वो जो दलील नहीं है
इज्मा ए उम्मत / इज्मा ए औलमा
इन दोनों इजमा की किस्मों को एक ही उनवान में इसलिए जमाअ किया गया है क्योंकि उनके मुशतरका दलायल पेश किए जाते हैं। वो अक्सर ये हैं :
وَمَن يُشَاقِقِ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ ٱلۡهُدَىٰ وَيَتَّبِعۡ غَيۡرَ سَبِيلِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ نُوَلِّهِۦ مَا تَوَلَّىٰ وَنُصۡلِهِۦ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا
जो शख़्स बावजूद राहे हिदायत के वाजेह हो जाने के बाद भी रसूल के ख़िलाफ़ करे और तमाम मोमिनों की राह छोड़कर चले, हम उसे उधर ही मुतवज्जा कर देंगे जिधर वो ख़ुद मुतवज्जा हो और दोज़ख़ में डाल देंगे, वो पहुंचने की बहुत ही बुरी जगह है (अन्निसा-115)
أمتي لا تجتمع علی الخطأ (ابن ماجہ(
मेरी उम्मत ग़लती पर जमा नहीं होगी (इब्ने माजा)
أمتي لا تجتمع علی ضلالۃ (ابن ماجہ(
मेरी उम्मत गुमराही पर इकट्ठी नहीं होगी (इब्ने माजा)
من فارق الجماعۃ شبرا فمات إلا مات میتۃ جاہلیۃ ‘‘(البخاري(
जो जमात से बाल बराबर भी अलैहदा हुआ वो जाहिलियत की मौत मरा (बुख़ारी)
आयत के बारे में इन का कहना है कि यहां उन लोगों के लिए अल्लाह سبحانه وتعال की वईद है जो मोमिनों की राह को छोड़कर किसी दूसरी राह की इत्तिबा करते हैं। अगर ये हराम ना होता तो इस पर वईद ना होती, और चूँकि ये हराम है लिहाज़ा मोमिनों की राह इख़्तियार करना वाजिब ठहरा और यहां से उम्मत का इजमाअ बहैसीयत दलील साबित हुआ।
इस का जवाब ये है कि अगरचे ये नस अपने सबूत में क़तई है मगर अपनी दलालत में ज़न्नी है और इसलिए ये ज़न्नी है, चुनांचे ये उसूल में दलील की हैसियत नहीं रखती क्योंकि उसूल की दलील का क़तई होना लाज़िम है। इस के अलावा आयत में الھدی से मुराद अल्लाह سبحانه وتعال की वहदानियत और मुहम्मद ﷺकी नबुव्वत है यानी तौहीद ना कि हुक्मे शरई, क्योंकि उसूले दीन में الھدی (हिदायत ) الضلال (गुमराही ) की ज़िद है । अलबत्ता फुरूआत में इस का इत्तिबा ना करना फ़िस्क़ है ना कि गुमराही यानी इस पर हिदायत का इतलाक़ नहीं होगा। यहां मोमिनों की राह से मुराद तौहीद है जिसे इख़्तियार करना लाज़िम है जबकि मुबाहात में ये लाज़िम नहीं आता। और आयत का सबबे नुज़ूल इस बात को वाजेह कर देता है क्योंकि ये आयत एक शख़्स के इर्तिदाद के सिलसिले में नाज़िल हुई थी, जिस से इस बात की ताईद होती है । अगर ये कहा जाये कि क़ायदा है : العبرہ بعموم اللفظ لا بخصوص السبب (लफ़्ज़ के उमूम का ऐतबार होगा ना इस के ख़ास सबबे नुज़ूल का) तो इस का जवाब ये दिया जाएगा कि ये क़ायदा सर आँखों पर मगर ये अपने मौज़ूअ तक ही महदूद रहता है, इस का इतलाक़ दूसरे मौज़ूआत पर नहीं किया जा सकता। यहां आयत का सबबे नुज़ूल इस के मौज़ूअ को ताय्युन कररहा है यानी इर्तिदाद, दूसरे लफ़्ज़ों में यहां ईमान-व-कुफ्र की बात हो रही है ।
पस चूँकि आयत का मौज़ूअ इर्तिदाद के लिए ख़ास है, इसलिए ये मोमिनों की राह में हर चीज़ के बारे में आम नहीं है। और किसी बात की नही उसकी ज़िद पर अम्र मुराद नहीं होता। यानी किसी बात की तहरीम ये साबित नहीं करती कि उसकी ज़िद का क़ियाम वाजिब है, क्योंकि अम्र व नही पर दलालत, लुगवी दलालत हुआ करती है ना अक़्ली-व-मंतक़ी । पस जैसे किसी बात की नही उसकी ज़िद को वाजिब क़रार नहीं देती, इसी तरह किसी बात के अम्र से उसकी ज़िद पर नही लाज़िम नहीं आती। चुनांचे यहां मोमिनों की राह के अलावा इत्तिबा की नही से, मोमिनों की राह के इत्तिबा का अम्र (हुक्म) साबित नहीं हो रहा, बल्कि इस इत्तिबा के वाजिब होने के लिए कोई ऐसी नस दरकार है, जो अम्र पर दलालत करे ।
जहां तक अहादीस का ताअल्लुक़ है तो ये सारी आहाद हैं यानी ज़न्नी और इसलिए इस मौज़ूअ में इन का इस्तिमाल सही ना होगा। ये कहना सही नहीं कि इस मौज़ूअ पर कसीर अहादीस मौजूद हैं लिहाज़ा ये अपने मौज़ूअ के ऐतबार से मुतवातिर हैं, क्योंकि अखबार-ए-आहाद की जमा किसी हदीस को मुतवातिर के दर्जे तक नहीं पहुंचाती। अलावा अज़ीं पहली हदीस अपनी सनद में ज़ईफ़ है । दूसरी हदीस में ज़लालৃत से मुराद गुमराही है यानी कुफ्र। दूसरे लफ़्ज़ों में इन नुसूस से मुराद ये है कि पूरी उम्मत मजमूई तौर पर इस्लाम को तर्क नहीं करेगी, यानी मजमूई इर्तिदाद से अल्लाह سبحانه وتعال उसकी हिफ़ाज़त करेगा, ये इज्मा ए उम्मत के लिए कोई दलील नहीं है। ये नुसूस हर्गिज उम्मत की इस्मत पर दलालत नहीं कर रहे, यानी इस बात पर कि उम्मत किसी ग़लती पर इकट्ठी नहीं हो सकती बल्कि उन की सना-व-मदह कर रहे हैं। अलबत्ता ऐसे नुसूस भी हैं जो उनसे मुआरिज़ हैं और जो उम्मत की मज़म्मत करते हैं, मसलन :
ثم یفشو الکذب حتی یحلف الرجل ولا
یستحلف ویشھد الشاھد ولا یستشھد ( الترمذي(
फिर झूट ग़ालिब हो जाएगा और लोग हलफ़ उठाएंगे अगरचे उनसे ये तलब ना किया गया हो और गवाही देंगे अगरचे उनसे ना पूछा गया हो (तिर्जिमी)
