मसलाहे मुरसला

मसलाहे मुरसला

उसकी तारीफ़ कुछ यूं की गई है : वो जो बगै़र दलील के हो मगर मक़ासिदे शरीअत को फ़ायदा पहुंचाए या हर्ज को दफ़ा करे, यानी जल्बे मस्लिहत और दफ़इ मुज़र्रत। बाअज़ ने मस्लिहत को इन तीन ज़ुमरों में तक़सीम किया है :

(1) मोअतबरा
(2) मुलगा-ए-
(3) मुर्सला ।

पहली किस्म वो है जो नुसूस से साबित है, मसलन इल्म हासिल करना । दूसरी जो नुसूस के ख़िलाफ़ है, मसलन जिहाद की नफ़ी, चुनांचे ये मुस्तरद है। मुर्सला वो है जिस की नफ़ी या इस्बात पर कोई दलील-ओ-नस मौजूद ना हो यानी वो तमाम अफ़आल जिन पर शराअ ख़ामोश है, अगर ये मक़ासिदे शरीअत को फ़ायदा पहुंचाए तो ये मक़बूल है, मसलन ट्रैफ़िक का क़ानून बनाना वग़ैरा ।

पहली किस्म हक़ीक़त में शरई नुसूस हैं इसलिए वो बज़ाते ख़ुद दलायल हैं ना मस्लिहत, यानी चूँकि ये अहकाम उनके शरई दलायल से साबित हैं, मसलन इल्म हासिल करना :

طلب العلم فریضۃ علی کل مسلم‘‘(ابن ماجہ(
इल्म का हासिल करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है (इब्ने माजा)

इसलिए उन्हें मस्लिहत से मौसूम नहीं किया जाएगा। दूसरी किस्म का इस्तिर्दाद ज़ाहिर है जबकि तीसरी किस्म यानी मसलाहे मुर्सला (बला दलील मस्लिहत) पर रोशनी डालना ज़रूरी है।

ये दावा करना कि शराअ कई उमूर पर ख़ामोश है सरीह नुसूस के ख़िलाफ़ है :

وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَـٰبَ تِبۡيَـٰنً۬ا لِّكُلِّ شَىۡءٍ۬
और हम ने आप पर ऐसी किताब नाज़िल की जो हर चीज़ को खोल खोल कर बयान करती है (अल नहल-89)

ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِى
आज हम ने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपनी नेअमत मुकम्मल कर दी (अल माईदा-3)

وَمَا ٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِيهِ مِن شَىۡءٍ۬ فَحُكۡمُهُ ۥۤ إِلَى ٱللَّهِۚ
और जिस जिस चीज़ में तुम्हारा इख़्तिलाफ हो उस का फ़ैसला अल्लाह ही की तरफ़ है (अशशूरा-10

أَيَحۡسَبُ ٱلۡإِنسَـٰنُ أَن يُتۡرَكَ سُدًى
क्या इंसान ये समझता है कि उसे यूँ ही छोड़ दिया जाएगा (अल क़ियामा-36)

ये तमाम आयात क़तई तौर पर इस अम्र पर दलालत कर रही हैं कि ऐसा कोई मसला मौजूद ही नहीं जिस का जवाब शराअ ने ना दिया हो। शरियते इस्लामी ज़िंदगी के तमाम मसाइल को हल करती है चाहे वो कितना ही बारीक क्यों ना हो। कुतुबे फिक़्ह पर एक सरसरी नज़र इस बात की तस्दीक़ करती है, जहां बारीक से बारीक मसाइल इस्लाम के नुसूस से समझे गए हैं और क़ियामत तक अख़ज़ किए जाऐंगे । जहां तक इंतिज़ामी, सनअती-व-साईंसी उमूर का ताअल्लुक़ है, तो ऐसी बात नहीं है कि शराअ उन पर ख़ामोश है बल्कि इस ने इन उमूर को इंसान पर छोड़ दिया है बशर्ते कि ये ख़िलाफे शराअ ना हो। शराअ का इन उमूर को इंसान पर छोड़ देने का हर्गीज ये मतलब नहीं कि वो उन मसाइल पर ख़ामोश है, क्योंकि इस अम्र के दलायल शराअ में मौजूद हैं,

