मानेअ

मानेअ की तारीफ़:
ھو کل وصف منضبط دل الدلیل السمعی علی أن وجودہ یقتضي علۃ تنافي علۃ الشيء الذي معنہ و بعبارۃ أخری ھو کل ما یقتضي علۃ تنافي
علۃ ما منع

(वो हर मुंज़बित वस्फ़ जिस पर कोई समई दलील ये दलालत करे कि इस का वजूद एक ऐसी इल्लत का तक़ाज़ा करे जिस से मना की गई चीज़ की इल्लत की नफ़ी हो, दूसरे लफ़्ज़ों में वो सब कुछ जो एक ऐसी इल्लत का तक़ाज़ा करे जिस से माने की इल्लत की नफ़ी हो)

मानेअ हुक्म के लिए हो सकता है और सबब के लिए भी।

हुक्म के लिए मानेअ की मिसाल : रिश्तेदारी विरासत का सबब है और अमदन  क़त्ल विरासत यानी हुक्म के लिए मानेअ है, लिहाज़ा यहां मानेअ हुक्म को ख़त्म कर रहा है यानी विरासत को और ना कि रिश्तेदारी को जो सबब है।
सबब के लिए मानेअ की मिसाल: एक साल गुज़रना निसाब पूरा होने की शर्त है और निसाब ज़कात की अदायगी का सबब है, जबकि देन (क़र्ज़) ज़कात के लिए मानेअ है, लिहाज़ा यहां मानेअ सबब यानी निसाब को ख़त्म कररहा है, ना कि ज़कात को जो हुक्म है।

तलब और अदायगी की हैसियत से मानेअ की दो किस्में हैं:

1 ) वो मानेअ जो तलब और अदायगी, दोनों एतबारात से मना हो । मसलन नींद या जुनून अक़्ल को ज़ाइल करते हैं, जो नमाज़, रोज़े और बैअ वग़ैरा की तलब के लिए मानेअ है । पस ये तलब की असल के लिए माने है क्योंकि मुकल्लिफ़ के अफ़आल से मुताल्लिक़ ख़िताब के लिए अक़्ल शर्त है। इसी तरह हैज़ और निफ़ास भी नमाज़, रोज़े और मस्जिद में दाख़िल होने की तलब की असल के लिए मानेअ हैं और उन की अदायगी के लिए भी, क्योंकि इन कामों के लिए पाक होना शर्त है ।

2 ) वो मानेअ जो तलब के ऐतबार से मना हो और अदायगी के ऐतबार से मना ना हो। मसलन औरत के लिए नमाज़े जुमा की तलब मानेअ है क्योंकि इस के लिए ये वाजिब नहीं है । इसी तरह बच्चे के लिए रोज़े की तलब मानेअ है क्योंकि रोज़ा इस पर फ़र्ज़ नहीं है । अलबत्ता अगर औरत जुमे की नमाज़ पढ़ती है और बच्चा रोज़ा रखता है तो ये काम सही होंगे क्योंकि ये अदायगी के ऐतबार से मना नहीं हैं। इसी तरह सफ़र में रोज़े की और पूरी नमाज़ की तलब मानेअ है, लेकिन अगर सफ़र में रोज़ा रख लिया जाये और नमाज़ क़स्र ना की जाये बल्कि पूरी पढ़ी जाये, तो ये जायज़ होगा क्योंकि ये तलब के लिए माने तो है मगर अदायगी के लिए मानेअ नहीं।


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