उसकी रोशनी में उम्मत की इस्मत का कैसे दावा किया जा सकता है ? तीसरी हदीस मुसलमानों की जमात से अलैहदा होने को मना कर रही है, ये मौज़ूअ वही है जिसे अल्लाह سبحانه وتعال ने यूं फ़रमाया : (ولا تفرقوا) (और तफ़र्रुक़ा मत करो)। इस मौज़ूअ का इज्मा ए उम्मत से कोई ताअल्लुक़ नहीं, ये नुसूस मुसलमानों को उम्मत से अलैहदा होने से रोक रहे हैं, चुनांचे ये मौज़ू के लिए इस्तिदलाल का महल नहीं। ख़ुलासा ये है कि उम्मत का एक हराम अमल पर या फ़र्ज़ की कोताही पर इकट्ठा होना मुम्किन है। हक़ीक़त से ये बात ज़ाहिर क्योंकि उम्मत ने 1924 ई0 से लेकर अब तक क़यामे खिलाफत की फ़र्ज़ीयत से कोताही की है, और ये कई दहाईयों से अपने ऊपर कुफ्रिया निज़ामों को कुबूल कर रही है। लिहाज़ा इज्मा ए उम्मत दलील की हैसियत नहीं रखता।
इजमा अहले बैअत
इन का कहना है कि अहले बैअत से मुराद हज़रत अली رضي الله عنه और हज़रत फातिमा رضي الله عنها और उन की औलाद है, और ये कि इन्हीं का इजमाअ दलील की हैसियत रखता है । इस के ये दलायल अक्सर पेश किए जाते हैं:
إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُذۡهِبَ عَنڪُمُ ٱلرِّجۡسَ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِ وَيُطَهِّرَكُمۡ تَطۡهِيرً۬ا
अल्लाह سبحانه وتعال यही चाहता है कि तुम से वो हर किस्म की गंदगी को दूर कर दे और तुम्हें ख़ूब पाक कर दे (अल अहज़ाब-33)
اللھم ھؤلاء أھل بیتي (الترمذي(
ऐ अल्लाह ये (आले अली और फ़ातिमा) मेरे अहले ख़ाना हैं (तिर्जीमी)
إني قد ترکت فیکم ما إن أخذتم بہ لن تضلوا کتاب اللّٰہ وعترتي أھل البیتي (الترمذي(
बेशक मैंने अपने पीछे जो छोड़ा है अगर तुम उसे थाम लोगे तो कभी गुमराह ना होगे, अल्लाह की किताब और मेरा ख़ानदान, मेरे अहले ख़ाना (तिरमिज़ी)
इन का कहना है कि आयत में अल्लाह سبحانه وتعال ने अहले बैअत से الرجس (गंदगी) की नफ़ी की है और चूँकि ख़ता الرجس है, इसलिए यहां ग़लती की नफ़ी मुराद है यानी इस्मत लाज़िम आती है, लिहाज़ा अहले बैअत का इजमा हुज्जत है। और यहां إِنَّمَا हसर के लिए है जो इस बात की दलील है कि फ़क़त अहले बैअत का इजमा ही मक़बूल है।
इस का जवाब ये है कि पहली नस अपनी दलालत में ज़न्नी है, इसीलिए उसकी तफ़सीरात में इख़्तिलाफ है जबकि अहादीस ख़बरे आहाद होने की वजह से अपने सबूत में ज़न्नी हैं, इसलिए ये दलायल उसूल में हुज्जत नहीं हो सकते । अलावा अज़ीं यहां الرجس से मुराद गंदगी है और ये गंदगी माअनवी ऐतबार से है यानी रेबत और तहमत। आयत से मुराद ये है कि अहले बैअत से रेबत और तोहमत दूर कर दी गई है। इस लफ़्ज़ का यही मतलब कई आयात से साबित है, मसलन:
فَٱجۡتَنِبُواْ ٱلرِّجۡسَ مِنَ ٱلۡأَوۡثَـٰنِ
पस बुतों की गंदगी से बचो (अल हज्ज-30)
فَٱجۡتَنِبُواْ ٱلرِّجۡسَ مِنَ ٱلۡأَوۡثَـٰنِ
शराब और जुआँ और बुत और पांसे (ये सब) गंदे काम आमाले शैतान से हैं (अल माईदा-90)
लिहाज़ा الرجس का दूर होने का मतलब ग़लती का दूर होना हरगिज़ नहीं है क्योंकि ग़लती الرجس में शामिल ही नहीं । उसकी वजह ये है कि इज्तिहाद में ग़लती बाइसे सवाब है, तो ये गंदगी कैसे हो सकती है ? रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का फ़रमान है:
إذا حکم الحاکم فاجتھد ثم أصاب فلہ أجران
و إذا حکم فاجتھد ثم أخطأ فلہ أجر ‘‘(متفق علیہ(
जब क़ाज़ी का इज्तिहाद उसे सही नतीजे तक पहुंचाए तो इस के दो सवाब होंगे और जब उसका इज्तिहाद उसे ग़लत नतीजे तक पहुंचाए तो इस का एक सवाब होगा (मुत्तफिक़ अलैहि)
ये इस बात की दलील है कि यहां अहले बैअत के الرجس की नफ़ी से ग़लती की नफ़ी मुराद नहीं है। और (إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ) में إِنَّمَا हसर के लिए नहीं है, यानी इस का मतलब ये नहीं लिया जाएगा कि अहले बैअत के अलावा किसी और के लिए الرجس की नफ़ी नहीं हो सकती। ये इसलिए क्योंकि लफ़्ज़ إِنَّمَا अगरचे हसर और ताकीद, दोनों के लिए इस्तिमाल होता है लेकिन इस का मफहूमे मुख़ालिफा नहीं लिया जाता । अलावा अज़ीं ये आयत अज़्वाजे मुताहिरात के लिए नाज़िल हुई थी जो इस के सियाक़ से ज़ाहिर है :
ऐ नबी की बीवीयो! तमाम औरतों की तरह नहीं हो, अगर तुम परहेज़गारी इख़्तियार करो तो नर्म लहजे से बात ना करो कि जिस के दिल में रोग हो वह कोई बुरा ख़्याल करे और हाँ क़ाईदे के मुताबिक़ कलाम करो, और अपने घरों में क़रार से रहो और क़दीम जाहिलियत के ज़माने की तरह अपने बनाओ का इज़हार ना करो और नमाज़ अदा करती रहो और ज़कात देती रहो और अल्लाह और उस के रसूल की इताअत गुज़ारी करो, अल्लाह यही चाहता है कि ऐ नबी की घरवालियो! तुम से वो हर किस्म की गंदगी को दूर कर दे और तुम्हें ख़ूब पाक कर दे,और तुम्हारे घरों में जो अल्लाह की आयतें और रसूल की जो अहादीस पढ़ी जाती हैं उन का ज़िक्र करती रहो, यक़ीनन अल्लाह लुत्फ करने वाला ख़बरदार है (हवाला गलत दे रखा है)
यहां یٰنسآء النبی से ये बात वाजेह हो जाती है कि यहां अज़्वाजे मुताहिरात को अहले बैअत से मौसूम किया गया है ।
जहां तक पहली हदीस का ताअल्लुक़ है तो इस से अज़्वाजे मुताहिरात का अहले बैअत होने की नफ़ी नहीं साबित होती क्योंकि आयत में أھل कलिमा आम है, उसे हज़रत अली رضي الله عنه और हज़रत फ़ातिमा رضي الله عنها और उन की औलाद से ख़ास नहीं किया जा सकता। और हदीस में है :
ومن أھل بیتہ یا زید؟ الیس نساؤہ من أھل بیتہ؟ قال نساؤہ
من أھل بیتہ ولکن أھل بیتہ من حرم الصدقۃ بعدہ قال ومن ھم ؟
قال: ھم آل علي و آل عقیل و آل جعفر و آل عباس
قال: کل ھؤلاء حرم الصدقۃ ؟ قال: نعم ‘‘(مسلم(
और आप صلى الله عليه وسلم के अहले ख़ाना कौन हैं ऐ जै़द ? क्या आप صلى الله عليه وسلم की औरतें आप के अहले ख़ाना में से नहीं ?
