औलाद की किफ़ालत से मुताल्लिक़ अहकामे शरीआ

वालिद की मुहाफ़िज़त

वालिद क्योंकि ख़ानदान का अमीर, क़ाइद (नेतृत्व करने वाला) और रखवाला होता है लिहाज़ा ये ज़रूरी हुआ कि बच्चों की सरपरस्ती (Guardianship) उसी की हो। वालिद ही छोटे बच्चों और उन बड़े बच्चों का, उनके माल का और उन बच्चों का सरपरस्त होता जो आत्मनिर्भर नहीं हैं चाहे वो लड़के हों या लड़कीयाँ। वालिद की सरपरस्ती में वो बच्चे भी शामिल होते हैं जो अपनी माँ या किसी और क़रीबी रिश्तेदार के जे़रे परवरिश में हों।
एक शख़्स या तो छोटी उम्र का होगा या बड़ी उम्र का और एक बड़ी उम्र वाला भी या तो अक़्लमन्द  होगा या ग़ैर अक़्लमन्द चुनांचे अगर वो बड़ी उम्र का है और अक़्लमन्द है तो उस पर और उसके माल पर कोई सरपरस्त नहीं होता, वो खु़द ही अपने मुआमलात का निगहबान होता है अलबत्ता उसके वालिद को उस की सरपरस्ती का हक़ रहता है। लेकिन अगर वो शख़्स या तो छोटी उम्र का है या बड़ी उम्र का कम अक़्ल है तो उस की सरपरस्ती उसके ज़िम्मा नहीं होगी क्योंकि वो कम अक़्ल होने के कारण अपनी सरपरस्ती से अक्षम है। उस की सरपरस्ती उसके वालिद की होगी और ये उस वक़्त तक रहेगी जब तक उसमें ये दोनों गुण हैं जिनकी वजह से  वालिद की सरपरस्ती ज़रूरी हुई यानी या तो वो अपनी उम्र को ना पहुंचे या समझदार ना हो जाये, तब उस वक़्त वो ख़ुद अपने मुआमलात का निगहबान बन जाता है लेकिन फिर भी वालिद की सरपरस्ती मिन बाबे इस्तिहबाब (Preferred) या मिन बाबे नदब (Recommended) बाक़ी रहती है क्योंकि वालिद को सरपरस्ती का हक़ स्थाई होता है।

औलाद की किफ़ालत से मुताल्लिक़ अहकामे शरीआ

एक बच्चे को अगर छोड़ दिया जाये तो वो खत्म हो जाये लिहाज़ा उस की परवरिश फ़र्ज़ है और ये जान की हिफ़ाज़त के दायरे में आती है जिसे अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फ़र्ज़ किया है। उसे हलाकत और ख़तरों से महफ़ूज़ रखना फ़र्ज़ है। फिर उस किफ़ालत के फ़र्ज़ होने के अलावा क़राबत के ताल्लुक़ का भी यही तक़ाज़ा है क्योंकि ये बच्चे का हक़ है लिहाज़ा किफ़ालत का जहाँ ताल्लुक़ फ़र्ज़ है वहीं ये एक हक़ से भी जुडा हुआ है। परवरिश बच्चे का हक़ है और ये हर उस शख़्स पर फ़र्ज़ है जिस पर अल्लाह (سبحانه وتعال) ने किफालत का बोझ डाला है। जब किसी को उसकी ज़िम्मेदारी दे दी जाये तो ये फ़र्ज़ उस कफ़ील (किफालत करने वाले) पर आइद हो जाता है। जहाँ तक इस किफालत के ज़िम्मादारी के हक़ का सवाल है तो जिन पर अल्लाह (سبحانه وتعال) ने बार-ए-किफालत डाला है इनमें से जो उस की योग्यता रखता हो ये हक़ उसका है ना कि उसका जिसके पास बच्चे के हलाक हो जाने का इमकान हो। लिहाज़ा ये किफालत उसे नहीं दी जा सकती जो या तो ख़ुद बच्चा हो या जो अक़्ल से कमज़ोर हो क्योंकि ये किफालत की ज़िम्मेदारी निबाहने से असक्षम और ख़ुद किफालत के मुहताज हैं तो ये कैसे किफालत का हक़ अदा कर पाएंगे? इसी तरह बच्चे की किफालत उन्हें भी नहीं सौंपी जा सकती जिन के पास बच्चे की देख भाल ना हो सके चाहे उनकी फ़रामोशी की वजह से या उनके दूसरे कामों में होने की वजह से बच्चे की देख भाल को नज़रअंदाज करने के सबब से और ना ही ये ऐसे शख़्स के सपुर्द की जा सकती जिन में मसलन फ़िस्क़ की सिफ़त हो कि बच्चा भी इसी सिफ़त पर परवान पाएगा और फ़िस्क़ भी एक क़िस्म की हलाकत है। मज़ीद ये कि एक काफ़िर को भी ये ज़िम्मेदारी नहीं दी जा सकती सिवाए उस प्रथकता के कि बच्चे की वालिदा ख़ुद ही काफ़िरा हो।