मसलन :
أنتم أدری بشؤون دنیاکم ‘‘(مسلم(
तुम अपने दुनियावी उमूर से ज़्यादा वाक़िफ़ हो (मुस्लिम)

इसीलिए हज़रत उमर رضي الله عنه ने अपनी ख़िलाफ़त में दीवानी निज़ाम अहले फारस से लिया, इस के बावजूद कि कुफ़्फ़ार इस के बानी थे। ये इंतिज़ामी उमूर में से था और आज भी ऐसे तमाम उमूर मसलन ट्रैफ़िक के क़वानीन, इसी तरह सनअत-व-साईंस और इंजीनिरिंग वग़ैरा का भी यही हुक्म है कि इन तमाम उलूम को दूसरी क़ौमों से लिया जा सकता है क्योंकि ये आलमी हैं, बशर्ते कि ये इस्लाम के ख़िलाफ़ ना हो। लिहाज़ा शराअ किसी बात पर ख़ामोश नहीं है !!

अलावा अज़ीं अक़्ल इस क़ाबिल नहीं कि वो मस्लिहत को ताय्युन कर सके क्योंकि कई मर्तबा अक़्ल किसी बात पर मस्लिहत होने का फ़ैसला सादर करती है मगर बाद में वो नुक़्सानदेह साबित होता है और इसी तरह बाअज़ मर्तबा ऐसा होता है कि अक़्ल किसी बात को ज़रर रसाँ समझती है मगर वो मुफ़ीद साबित होती है, अल्लाह سبحانه وتعال क्या ख़ूब फ़रमाता है:

وَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـًٔ۬ا وَهُوَ خَيۡرٌ۬ لَّڪُمۡۖ وَعَسَىٰٓ أَن تُحِبُّواْ شَيۡـًٔ۬ا وَهُوَ شَرٌّ۬ لَّكُمۡۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ

मुम्किन है तुम किसी चीज़ को बुरी जानो और दरअसल वही तुम्हारे लिए भली हो और ये भी मुम्किन है कि तुम किसी चीज़ को अच्छी समझो हालाँकि वो तुम्हारे लिए बुरी हो, हक़ीक़ी इल्म अल्लाह ही को है और तुम महज़ बेख़बर  हो (अल बक़रह-216)

लिहाज़ा अक़्ल मस्लिहत को ताय्युन करने में नाकाम है, ये काम सिर्फ़ शराअ कर सकती है यानी शारेअ ये फ़ैसला कर सकता है कि हक़ीक़ी मस्लिहत किस फे़अल में है और कौनसा फे़अल नुक़्सानदेह है। चुनांचे मुसलमान का नज़रिया है कि जहां शरीअत है वहां मस्लिहत है यानी जिस चीज़ को शराअ ने हलाल-व-जायज़ क़रार दिया है, वो इस के लिए भली है और जिस चीज़ को शराअ ने हराम क़रार दिया है वो इस के लिए बुरी । अक़्ल को किसी फे़अल पर अच्छे या बुरे का फ़ैसला देने का कोई इख़्तियार हासिल नहीं वरना इंसान के लिए वह्यी नाज़िल करने का मक़सद ही साक़ित हो जाता है । यानी अगर इंसान की अक़्ल अच्छे-व-बुरे का फ़ैसला करने के काबिल होती तो अल्लाह سبحانه وتعال का वह्यी के ज़रीये हिदायत भेजना बे मक़्सद नज़र आता है। चुनांचे मसलाहे मुर्सला यानी बिला दलील मस्लिहत की शराअ में कोई एहमियत नहीं है और इसीलिए ये मुस्तरद है।

अगरचे ये तमाम दलायल, जिन्हें रद्द किया गया है, हक़ीक़त में दलायल की हैसियत नहीं रखते, ताहम वो अहकाम जो इन दलायल से बाअज़ उलमा ने अख़ज़ किए हैं, ये अहकाम शरईयाह ही हैं क्योंकि इन दलायल पर दलील की शुबहात पड़ती है जिसे इस्तिलाह में शिबह दलील कहा जाता है। इसलिए वो लोग जो इन मुज्तहिदीन की तक़लीद करते हैं, इन मुक़ल्लिदीन के लिए ये शराअ के अहकाम ही हैं ।

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