जहां तक तीसरी हदीस का ताअल्लुक़ है तो फ़क़त इस से अहले बैअत का इजमाअ साबित नहीं होता क्योंकि फ़क़त किसी की सना व मदह से या किसी की इक़्तिदा की ताकीद से इस का शरई दलील होना लाज़िम नहीं आता। मसला:
اقتدوا بالذین من بعدي ابي بکر و عمر (الترمذي(
मेरे बाद जो हैं उन की पैरवी करो, अबु बक्र और उमर (तिर्मिजी)
فعلیکم بسنتي وسنۃ الخلفاء الراشدین المھدیین عضوا علیھا بالنواجذ (الدارمي(
मेरी सुन्नत को (मज़बूती) से थामो और ख़ुलफ़ाए राशिदीन महदिय्यीन की सुन्नत को, उसे अपने दाँतों से पकड़ो (अद्दारमी)
इस बात से उनका इजमाअ साबित नहीं होता, यानी ये शरई दलील क़रार देने के लिए काफ़ी नहीं है। मिसाल के तौर पर ख़लीफ़ा उमर बिन अब्दुल अजीज भी खल़िफ़ा-ए-राशिदीन में से हैं लेकिन क्या इस सना-व-ताकीद की वजह से वो शरई दलील होने की हैसियत
इख़्तियार कर लेंगे ? ये ग़लत है! चुनांचे इज्माअ ए अहले बैअत शरई दलील की हैसियत नहीं रखता।
क़ौले सहाबी
इन का कहना है कि जब आयत में सब सहाबा को मजमूई तौर पर सराहा गया है तो फ़र्दन फ़र्दन हर सहाबी के लिए भी ये मूजिब ठहरा। और हदीस में है :
اصحابي کالنجوم بأیھم اقتدیتم اھتدیتم (رزین(
मेरे सहाबा सितारों की तरह हैं जिस किसी की भी इक़्तिदा करोगे तो हिदायत पकड़ोगे (राज़िन)
ये कहना ग़लत है कि जब सब सहाबा की मजमूई तौर पर मदह की गई तो ये हर सहाबी के लिए इन्फ़िरादी तौर पर भी लाज़िम हुई। ये इसलिए क्योंकि आयत में सहाबा को एक गिरोह की हैसियत से सराहा गया है ना इन्फ़िरादी हैसियत से, क्योंकि आयत में सैग़ा ऐ जमा का इस्तिमाल हुआ है : (ٱتَّبَعُوهُم- अत्तोबा:100)। अलावा अज़ीं ये पहले भी बताया जा चुका है कि फ़क़त मदह से किसी को एक शरई दलील होने का रुतबा हासिल नहीं होता। जहां तक इज्मा ए सहाबा की बात है तो ये इस आयत में मुतलकन मदह और उनके क़ुरआन पर इजमाअ, दोनों से साबित है । क़ुरआन हम तक इजमाअ सहाबा की बदौलत तवातुर के साथ पहुंचा है ना कि एक सहाबी के क़ौल की रिवायत के ज़रीये, जो ख़बरे वाहिद है। अलावा अज़ीं सहाबा किराम رضی اللہ عنھم का बेशुमार मसाइल में आपस में इख़्तिलाफ रहा है, इन में से हर एक अपने इज्तिहाद की पैरवी करते थे, जो दूसरे सहाबिया के इज्तिहाद के मुतज़ाद होता। अगर मज़हबे सहाबी को एक शरई माख़ज़ मान लिया जाये तो अल्लाह سبحانه وتعال के दलायल में तज़ाद लाज़िम आएगा और ये अम्र (काम) मुहाल है, इसलिए क़ौले सहाबी शरई दलील नहीं हो सकता ।
शराए मा क़ब्ल
शराए मा क़ब्ल के क़ाइलीन ये दलायल पेश करते हैं :
إِنَّآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ كَمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ نُوحٍ۬ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ مِنۢ بَعۡدِهِۦۚ
यक़ीनन हम ने आप की तरफ़ उसी तरह वह्यी की है जैसे कि नूह और उनके बाद वाले नबियों की तरफ़ की (अन्निसा-163)
شَرَعَ لَكُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا وَصَّىٰ بِهِۦ نُوحً۬ا
अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन मुक़र्रर कर दिया जिस के क़ायम करने का उस ने नूह को हुक्म दिया था (अश्शूरा-13)
ثُمَّ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ أَنِ ٱتَّبِعۡ مِلَّةَ إِبۡرَٲهِيمَ حَنِيفً۬اۖ
फिर हम ने आप की जानिब वह्यी भेजी कि आप मिल्लते इब्राहीम हनीफ़ की पैरवी करें (अल नहल-123))
इन दलायल की बुनियाद पर इन का दावा है कि ये आयात मुसलमानों से मुख़ातिब हैं कि वो शराए मा क़ब्ल की पैरवी करें। इन का कहना कि अल्लाह سبحانه وتعال ने हमें हुक्म दिया है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जो हम तक पहुंचाया है, हम इसे इख़्तियार करें, सिवाए इस के जो आप صلى الله عليه وسلم के लिए ख़ास है या मंसूख़ हो चुका है। इस बुनियाद पर ये कहते हैं कि मुसलमान शराए मा क़ब्ल से मुख़ातिब हैं क्योंकि इस के बारे में क़ुरआनी आयात में ना कोई तख़सीस है और ना ही नस्ख़।
आयात से ये नतीजा निकालना ग़लत है क्योंकि पहली आयत से बस ये मुराद है कि अल्लाह سبحانه وتعال ने मुहम्मद पर इसी तरह वह्यी उतारी जैसे उस ने नूह अलैहिस्सलाम पर उतारी थी। दूसरी आयत का मतलब ये है कि मुहम्मद को वही अक़ीदा ऐ तौहीद नाज़िल किया गया है जो नूह को किया गया था और तीसरी आयत में मुहम्मद को तौहीद की पैरवी करने का हुक्म दिया गया है क्योंकि लफ़्ज़ (مِلَّةَ) से तौहीद मुराद है। यानी वो तौहीद जो दीन की बुनियाद है और जिस में तमाम रसुल और अंबिया मुश्तरक थे। इस से शरीयत मुराद नहीं है जो हर पैग़ाम के साथ (नई) आई है। मुंदरजा ज़ैल आयत इस बात की क़तई दलील है कि हर क़ौम को अल्लाह سبحانه وتعال ने मुख़्तलिफ़ शराए भेजी हैं :
لِكُلٍّ۬ جَعَلۡنَا مِنكُمۡ شِرۡعَةً۬ وَمِنۡهَاجً۬اۚ
