फ़र्ज़

शारेअ (अल्लाह سبحانه وتعالى) का ख़िताब (सम्बोधन) अगर किसी फे़अल (काम) के करने से मुताल्लिक़ हो और ये तलबे जाज़िम (definitive demand/ निश्चित/निर्णयक मांग) के साथ हो, तो ये फ़र्ज़ या वाजिब कहलाएगा। फ़र्ज़ और वाजिब के एक ही माअनी हैं और इनमें कोई फ़र्क़ नहीं क्योंकि ये दो लफ़्ज़ मुतरादिफ़ (पर्याय) हैं। ये कहना सही नहीं कि जो चीज़ क़तई दलील (क़ुरआन और सुन्नते मुतवातिर) से साबित है वो फ़र्ज़ है और जो ज़न्नी दलील (ख़बरे वाहिद और क़ियास) से साबित है वो वाजिब है। ये इसलिए क्योंकि दोनों नामों (फ़र्ज़ या वाजिब) की एक ही हक़ीक़त है और वो ये कि शारेअ ने किसी फे़अल करने की तलबे जाज़िम की है। इस ऐतबार से क़तई दलील और ज़न्नी दलील में कोई फ़र्क़ नहीं है क्योंकि ये मसला ख़िताब के मदलूल से मुताल्लिक़ है ना कि इस के सबूत से।

फ़र्ज़ वह है जिस के करने वाले की तारीफ़ की जाये और ना करने वाले की मज़म्मत की जाये या इसको छोड़ने वाला सज़ा का मुस्तहिक़ हो।

फ़र्ज़ को क़ायम करने की हैसियत से, उस की दो किस्में हैं:

फ़र्ज़े ऐन और फ़र्ज़े किफ़ाया

उन के वाजिब होने के ऐतबार से, इन में कोई फ़र्क़ नहीं क्योंकि दोनों तलबे जाज़िम के साथ हैं। अलबत्ता उन को क़ायम करने की हैसियत से इनमें ये फ़र्क़ है कि फ़र्ज़ ऐन में हर फ़र्द से ज़ाती तौर पर फे़अल अंजाम देने का मुतालिबा किया गया है, जबकि फ़र्ज़े किफ़ाया में आम तौर पर मुसलमानों से फे़अल का मुतालिबा किया गया है, यानी ख़िताब का मक़सद मुअय्यन (खास) फे़अल की अंजाम दही है ना ये कि हर फ़र्दे वाहिद उसे अंजाम दे। लिहाज़ा अगर इस फे़अल को बाअज़ मुसलमानों ने सरअंजाम दे दिया (यानी फे़अल की अदायगी क़ायम हो चुकी) तो बाक़ीयों से इस का ज़िम्मा साक़ित हो जाएगा (हट जायेगा)। अलबत्ता सवाब के मुस्तहिक़ वही होंगे जिन्हों ने इस फे़अल को किया । और अगर इस फे़अल को किसी ने अंजाम नहीं दिया, तो जब तक वो क़ायम नहीं हो जाता, सब गुनहगार रहेंगे, मासिवा वो लोग जो उस की अदायगी में मशग़ूल हैं।

शारे की तरफ़ से किसी फे़अल को करने की तलब सेग़ा ए-अम्र (افعل) के साथ होगी या जो कुछ इस मानी के क़ाइम मक़ाम (मायने मे बराबर) हो। फिर अगर कोई ऐसा क़रीना पाया जाये जो फे़अल को तलबे जाज़िम होने का फ़ायदा दे , तो इस सेग़ा ऐ तलब और करीना ए जाज़िमा के वजह से, फे़अल (काम) वाजिब क़रार पायगा।

मिसाल :

وأقیموا الصلاۃ
और नमाज़ क़ायम करो (अल नूर-56)
إن الصلاۃ کانت علی المؤمنین کتابا موقوتا
“यक़ीनन नमाज़ मोमिनों पर मुक़र्रर वक़्तों पर फ़र्ज़ है” (अन्निसा-103)

पहली आयत में ( أقیموا) सेग़ा ऐ अम्र (हुक्म/order/आदेश) में है और दूसरी में   (کتابا موقوتا) सेग़ा ऐ अम्र का क़ाइम मुक़ाम (बराबर) है क्योंकि ये अम्र (हुक्म/order/आदेश) के मानी में है। इन दोनों आयात से नमाज़ की तलब साबित है मगर जिस क़रीना ने इस तलब को जाज़िम (definitive/ निश्चित/निर्णयक) क़रार दिया वो ये आयत है:

مَا سَلَڪَكُمۡ فِى سَقَرَ ( ٤٢ ) قَالُواْ لَمۡ نَكُ مِنَ ٱلۡمُصَلِّينَ
“तुम्हें दोज़ख़ में किस चीज़ ने डाला? वो जवाब देंगे कि हम नमाज़ी ना थे” (मुदस्सिर-42,43)


यूं इस तलबे जाज़िम से नमाज़ की फ़र्ज़ीयत समझी गई है।
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.