अगर बच्चे की उम्र इतनी है कि वो चीज़ों को पहचान सकता है, अपने वालिद और वालिदा के सुलूक में फ़र्क़ कर सकता है, उसका दूध छूट चुका है तो ऐसी हालत में वो अपनी माँ और बाप के बीच किसी की किफालत में आ सकता है। मसनद अहमद और अबु दाऊद में अब्दुल हमीद बिन जाफ़र अपने वालिद के ज़रीये से अपने दादा राफ़े बिन सनान से रिवायत करते हैं कि उन के दादा हज़रत राफ़े (رضي الله عنه) ने इस्लाम क़बूल कर लिया जबकि दादी ने क़बूल करने से इंकार कर दिया। फिर दादी हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) के पास आई और कहा कि मेरी बेटी दूध छोड़ चुकी है या बस छोड़ने पर ही है। हज़रत राफ़े (رضي الله عنه) ने कहा कि वो मेरी बेटी है। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: तुम एक तरफ़ बैठो, फिर दादी से फ़रमाया कि तुम भी एक तरफ बैठो, फिर दोनों से फ़रमाया कि अब बच्ची को बुलाओ तो बच्ची वालिदा की तरफ मुतवज्जा हुई। फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने दुआ फ़रमाई कि ऐ अल्लाह! उसे रास्ता दिखा, तब बच्ची अपने वालिद की तरफ बढी और उन्होंने उसे उठा लिया। इसी हदीस को अलग अलग अल्फाज़ में इसी अर्थ के साथ नसाई (رحمت اللہ علیہ) ने भी नक़ल किया है।

इस के विपरीत अगर बच्चा कम उम्र है और चीज़ों में तमीज़ नहीं कर सकता और ना ही माँ और बाप के सुलूक में फ़र्क़ कर सकता है और अभी उस की दूध पीने की उम्र है या अभी दूध छूटा ही है तो ऐसी सूरत में उसे ये इख्तियार नहीं दिया जाएगा, बल्कि ऐसी सूरत में बच्चा माँ की ही किफालत में रहेगा। उसकी की दलील भी वही हज़रत राफ़े (رضي الله عنه) वाली हदीस है। और चूँकि कोई शरई नस इस के ख़िलाफ़ नहीं है लिहाज़ा माँ का बच्चे की किफालत के लिए ज़्यादा हक़दार होना साबित है। यहाँ बच्चे की किफालत को विलायत (Guardianship) से ताबीर करना और ये कहना कि एक मुस्लिम की विलाएत किसी काफ़िर के सपुर्द नहीं की जा सकती, ठीक नहीं क्योंकि किफालत दरहक़ीक़त बच्चे की परवरिश और ख़िदमत है ना कि विलायत लिहाज़ा उस पर विलायत के अहकाम को लागू करना ठीक ना होगा।