तुम में से हर एक को हम ने एक शरीयत नाज़िल की और एक राह (अल माईदा-48)
इस के अलावा हमें शराए मा क़ब्ल की पैरवी से मना किया गया है जिस के कई दलायल हैं:
وَمَن يَبۡتَغِ غَيۡرَ ٱلۡإِسۡلَـٰمِ دِينً۬ا فَلَن يُقۡبَلَ مِنۡهُ وَهُوَ فِى ٱلۡأَخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَـٰسِرِينَ
जो शख़्स इस्लाम के सिवा और दीन तलाश करे उस का दीन क़बूल ना किया जाएगा और वो आख़िरत में नुक़्सान पाने वालों में होगा (आले इमरान-85)
إِنَّ ٱلدِّينَ عِندَ ٱللَّهِ ٱلۡإِسۡلَـٰمُۗ
बेशक अल्लाह के नज़दीक दीन इस्लाम ही है (आले इमरान-19)
इन आयतों में अल्लाह سبحانه وتعال ने ये सराहतन ये बयान कर दिया है कि वो सिर्फ़ इस्लाम को बतौरे दीन क़बूल करेगा और इस्लाम इस पैग़ाम का नाम है जो मुहम्मद, अल्लाह की तरफ़ से, लेकर आए । तो अल्लाह سبحانه وتعال भला कैसे मुसलमानों को इन अदयान-ओ-शराए की पैरवी करने का हुक्म दे सकता है ? इस के अलावा अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है :
यहां مُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ से मुराद उन की तस्दीक़ नहीं हो सकता क्योंकि ये पहले से आ चुका है (مُصَدِّقً۬ا)। इस का मतलब है कि क़ुरआन ने साबिक़ा किताबों को मंसूख़ कर दिया है। इस अम्र पर इज्मा ए सहाबा भी है कि इस्लामी अहकाम साबिक़ा अहकाम (शराए मा क़ब्ल) के नासिख़ हैं । और अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:
यहां अल्लाह سبحانه وتعال बता रहा है कि मुसलमानों से साबिक़ा अंबिया के आमाल के बारे में पूछ नहीं होगी, इसके बावजूद कि अंबिया का काम ये होता है कि वो अपने पैग़ाम की तब्लीग़ करें और इस पर अमल भी किया जाये। चुनांचे मुसलमान उनके ख़िताब यानी शराए से मुख़ातिब ही नहीं और इस के नतीजे में ना उन की पैरवी के। अलबत्ता उन पर ईमान लाना लाज़िम है यानी उनकी नुबुव्वत व रिसालत और उनकी किताबों की तस्दीक़ करना, क्योंकि क़ुरआन में इन का ज़िक्र है। मगर इस का मतलब उन की ताबेअदारी नहीं है क्योंकि साबिक़ा अंबिया मुसलमानों के लिए नहीं भेजे गए, बल्कि अपनी अपनी क़ौमों के लिए :
ये आयात इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि शराए मा क़ब्ल हमारे लिए शरई माख़ज़ नहीं है। जहां तक इस बात का ताअल्लुक़ है कि मुहम्मद ﷺ ने साबिक़ा क़ौमों और अंबिया के क़िस्से उम्मत को बताए, तो ये फ़क़त उनसे अख़लाक़ी सबक़ हासिल करने के लिए है, ना उनकेअहकाम की पैरवी के लिए । इस के अलावा साबिक़ा शराए के कई अहकाम हमारी शरीयत से तज़ाद रखते हैं, अगर ये ख़िताब मुसलमानों के लिए तसव्वुर किया जाये, तो इस का मतलब ये होगा कि वो दो मुख़्तलिफ़ शराए से मुख़ातिब किए गए हैं और ये अम्र मुहाल है। मसलन:
इस्लाम में ऐसा नहीं है बल्कि क़िसास व दियत के मख़सूस अहकाम हैं। चूँकि साबिक़ा अहकाम इस्लामी अहकाम से मुतज़ाद हैं, इसलिए इन का मुसलमानों से मुख़ातिब होना मुहाल है।
ये ना कहा जाये कि वो अहकाम जो इस्लामी अहकाम के मुतज़ाद हैं, उन को इस्लामी अहकाम ने मंसूख़ कर दिया है जबकि बाक़ी साबिक़ा अहकाम की पैरवी हम पर लाज़िम है। उसकी वजह ये है कि इस्लामी अहकाम, साबिक़ा अहकाम के एक एक की मंसूख़ी के लिए नहीं आए बल्कि ये पूरी इंसानियत के लिए एक मुकम्मल शरीयत की हैसियत से आए हैं, ये शरीयत तमाम साबिक़ा शराए को मजमूई तौर पर मंसूख़ करती है। इस का साबिक़ा शराए से कोई ताल्लुक़ नहीं है ।
अलावा अज़ीं नस्ख़ का मानी एक मौजूदा मंसूस हुक्म को एक नए नस से ज़ाइल करना है क्योंकि नस्ख़ की तारीफ़ ये की गई है :
चुनांचे नस्ख़ में ये ज़रूरी है कि मंसूख़ हुक्म नए हुक्म से पहले नाज़िल हुआ हो और नई नस में इस बात की कोई दलील मौजूद हो, जो ये बताए कि इस हुक्म ने पुराने हुक्म को ज़ाइल कर दिया है । ये दलील लफ्ज़े नस्ख़, नासिख़ या मंसूख़ का इस्तिमाल हो सकता है, या तारीख़ हो सकती है या फिर बज़ाते ख़ुद नस में कोई दलील। अगर ये दोनों शराइत पूरी नहीं होतीं तो नस्ख़ का कोई वुजूद नहीं है। नुसूस में फ़क़त इख़्तिलाफ-व-तज़ाद से नस्ख़ साबित नहीं होता।
मिसाल :
यहां दूसरी आयत का हुक्म पहली आयत के हुक्म को मंसूख़ कर रहा है और उसकी दलील दूसरी आयत का ये हिस्सा है (ٱلۡـَٔـٰنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ) (अच्छा अब अल्लाह तुम्हारा बोझ हल्का करता है)। ये इस बात की दलील है कि इस से पहले कोई दूसरा हुक्म था जो इस से क़ब्ल नाज़िल हुआ, अलबत्ता अब ये नया हुक्म साबिक़ा को मंसूख़ कर रहा है।
इस मुख़्तसर बयान से ये वाजेह हो जाता है कि साबिक़ा अहकाम का फ़क़त इस्लामी अहकाम से मुख़्तलिफ़ या मुतज़ाद होना नस्ख़ क़रार देने के लिए काफ़ी नहीं है, जब तक ऐसी कोई दलील मौजूद ना हो । चुनांचे शरियते इस्लामी ने साबिक़ा अहकाम को एक एक कर के नहीं, बल्कि मजमूई तौर पर मंसूख़ किया है बदलील मज़कूरा।
