जहल को माफ़ कर दिया था, लिहाज़ा ख़लीफ़ा को ये अधिकार होगा कि वो ऐसे लोगों के मुआमलात को उठाए या उन्हें माफ कर दे। इस का इतलाक़ (apply) उन लोगों पर होगा जो मुसलमानों को हक़ बात कहने पर सताते थे या इस्लाम के ख़िलाफ़ तान करते थे, उन पर उस हदीस का इतलाक़ नहीं होगा जिसमें हुज़ूर नबी अकरम  صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया था कि इस्लाम अपने से साबिक़ा का पाबंद है, बल्कि वो इससे मुस्तसना रहेंगे और ख़लीफ़ा अपनी दूरन्देशी के मुताबिक़ उनके मुआमले को उठाएगा।

इन दोनों सूरतों के अलावा वो तमाम मुआमलात, सौदे और मुक़द्दमात जिन को ख़िलाफ़त के क़ायम होने से पहले तय कर लिया गया था और जो लागू भी हो चुके थे, ना उन्हें उठाया जाएगा और ना ही इन्हें रद्द ही किया जाएगा।

मिसाल के तौर पर अगर किसी शख़्स को एक मदरसे के दरवाज़े या ताले तोड़ने के इल्ज़ाम में दो साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई हो और वो ख़िलाफ़त के क़याम से पहले अपनी सज़ा के दो साल पूरे कर आज़ाद हो जाता है। अब ख़िलाफ़त क़ायम हो जाने के बाद वो इरादा करे कि वो उसे सज़ा देने वालों पर मुक़द्दमा चलाए क्योंकि उसकी राय में वो सज़ा का हक़दार नहीं था, तो ऐसा दावा क़बूल नहीं किया जाएगा क्योंकि ये मुआमला, उस पर सज़ा का हुक्म और फिर सज़ा की मुद्दत ख़िलाफ़त के क़ायम होने से पहले ख़त्म हो चुकी, ये मुआमला अल्लाह (سبحانه وتعال) के हवाला रहा।

इसके विपरीत अगर एक शख़्स को दस साल की सज़ा का हुक्म हुआ हो और ख़िलाफ़त के क़ायम होने से पहले दो साल गुज़रे हों कि ख़िलाफ़त का क़याम हो जाए; तो ये ख़लीफ़ा की दूरन्देशी पर निर्भर होगा कि वो इस मुआमले पर ग़ौर करे, चाहे वो उसकी सज़ा को सिरे से ख़ारिज कर दे और उसे इल्ज़ाम से बरी करके आज़ाद करे या जितनी सज़ा वो काट चुका हो उस ही को काफ़ी समझ कर छोड़ दिया जाये, या फिर बाक़ी सज़ा पर ग़ौर किया जाये और सम्बन्धित अहकामे शरई के तहत फ़ैसला किया जाये जो अवामी बहबूद में हो। इनमें ख़ासकर वो मुआमलात हों जो लोगों के अधिकार से सम्बन्धित हों और आपसी दुश्मनी का निवारण हो।  


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