औरत की तलाक़ हो जाने की सूरत में वही एक बच्चे और पागल की परवरिश की हक़दार है क्योंकि मसनद अहमद और सुनन अबु दाऊद में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से रिवायत नक़ल है कि:
))أن أمرأۃ قالت یا رسول اللّٰہ ا إنَّ ابني ھذا کان بطني لہ وعاء،وثدیي لہ سقاء وحجري لہ حواء،وإن أباہ طلقني و أراد أن ینزعہ مني۔ فقال رسول اللّٰہ ا أنتِ أحق بہ ما لم تنکحي((
एक औरत ने हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) से अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم)! मेरे बतन में मेरा बेटा है और मेरा बतन उसका ठिकाना, मेरा सीना उसे सेराब करता है और मेरी गोद उसकी हिफ़ाज़त करती है। फिर भी इस के बाप ने मुझे तलाक़ दे दी है और बच्चेको मुझ से छीन रहा है। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया: बच्चे का हक़ तुझे ज़्यादा है जब तक कि तू दुबारा निकाह ना कर ले।
Plz read it यहाँ पहले बेटे के बतन में होने की बात की जा रही है फिर कहा जा रहा है कि इसका वालिद मुझ से छीन रहा है।  और मसनद इब्ने अबी शैबा में हज़रत उमर (رضي الله عنه) से रिवायत है कि उन्होंने उम्मे आसिम को तलाक़ दी फिर एक बार जब वो उनके पास पहुंचे तो आसिम अपनी वालिदा की गोद में थे। हज़रत उमर (رضي الله عنه) का इरादा था कि वो बच्चे को माँ से ले लें, दोनों बच्चे को खींच रहे थे यहाँ तक कि बच्चा रोने लगा। फिर वो दोनों हज़रत अबु बक्र (رضي الله عنه) के पास आए तो उन्होंने फ़रमाया कि जब तक बच्चा बड़ा ना हो जाये, माँ का स्पर्श, उस की गोद और उस की ख़ुशबू बच्चे के लिए तुम से बेहतर है। जब वो बड़ा हो जाएगा तो ख़ुद ही अपने लिए तुम में किसी को चुन लेगा। अगर वालिदा किफालत की ऊपर लिखी शर्तों पर पूरी ना उतरती हो, या इन में से किसी एक शर्त पर पूरी ना उतरती हो, जैसे मसलन उसने शादी कर ली हो या वो पागल हो वग़ैरा तो उसे किफालत नहीं दी जाती और अब किफालत का हक़ माँ से ज़्यादा क़रीबी अज़ीज़ को होता है। अगर माँ और बाप दोनों ही किफालत की शर्तों पर खरे ना हों तो फिर ये ज़िम्मेदारी सब से क़रीबी अज़ीज़ को दे दी जाती है क्योंकि वो दोनों ही हक़दार नहीं हैं और दोनों का ही ना होना समझा जाता है। बहरहाल बच्चे की किफालत की सब से ज़्यादा हक़दार उस की माँ ही है। फिर उसके बाद उसकी माँ की वालिदा और नानी और फिर सब से क़रीबी अज़ीज़ क्योंकि वो औरतें हैं और बच्चे की परवरिश में उनका तजुर्बा साबित शूदा है और ये सब माँ ही के हुक्म में आती हैं। इसके बाद वालिद का हक़ होता है फिर वालिद की वालिदाओं का यानी वालिदा और दादी या नानी का, फिर दादा का, फिर दादा की वालिदाओं का, जबकि वो विरसे में से नहीं बल्कि रिश्ते के सबब किफालत की हक़दार होती हैं। अगर वालिद और वालिदा दोनों ही का इंतिक़ाल हो चुका हो तो किफालत का हक़ बहनों को जाता है। बहनों में माँ की बहनें फिर बाप की बहनें ज़्यादा हक़दार हैं। उनके बाद किफालत का हक़, उस बहन को जाता है जो बाप के रिश्ते से बहन हो, फिर उस बहन का हक़ है जो माँ के रिश्ते से बहन हो। यहाँ बहन को भाई पर तर्जीह (priority) होगी क्योंकि वो औरत है और किफालत की योग्य लिहाज़ा उसे अपने हम मंसब रिश्तेदारों पर तर्जीह होती है। अगर कोई बहन ना हो तो माँ बाप के भाई का हक़ पहले होता है। उनके बाद बाप के रिश्ते से भाई और उसकी औलाद किफालत के हक़दार होते हैं, जबकि माँ के रिश्ते से भाई किफालत का हक़दार नहीं होता। अगर ये रिश्तेदार ना हों तो फिर किफालत की ज़िम्मेदारी ख़ालाओं के सपुर्द होती है और अगर ये भी ना हों तो फूफीयाँ हक़दार होती हैं। उन की ग़ैरमौजूदगी में सगे चचा और फिर वो चचा जो बाप के रिश्ते से चचा हों (जिन की वालिदा दूसरी हों), उस चचा को किफालत का हक़ नहीं होता जिससे सिर्फ़ माँ की तरफ से रिश्ता हो, यानी बाप सौतेला हो। इन सब के ना होने पर माँ की ख़ालाओं को किफालत का हक़ होता है। फिर बाप की ख़ालाओं को, इस के बाद बाप की फूफियों को, अलबत्ता माँ की फूफियों को किफालत का हक़ नहीं क्योंकि वो माँ के वालिद के ज़रीये से रिश्तेदार हैं और माँ के वालिद को किफालत का हक़ नहीं है।