अलबत्ता अगर किसी नस में साबिक़ा शराए में से किसी हुक्म का ज़िक्र हो, मगर इस में मुसलमानों से मुख़ातिब होने का कोई इशारा यानी कोई क़रीना पाया जाये तो ये हुक्म शरियते इस्लामी का हुक्म क़रार पायगा और इस्लामी शरीयत का एक हुक्म होने की हैसियत से इस का इत्तिबाअ होगा, ना इस हैसियत से कि ये साबिक़ा शराए का हुक्म है।
पहली मिसाल :
इस के बावजूद कि ये आयत उलमाइ यहूद-व-नसारा के आमाल का तज़किरा कर रही है, इस में जो हुक्म मज़कूर है, यानी माल का ख़ज़ाना करने की तहरीम, वो शरियते इस्लामी में से है क्योंकि سبحانه وتعال ने आग़ाज़ (يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ) से किया है ।
दूसरी मिसाल :
अगरचे इस आयत का सियाक़ यहूदियों के बारे में है, मगर इस में मज़कूर हुक्म शरियते इस्लामी में से है क्योंकि आयत में हर्फ़-ए-आम (مَن)(जो कोई) मौजूद है जो मुसलमानों को भी शामिल है । चुनांचे अल्लाह سبحانه وتعال के अहकाम-व-क़वानीन के अलावा किसी और चीज़ के मुताबिक़ हुकूमत या फ़ैसला करना हराम है। लिहाज़ा शराए मा क़ब्ल हमारे लिए शरई दलील-व-माख़ज़ नहीं है।
इस्तिहसान :
इस्तिहसान की तारीफ़ें ये बताई गई हैं: एक ऐसी दलील जो यकदम मुज्तहिद के ज़हन में दाख़िल हो मगर वो उसे बयान करने से क़ासिर हो। इज्तिहाद में एक ज़्यादा क़वी दलील या ज़रूरत की वजह से कियास-ए-जली से कयास-ए-ख़फ़ी की तरफ़ मुंतक़िल होना।
पहली मिसाल :
एक शख़्स ने दो बंदों से एक गाड़ी ख़रीदी जिस के वो दोनों मालिक थे । उनका मुआहिदा इस बात पर होता है कि वो इस क़ीमत की अदायगी बाद में करेगा । कुछ अर्से बाद ख़रीददार इन में से एक को ही पूरी क़ीमत अदा कर देता है, मगर इन पैसों का कब्ज़े में आने के बाद और दूसरे को इस का हिस्सा मिलने से क़ब्ल, नुक़्सान हो जाता है । इस्तिहसान की रु से इस नुक़्सान की तलाफ़ी सिर्फ़ वो शख़्स करेगा जिस ने क़ीमत वसूल की क्योंकि अगर वो चाहता तो ख़रीददार से कह सकता था कि वो ख़ुद दूसरे को इस का हिस्सा दे दे, मगर उस ने ऐसा नहीं किया ।
तीसरी मिसाल :
कोई शख़्स एक दुकानदार दर्ज़ी को कपड़ा देता है ताकि वो इस के लिए एक क़मीस सीए । बाद में इस कपड़े को, बगै़र दर्ज़ी की कोताही के, कोई नुक़्सान पहुंचता है । इस्तिहसान की रु से उसकी तलाफ़ी दर्ज़ी को करना होगी क्योंकि उसे चाहिए कि वो ग्राहकों से इतना ही कपड़ा ले, जितना वो महफ़ूज़ रख सके वर्ना वो ख्वाह मख्वाह चाहे लोगों की मिल्कियत को बर्बाद करने का बाइस बनेगा।
इस सरीह आयत के बावजूद बाअज़ ने बुलंद मरतबे की औरतों के लिए सिरे से दूध ना पिलाने की छूट दी है, और ये इस्तिहसान की बुनियाद पर किया गया है । ये तख़सीस बिला दलील है चुनांचे हुक्म के उमूम पर अमल लाज़िम है, यानी दो साल दूध पिलाने का हुक्म सब माओं के लिए है क़ताअ नज़र रुतबे के क्योंकि : (حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِ) (दो साल कामिल )।
दूसरी मिसाल में गाड़ी दोनों की मिल्कियत है जिसे वो बेचना चाहते हैं, चुनांचे ये एक शिराकत (partnership) है। इसलिए जो रक़म इन में से एक ने ख़रीददार से वसूल की, वो इस ने इन्फ़िरादी हैसियत से हासिल नहीं की बल्कि एक शिराकत में शरीक की हैसियत से। यानी ये वसूली कंपनी ने की है ना एक फ़र्दे वाहिद ने और इसीलिए, शराअ के मुताबिक़, नुक़्सान भी कंपनी ही को उठाना पड़ेगा । दूसरे लफ़्ज़ों में जिस ने वसूली नहीं की उसे बराबर का नुक़्सान उठाना पड़ेगा ।
तीसरी मिसाल में दर्ज़ी पर कपड़ों की ज़िम्मेदारी डाल देना, इस हदीस के ख़िलाफ़ है जिस में सराहतन इस बात की नही है:
मज़कूरा मिसालों से ये ज़ाहिर है कि इस्तिहसान अक़्ली तावीलों के सिवा और कुछ नहीं है और जिस के शराअ में क़तई दलायल तो क्या ज़न्नी दलायल भी नहीं मिलते!! याद रहे कि लफ्ज़े इस्तिहसान हसन (अच्छा ) से मुश्तक़ है जो शरई नुसूस में अपने लुगवी मानी में मज़कूर है ना इस्तिलाही। इस्तिहसान में अक़्ल को शराअ पर तर्जीह दी गई है, इसलिए उसकी कोई हैसियत नहीं है क्योंकि इस में अक़्ल मस्लिहत का ताअय्युन करती है ना कि शराअ। इसी तरह इस्तिहसान की (इस्तिलाही) तारीफ़ें भी बातिल हैं क्योंकि ये कहना कि मुज्तहिद के ज़हन में कोई दलील दाख़िल हो मगर वो उसे लफ़्ज़ों में बयान नहीं कर सकता, ये एक ऐसा शरई माख़ज़ कैसा हो सकता है जिस की बुनियाद पर मुसलमान अपनी ज़िंदगी बसर करे! ये तो कोई ख़्याल ही हो सकता है कोई दलील हर्गिज नहीं !! इस के अलावा कयास-ए-जली को छोड़कर ऐसे कियास-ए-ख़फ़ी को इख़्तियार करना जो एक ज़्यादा क़वी दलील पर मबनी हो, इस का क्या मतलब है ? अगर तो इस से मुराद क़ियास को छोड़कर क़ुरआन-व-सुन्नत की किसी नस का ऐतबार करना है, तो उसे इस्तिहसान नहीं कहा जाएगा बल्कि ये तो क़ुरआन-व-सुन्नत के दलायल होंगे और अगर इस से ये मुराद है कि किसी शरई इल्लत वाले क़ियास को तर्क कर के किसी अक़्ली इल्लत पर मबनी क़ियास की तरफ़ रुजूअ किया जाये, तो ये मुस्तरद है !! क्योंकि जैसे पहले भी बताया गया है कि शराअ में फ़क़त वह्यी क़ियास मोतबर है जिस की कोई शरई इल्लत मौजूद हो, वर्ना उसकी कोई हैसियत नहीं। चुनांचे इस्तिहसान की तरदीद, इस के बला दलील होने की वजह से साबित है ।
وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَـٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقً۬ا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلۡڪِتَـٰبِ
وَمُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ
और हम ने आप की तरफ़ हक़ के साथ ये किताब नाज़िल फ़रमाई है जो अपने से अगली किताबों की तस्दीक़ करने वाली है और उन पर हावी है (अल माईदा-48)
यहां مُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ से मुराद उन की तस्दीक़ नहीं हो सकता क्योंकि ये पहले से आ चुका है (مُصَدِّقً۬ا)। इस का मतलब है कि क़ुरआन ने साबिक़ा किताबों को मंसूख़ कर दिया है। इस अम्र पर इज्मा ए सहाबा भी है कि इस्लामी अहकाम साबिक़ा अहकाम (शराए मा क़ब्ल) के नासिख़ हैं । और अल्लाह سبحانه وتعال का फ़रमान है:
أَمۡ كُنتُمۡ شُہَدَآءَ إِذۡ حَضَرَ يَعۡقُوبَ ٱلۡمَوۡتُ إِذۡ قَالَ لِبَنِيهِ مَا تَعۡبُدُونَ مِنۢ بَعۡدِى قَالُواْ نَعۡبُدُ إِلَـٰهَكَ وَإِلَـٰهَ ءَابَآٮِٕكَ إِبۡرَٲهِـۧمَ وَإِسۡمَـٰعِيلَ وَإِسۡحَـٰقَ إِلَـٰهً۬ا
وَٲحِدً۬ا وَنَحۡنُ لَهُ ۥ مُسۡلِمُونَ ( ١٣٣ ) تِلۡكَ أُمَّةٌ۬ قَدۡ خَلَتۡۖ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَلَكُم مَّا كَسَبۡتُمۡۖ وَلَا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ
क्या याक़ूब अलैहिस्सलाम के इंतिक़ाल के वक़्त तुम मौजूद थे ? जब उन्होंने अपनी औलाद को कहा कि मेरे बाद तुम किस की इबादत करोगे? तो सब ने जवाब दिया कि आप के माबूद की और आप के आबा व अजदाद इब्राहिम अलैहिस्सलाम और इस्माईल अलैहिस्सलाम और इस्हाक़ अलैहिस्सलाम के माबूद की जो माबूद एक ही है और हम उसी के फ़रमांबर्दार रहेंगे, ये जमाअत तो गुज़र चुकी, जो उन्होंने किया वो उनके लिए है और जो तुम करोगे वो तुम्हारे लिए है उनके आअमाल के बारे में तुम नहीं पूछे जाओगे (अल बक़राह-133,134)
यहां अल्लाह سبحانه وتعال बता रहा है कि मुसलमानों से साबिक़ा अंबिया के आमाल के बारे में पूछ नहीं होगी, इसके बावजूद कि अंबिया का काम ये होता है कि वो अपने पैग़ाम की तब्लीग़ करें और इस पर अमल भी किया जाये। चुनांचे मुसलमान उनके ख़िताब यानी शराए से मुख़ातिब ही नहीं और इस के नतीजे में ना उन की पैरवी के। अलबत्ता उन पर ईमान लाना लाज़िम है यानी उनकी नुबुव्वत व रिसालत और उनकी किताबों की तस्दीक़ करना, क्योंकि क़ुरआन में इन का ज़िक्र है। मगर इस का मतलब उन की ताबेअदारी नहीं है क्योंकि साबिक़ा अंबिया मुसलमानों के लिए नहीं भेजे गए, बल्कि अपनी अपनी क़ौमों के लिए :
وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَـٰلِحً۬اۚ
और क़ौमे समूद की तरफ़ उनके भाई सालेह को भेजा (हूद -61)
وَإِلَىٰ عَادٍ أَخَاهُمۡ هُودً۬اۗ
और हम ने क़ौमे आद की तरफ़ उनके भाई हूद को भेजा (अल आराफ-65)
وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبً۬اۗ
और हम ने मदयन की तरफ़ उन की भाई शुऐब को भेजा (अल आराफ-85)
ये आयात इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि शराए मा क़ब्ल हमारे लिए शरई माख़ज़ नहीं है। जहां तक इस बात का ताअल्लुक़ है कि मुहम्मद ﷺ ने साबिक़ा क़ौमों और अंबिया के क़िस्से उम्मत को बताए, तो ये फ़क़त उनसे अख़लाक़ी सबक़ हासिल करने के लिए है, ना उनकेअहकाम की पैरवी के लिए । इस के अलावा साबिक़ा शराए के कई अहकाम हमारी शरीयत से तज़ाद रखते हैं, अगर ये ख़िताब मुसलमानों के लिए तसव्वुर किया जाये, तो इस का मतलब ये होगा कि वो दो मुख़्तलिफ़ शराए से मुख़ातिब किए गए हैं और ये अम्र मुहाल है। मसलन:
وَكَتَبۡنَا عَلَيۡہِمۡ فِيہَآ أَنَّ ٱلنَّفۡسَ بِٱلنَّفۡسِ وَٱلۡعَيۡنَ بِٱلۡعَيۡنِ وَٱلۡأَنفَ بِٱلۡأَنفِ
وَٱلۡأُذُنَ بِٱلۡأُذُنِ وَٱلسِّنَّ بِٱلسِّنِّ
और हम ने यहूदीयों के ज़िम्मे तौरात में ये बात मुक़र्रर कर दी थी कि जान के बदले जान और आँख के बदले आँख और नाक के बदले नाक और कान के बदले कान और दाँत के बदले दाँत (अल माईदा-45)
इस्लाम में ऐसा नहीं है बल्कि क़िसास व दियत के मख़सूस अहकाम हैं। चूँकि साबिक़ा अहकाम इस्लामी अहकाम से मुतज़ाद हैं, इसलिए इन का मुसलमानों से मुख़ातिब होना मुहाल है।
