मकरूह

शारेअ (शरीअत अता करने वाला/ अल्लाह سبحانه وتعالى) का ख़िताब अगर किसी फे़अल (काम) को तर्क करने (छोडने) के बारे में हो मगर तलब जाज़िम के साथ ना हो, तो ये मकरूह कहलाएगा। मकरूह वो है जिस के छोड़ने वाले की तारीफ़ की जाये और करने वाले की मज़म्मत ना की जाये, या जिस का छोड़ना करने से बेहतर हो।

शारेअ के ख़िताब में किसी फे़अल को तर्क करने की तलब (मांग) पाई जाये, फिर इस में कोई ऐसा क़रीना (इशारा) पाया जाये जो उस को तलबे ग़ैर- जाज़िम (बिना निश्चित मांग का) होने का फ़ायदा दे, तो इस के बाइस ये फ़ेअले मकरुह क़रार पायगा।

मिसाल :
)من کان موسرا ولم ینکح فلیس منا (البیھقي(
(वो जो मालदार हो और निकाह ना करे तो वो हम में से नहीं)


यहां सेग़ाऐ नहीं (मनाही) के मानी में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने निकाह नहीं करने से मना किया है, अलबत्ता आप صلى الله عليه وسلم ने बाअज़ मालदारों के निकाह ना करने पर सुकूत (खामोशी) इख़्तियार कि, जो इस तलब (मांग) के ग़ैर-जाज़िम (अनिश्चत) होने का क़रीना है। लिहाज़ा मालदारों के लिए अदम निकाह मकरूह क़रार पाया।
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