किफालत का हक़ उसके हक़दार से सिर्फ़ उसके ना होने पर या उसमें किफालत की योग्यता ना होने पर ही मुंतक़िल (transfer) हो सकता है। इसी तरह अगर एक शख़्स जिसे किफालत का हक़ है, वो किफालत नहीं करता तो बच्चे की किफालत की ज़िम्मादारी अगले मुस्तहिक़ को उसी सूरत में पहुंचती है जब किफालत करने की अहलीयत रखता हो क्योंकि बच्चे की किफ़ालत उस मुस्तहिक़ का हक़ है लेकिन इसके साथ साथ ये उस बच्चे का हक़ भी है जो इस हक़दार पर वाजिब होता है। लिहाज़ा किफालत को तर्क कर देना उस वक़्त तक ठीक नहीं जब तक कि उस की ज़िम्मेदारी कोई और ना ले ले जो इस ज़िम्मेदारी की अहलीयत भी रखता हो। उस वक़्त आइन्दा किफालत करने वाला पिछली तर्तीब की वजह से अगला रिश्तेदार होगा। अगर कोई ऐसा शख़्स जो किफालत का अपना हक़ तर्क कर चुका हो, वो दुबारा किफालत करना चाहे और उसमें किफालत की शर्तों भी बरक़रार हों तो उसका ये हक़ बहरहाल बाक़ी रहता है और बच्चा किफालत के लिए उसके सपुर्द कर दिया जाता है। इसी तरह अगर वालिदा फिर शादी कर के अपना हक़ खो चुकी हो तो वो भी अपनी तलाक़ के बाद किफालत का हक़ दुबारा पा लेती है और इसी तरीक़े से हर रिश्तेदार जो किफालत का हक़दार हो लेकिन किसी शर्ते किफालत के पूरा ना होने के कारण ना कर पाए तो जब उसकी वो रुकावट खत्म हो जाये तो उसका किफालत का हक़ भी बहाल होता है क्योंकि इस में बहरहाल वो शर्तों बरक़रार हैं जो किफालत के लिए दरकार होती हैं।

बच्चे की किफालत के हक़ पर अगर कुछ लोगों में झगडा हो जाए और हर एक का ये मौक़िफ़ (मत) हो कि वही किफालत का ज़्यादा हक़दार है तो ऐसी सूरत में बच्चे की किफालत उसके हक़ में जाएगी जो सब से ज़्यादा हक़ वाले रिश्तेदार की औलाद में से हो। हज़रत अल बरा बिन अल आज़िब (رضي الله عنه) से हज़रत हमज़ा (رضي الله عنه) की बेटी के बारे में हज़रत अली, हज़रत जै़द और हज़रत जाफ़र (رضی اللہ عنھم) के बीच झगडा हुआ तो हज़रत अली (رضي الله عنه) ने कहा कि मेरा ज़्यादा हक़ है ये मेरे चचा की बेटी है। हज़रत जाफ़र (رضي الله عنه) ने कहा कि ये मेरे चचा की बेटी है और उसकी ख़ाला मेरी बीवी हैं। हज़रत जै़द (رضي الله عنه) ने कहा कि ये मेरी भतीजी है। हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने इसका फ़ैसला उसकी ख़ाला के हक़ में किया और फ़रमाया:
))الخالۃ بمنزلۃ الأم((
ख़ाला वालिदा का मुक़ाम रखती है।(बुख़ारी शरीफ़)

ये तमाम बेहस उस बच्चे के ताल्लुक़ से थी जिसे हलाकत से महफ़ूज़ रखने के लिए किफालत ज़रूरी हो, रहा वो बच्चा जो अब किफालत का मुहताज नहीं रहा तो अब इसमें किफालत की इल्लत (वजह) भी बाक़ी नहीं रही और अब उस की किफालत का हुक्म खत्म हो गया, चुनांचे अब उसकी किफालत का उसके क़रीबी रिश्तेदारों का हक़ भी ख़त्म हो गया। अब वाक़ई हाल पर ग़ौर किया जाएगा। अब जिसे उस की किफालत का हक़ था जैसे उस की माँ, अगर काफ़िरा है तो ऐसे में उसकी निगरानी (Guradianship) माँ से लेकर उसे दे दी जाएगी जिसको इस निगरानी का हक़ है। क्योंकि अब इस बच्चे को किफालत की ज़रूरत  नहीं बल्कि वाक़िया ये है कि निगरानी की ज़रूरत है जो एक काफ़िर के लिए जायज़ ही नहीं है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) का इरशाद है:
وَلَن يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لِلۡكَـٰفِرِينَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ سَبِيلاً
और अल्लाह ने काफ़िरों के लिए मोमिनों पर ग़ालिब आने का कोई रास्ता नहीं रखा है। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन: अन्निसा 141)

फिर हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) का क़ौल है:

))الإسْلام یعلو ولا یعلی علیہ((
इस्लाम हमेशा ग़ालिब रहता है ना कि इस पर कोई ग़ालिब आता है।(सुनन दारुल क़ुतनी)

यहाँ ख़िताब (संभोधन) आम है और ऐसी कोई नस नहीं जो उसे खास कर देती हो और किफालत वाली खास हदीस इस पर लागू नहीं होती जबकि बच्चा किफालत का मुहताज ना रहा। लेकिन अगर सूरते हाल ये हो कि किफालत और निगरानी दोनों के हक़दार मुस्लिम ही हों मिसाल के तौर पर माँ बाप दोनों मुस्लिम हों तो बच्चे या बच्ची को माँ और बाप के बीच चुन लेने का इख्तियार होता है और वो जिसे चुन ले उसी के साथ उसे रहना होता है। मसनद अहमद, सुनन इब्ने माजा और तिरमिज़ी में रिवायत है:

))عن ابی ھریرۃ أن النبي ا خیَّر غلاماً بین أبیہ و أمہ((
हज़रत अबु हुरैरा (رضي الله عنه) से मर्वी है कि हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने एक लड़के को अपने वालिद और वालिदा में से किसी एक को चुन लेने का इख्तियार दिया।

नीज़ सुनन अबु दाऊद की रिवायत में है:

))أن امرأۃ جاء ت فقالت:یا رسول اللّٰہ إن زوجي یرید أن یذھب بابني،وقد سقاني من بئر أبي عِنبۃ، وقد نفعني،فقال رسول اللّٰہ:استھما علیہ۔ فقال زوجھا:من یحاقِّني في ولدي،فقال النبي: ھذا أبوک و ھذہ أمک فخذ أیھما شئت۔فأخذ بید أمہ فانطلقت بہ((

एक औरत हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) के पास आई और कहा ऐ अल्लाह के रसूल! मेरा शौहर मेरे बच्चे को ले लेना चाहता है जबकि वो मेरे लिए अबु अनबुताके कुवें से पानी सींच कर लाता है और मेरी मदद करता है। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि तुम इस पर क़ुरआ डाल लो। शौहर ने कहा कि कौन मेरे बच्चे के बारे में मुझ से झगडा करता है? हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया : ये तुम्हारा वालिद है और ये तुम्हारी माँ, तुम चाहे जिसे चुन लो। बच्चे ने माँ का हाथ थाम लिया और माँ उसे लेकर चली गई।

बैहक़ी में भी हज़रत उमर (رضي الله عنه) से रिवायत मनक़ूल है कि आप (رضي الله عنه) ने एक लड़के को अपने माँ और बाप के बीच चुनने का इख्तियार दिया और हज़रत अली (رضي الله عنه) के बारे रिवायत नक़ल की है कि उन्होंने अम्माराअलजरमी (رضي الله عنه) को जो सात या आठ साल के थे, उन्हें इख्तियार दिया कि वो अपनी माँ और चचा के बीच किसी को चुन लें। इन अहादीस में साफ दलील है कि जब माँ और बाप के बीच बच्चे पर झगडा हो तो बच्चे को अधिकार दिया जाना वाजिब हो जाता है और वो जिसे चुन ले इसी के साथ चला जाता है। सुनन अबु दाऊद में जो क़ुरआ का ज़िक्र है वो अलबत्ता नसाई और दूसरे रिवायात में नहीं आता, क़ुरआ अंदाज़ी ऐसी सूरत में की जाती है जहाँ बच्चा दोनों में से किसी एक को ना चुने। इस इख्तियार दिए जाने के लिए किसी खास उम्र की क़ैद नहीं होती, ये फ़ैसला करने वाले हाकिम / क़ाज़ी की सवाबदीद पर निर्भर होता है जो माहिरीन की राय की बुनियाद पर हो। अगर माहिरीन की राय ये हो कि बच्चे को किफालत की हाजत नहीं रही और फ़ैसला करने वाला इस राय से मुतमइन हो तो वो बच्चे को इख्तियार देता है वर्ना वो बच्चे को उसी के पास रहने देता है जिसे बच्चे की किफालत का हक़ हो। इस में मुआमला बच्चे के हालात पर निर्भर होता है। एक बच्चा पाँच साल की उम्र में ही मुम्किन है कि किफालत का मुहताज ना रहे और ये भी मुम्किन है कि दूसरे किसी बच्चे पर नौ साल की उम्र में भी किफालत ज़रूरी हो। यहाँ बच्चे के हालात काबिले ऐतबार होते हैं कि वो अब किफालत का मुहताज है या उसे किफालत की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही।

  
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