ये ना कहा जाये कि वो अहकाम जो इस्लामी अहकाम के मुतज़ाद हैं, उन को इस्लामी अहकाम ने मंसूख़ कर दिया है जबकि बाक़ी साबिक़ा अहकाम की पैरवी हम पर लाज़िम है। उसकी वजह ये है कि इस्लामी अहकाम, साबिक़ा अहकाम के एक एक की मंसूख़ी के लिए नहीं आए बल्कि ये पूरी इंसानियत के लिए एक मुकम्मल शरीयत की हैसियत से आए हैं, ये शरीयत तमाम साबिक़ा शराए को मजमूई तौर पर मंसूख़ करती है। इस का साबिक़ा शराए से कोई ताल्लुक़ नहीं है ।
अलावा अज़ीं नस्ख़ का मानी एक मौजूदा मंसूस हुक्म को एक नए नस से ज़ाइल करना है क्योंकि नस्ख़ की तारीफ़ ये की गई है :
خطاب الشارع المانع من استمرار ما ثبت من حکم خطاب شرعي سابق
(शारेअ का वो ख़िताब जो साबिक़ा ख़िताब से साबित शूदा हुक्म के इस्तिमरार के लिए मानेअ हो)।
चुनांचे नस्ख़ में ये ज़रूरी है कि मंसूख़ हुक्म नए हुक्म से पहले नाज़िल हुआ हो और नई नस में इस बात की कोई दलील मौजूद हो, जो ये बताए कि इस हुक्म ने पुराने हुक्म को ज़ाइल कर दिया है । ये दलील लफ्ज़े नस्ख़, नासिख़ या मंसूख़ का इस्तिमाल हो सकता है, या तारीख़ हो सकती है या फिर बज़ाते ख़ुद नस में कोई दलील। अगर ये दोनों शराइत पूरी नहीं होतीं तो नस्ख़ का कोई वुजूद नहीं है। नुसूस में फ़क़त इख़्तिलाफ-व-तज़ाद से नस्ख़ साबित नहीं होता।
मिसाल :
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّبِىُّ حَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَى ٱلۡقِتَالِۚ إِن يَكُن مِّنكُمۡ عِشۡرُونَ صَـٰبِرُونَ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِ
ऐ नबी! ईमान वालों को जिहाद का शौक़ दिलाओ, अगर तुम में से बीस भी सब्र करने वाले होंगे तो दो सौ पर ग़ालिब रहेंगे (अल अनफाल-65)
ٱلۡـَٔـٰنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ وَعَلِمَ أَنَّ فِيكُمۡ ضَعۡفً۬اۚ فَإِن يَكُن مِّنڪُم مِّاْئَةٌ۬ صَابِرَةٌ۬ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ
अच्छा अब अल्लाह तुम्हारा बोझ हल्का करता है वो ख़ूब जानता है तुम में नातवानी है पस अगर तुम में से एक सौ सब्र करने वाले होंगे तो दो सौ पर ग़ालिब रहेंगे (अल अनफाल-66)
यहां दूसरी आयत का हुक्म पहली आयत के हुक्म को मंसूख़ कर रहा है और उसकी दलील दूसरी आयत का ये हिस्सा है (ٱلۡـَٔـٰنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ) (अच्छा अब अल्लाह तुम्हारा बोझ हल्का करता है)। ये इस बात की दलील है कि इस से पहले कोई दूसरा हुक्म था जो इस से क़ब्ल नाज़िल हुआ, अलबत्ता अब ये नया हुक्म साबिक़ा को मंसूख़ कर रहा है।
इस मुख़्तसर बयान से ये वाजेह हो जाता है कि साबिक़ा अहकाम का फ़क़त इस्लामी अहकाम से मुख़्तलिफ़ या मुतज़ाद होना नस्ख़ क़रार देने के लिए काफ़ी नहीं है, जब तक ऐसी कोई दलील मौजूद ना हो । चुनांचे शरियते इस्लामी ने साबिक़ा अहकाम को एक एक कर के नहीं, बल्कि मजमूई तौर पर मंसूख़ किया है बदलील मज़कूरा।
अलबत्ता अगर किसी नस में साबिक़ा शराए में से किसी हुक्म का ज़िक्र हो, मगर इस में मुसलमानों से मुख़ातिब होने का कोई इशारा यानी कोई क़रीना पाया जाये तो ये हुक्म शरियते इस्लामी का हुक्म क़रार पायगा और इस्लामी शरीयत का एक हुक्म होने की हैसियत से इस का इत्तिबाअ होगा, ना इस हैसियत से कि ये साबिक़ा शराए का हुक्म है।
पहली मिसाल :
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ ڪَثِيرً۬ا مِّنَ ٱلۡأَحۡبَارِ وَٱلرُّهۡبَانِ لَيَأۡكُلُونَ أَمۡوَٲلَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡبَـٰطِلِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۗ وَٱلَّذِينَ يَكۡنِزُونَ ٱلذَّهَبَ وَٱلۡفِضَّةَ وَلَا يُنفِقُونَہَا فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ فَبَشِّرۡهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ۬
ऐ ईमान वालो! अक्सर उलमा यहूद-व-नसारा लोगों का माल खा जाते हैं और अल्लाह की राह से रोक देते हैं और जो लोग सोने चांदी का ख़ज़ाना रखते हैं और अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते उन्हें दर्दनाक अज़ाब की ख़बर पहुंचा दीजिए (अत्तौबा-34)
इस के बावजूद कि ये आयत उलमाइ यहूद-व-नसारा के आमाल का तज़किरा कर रही है, इस में जो हुक्म मज़कूर है, यानी माल का ख़ज़ाना करने की तहरीम, वो शरियते इस्लामी में से है क्योंकि سبحانه وتعال ने आग़ाज़ (يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ) से किया है ।
दूसरी मिसाल :
وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡكَـٰفِرُونَ
जिस किसी ने अल्लाह के नाज़िल कर्दा अहकाम के मुताबिक़ फ़ैसला नहीं किया तो यही लोग काफ़िर हैं (अल माईदा-44)
अगरचे इस आयत का सियाक़ यहूदियों के बारे में है, मगर इस में मज़कूर हुक्म शरियते इस्लामी में से है क्योंकि आयत में हर्फ़-ए-आम (مَن)(जो कोई) मौजूद है जो मुसलमानों को भी शामिल है । चुनांचे अल्लाह سبحانه وتعال के अहकाम-व-क़वानीन के अलावा किसी और चीज़ के मुताबिक़ हुकूमत या फ़ैसला करना हराम है। लिहाज़ा शराए मा क़ब्ल हमारे लिए शरई दलील-व-माख़ज़ नहीं है।
इस्तिहसान :
इस्तिहसान की तारीफ़ें ये बताई गई हैं: एक ऐसी दलील जो यकदम मुज्तहिद के ज़हन में दाख़िल हो मगर वो उसे बयान करने से क़ासिर हो। इज्तिहाद में एक ज़्यादा क़वी दलील या ज़रूरत की वजह से कियास-ए-जली से कयास-ए-ख़फ़ी की तरफ़ मुंतक़िल होना।
पहली मिसाल :
وَٱلۡوَٲلِدَٲتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَـٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ
माएं अपनी औलाद को दो साल कामिल दूध पिलाऐं जिन का इरादा दूध पिलाने की मुद्दत बिलकुल पूरी करने का हो (अल बक़रह-233)
दूसरी मिसाल: एक शख़्स ने दो बंदों से एक गाड़ी ख़रीदी जिस के वो दोनों मालिक थे । उनका मुआहिदा इस बात पर होता है कि वो इस क़ीमत की अदायगी बाद में करेगा । कुछ अर्से बाद ख़रीददार इन में से एक को ही पूरी क़ीमत अदा कर देता है, मगर इन पैसों का कब्ज़े में आने के बाद और दूसरे को इस का हिस्सा मिलने से क़ब्ल, नुक़्सान हो जाता है । इस्तिहसान की रु से इस नुक़्सान की तलाफ़ी सिर्फ़ वो शख़्स करेगा जिस ने क़ीमत वसूल की क्योंकि अगर वो चाहता तो ख़रीददार से कह सकता था कि वो ख़ुद दूसरे को इस का हिस्सा दे दे, मगर उस ने ऐसा नहीं किया ।
तीसरी मिसाल :
कोई शख़्स एक दुकानदार दर्ज़ी को कपड़ा देता है ताकि वो इस के लिए एक क़मीस सीए । बाद में इस कपड़े को, बगै़र दर्ज़ी की कोताही के, कोई नुक़्सान पहुंचता है । इस्तिहसान की रु से उसकी तलाफ़ी दर्ज़ी को करना होगी क्योंकि उसे चाहिए कि वो ग्राहकों से इतना ही कपड़ा ले, जितना वो महफ़ूज़ रख सके वर्ना वो ख्वाह मख्वाह चाहे लोगों की मिल्कियत को बर्बाद करने का बाइस बनेगा।
इस सरीह आयत के बावजूद बाअज़ ने बुलंद मरतबे की औरतों के लिए सिरे से दूध ना पिलाने की छूट दी है, और ये इस्तिहसान की बुनियाद पर किया गया है । ये तख़सीस बिला दलील है चुनांचे हुक्म के उमूम पर अमल लाज़िम है, यानी दो साल दूध पिलाने का हुक्म सब माओं के लिए है क़ताअ नज़र रुतबे के क्योंकि : (حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِ) (दो साल कामिल )।
दूसरी मिसाल में गाड़ी दोनों की मिल्कियत है जिसे वो बेचना चाहते हैं, चुनांचे ये एक शिराकत (partnership) है। इसलिए जो रक़म इन में से एक ने ख़रीददार से वसूल की, वो इस ने इन्फ़िरादी हैसियत से हासिल नहीं की बल्कि एक शिराकत में शरीक की हैसियत से। यानी ये वसूली कंपनी ने की है ना एक फ़र्दे वाहिद ने और इसीलिए, शराअ के मुताबिक़, नुक़्सान भी कंपनी ही को उठाना पड़ेगा । दूसरे लफ़्ज़ों में जिस ने वसूली नहीं की उसे बराबर का नुक़्सान उठाना पड़ेगा ।
तीसरी मिसाल में दर्ज़ी पर कपड़ों की ज़िम्मेदारी डाल देना, इस हदीस के ख़िलाफ़ है जिस में सराहतन इस बात की नही है:
لا ضمان علی مؤتمن ‘‘ (الدارقطني(
जिसके ज़िम्मे कुछ सुपुर्द किया गया तो वो इस का ज़ामिन नहीं (दारे क़ुतनी)
मज़कूरा मिसालों से ये ज़ाहिर है कि इस्तिहसान अक़्ली तावीलों के सिवा और कुछ नहीं है और जिस के शराअ में क़तई दलायल तो क्या ज़न्नी दलायल भी नहीं मिलते!! याद रहे कि लफ्ज़े इस्तिहसान हसन (अच्छा ) से मुश्तक़ है जो शरई नुसूस में अपने लुगवी मानी में मज़कूर है ना इस्तिलाही। इस्तिहसान में अक़्ल को शराअ पर तर्जीह दी गई है, इसलिए उसकी कोई हैसियत नहीं है क्योंकि इस में अक़्ल मस्लिहत का ताअय्युन करती है ना कि शराअ। इसी तरह इस्तिहसान की (इस्तिलाही) तारीफ़ें भी बातिल हैं क्योंकि ये कहना कि मुज्तहिद के ज़हन में कोई दलील दाख़िल हो मगर वो उसे लफ़्ज़ों में बयान नहीं कर सकता, ये एक ऐसा शरई माख़ज़ कैसा हो सकता है जिस की बुनियाद पर मुसलमान अपनी ज़िंदगी बसर करे! ये तो कोई ख़्याल ही हो सकता है कोई दलील हर्गिज नहीं !! इस के अलावा कयास-ए-जली को छोड़कर ऐसे कियास-ए-ख़फ़ी को इख़्तियार करना जो एक ज़्यादा क़वी दलील पर मबनी हो, इस का क्या मतलब है ? अगर तो इस से मुराद क़ियास को छोड़कर क़ुरआन-व-सुन्नत की किसी नस का ऐतबार करना है, तो उसे इस्तिहसान नहीं कहा जाएगा बल्कि ये तो क़ुरआन-व-सुन्नत के दलायल होंगे और अगर इस से ये मुराद है कि किसी शरई इल्लत वाले क़ियास को तर्क कर के किसी अक़्ली इल्लत पर मबनी क़ियास की तरफ़ रुजूअ किया जाये, तो ये मुस्तरद है !! क्योंकि जैसे पहले भी बताया गया है कि शराअ में फ़क़त वह्यी क़ियास मोतबर है जिस की कोई शरई इल्लत मौजूद हो, वर्ना उसकी कोई हैसियत नहीं। चुनांचे इस्तिहसान की तरदीद, इस के बला दलील होने की वजह से साबित है ।
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