शारेअ का ख़िताब जिस बंदे से मुख़ातिब है, उस पर महकूम अलैहि का इतलाक़ होता है। शरई दलाइल के इस्तिक़रा से, बंदे से मुताल्लिक़ मुन्दर्जा ज़ैल शराइत ज़ाहिर होती हैं:
1) इस्लाम के बारे में शारेअ का ख़िताब, सब इंसानों से मुख़ातिब है, चाहे वो मुसलमान हों या कुफ़्फ़ार और उन सब का, अक़ीदे और अहकाम के बारे में, हिसाब होगा। यानी कुफ़्फ़ार भी, ईमान लाने और अहकामे शरीआ पर अमल करने, दोनों के मुकल्लिफ़ हैं।
قُلۡ يَـٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنِّى رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡڪُمۡ جَمِيعًا
आप कह दीजिए कि ऐ लोगो! मैं तुम सब की तरफ़ अल्लाह سبحانه وتعال का भेजा हुआ हूँ (अल आअराफ-158)
ये ख़िताब तमाम इंसानों के लिए आम है, लिहाज़ा इस में मुसलमान और काफ़िर दोनों शामिल हैं। यहां ये नहीं कहा जाये कि चूँकि इस में रिसालत के बारे में ख़िताब है, इसलिए ये आयत, कुफ़्फ़ार से, आप صلى الله عليه وسلم पर ईमान लाने का मुतालिबा कर रही है, ना कि फुरूई अहकाम की तकलीफ़ का। ये इसलिए क्योंकि रिसालत आम है, जो ईमान लाने और फुरूई अहकाम पर अमल, दोनों को शामिल है। दूसरी सूरत में इस ख़िताब को ईमान के साथ ख़ास किया गया है जबकि तख़सीस की कोई दलील मौजूद नहीं और ये सरासर ग़लत है। और अल्लाह سبحانه وتعال के सरीह ख़िताब से, कुफ़्फ़ार का फुरूई अहकाम का मुख़ातिब और मुकल्लिफ़ होना साबित है:
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّاسُ ٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمُ
ऐ लोगो! अपने रब की इबादत करो (अल बक़राह-21)
وَلِلَّهِ عَلَى ٱلنَّاسِ حِجُّ ٱلۡبَيۡتِ
अल्लाह سبحانه وتعال ने उन लोगों पर जो उसकी तरफ़ राह पा सकते हों इस घर का हज फ़र्ज़ कर दिया है (आले इमरान-97)
इन फुरूई अहकाम के तर्क पर सख़्त वईद और अज़ाब से, उनका हिसाब क़ुरआन से साबित है:
وَوَيۡلٌ۬ لِّلۡمُشۡرِكِينَ ( ۶ ) ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡتُونَ ٱلزَّڪَوٰةَ
और उन मुश्रिकों के लिए (बड़ी ही) ख़राबी है जो ज़कात नहीं देते (फुस्सिलात-6,7)
مَا سَلَڪَكُمۡ فِى سَقَرَ -قَالُو.. إلی قولہ….وَلَمۡ نَكُ نُطۡعِمُ ٱلۡمِسۡكِين
तुम्हें दोज़ख़ में किस चीज़ ने डाला, वे जवाब देंगे.....और ना हम मिस्कीनों को खाना खिलाते थे (अल मुदस्सिर-42,44)
2) काफ़िर के इन अफ़आल को कुबूल नहीं किया जाएगा जिन की अदायगी की सेहत के लिए इस्लाम शर्त है, मसलन इबादात, हुक़ूक़े मालियात में गवाही जैसे क़र्ज़ या काफ़िर की मुसलमानों पर हुकूमत वग़ैरा। अलबत्ता जिन अफ़आल के लिए इस्लाम शर्ते सेहत नहीं है, तो उन्हें कुबूल किया जाएगा जैसे किसी काफ़िर का मुसलमानों के साथ मिल कर क़िताल करना या सफ़र में वसीयत पर गवाही।
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ شَہَـٰدَةُ بَيۡنِكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ حِينَ ٱلۡوَصِيَّةِ ٱثۡنَانِ ذَوَا عَدۡلٍ۬ مِّنكُمۡ أَوۡ ءَاخَرَانِ مِنۡ غَيۡرِكُمۡ إِنۡ أَنتُمۡ ضَرَبۡتُمۡ فِى ٱلۡأَرۡضِ
فَأَصَـٰبَتۡكُم مُّصِيبَةُ ٱلۡمَوۡتِۚ
ऐ ईमान वालो! तुम्हारे आपस में दो शख़्स का गवाह होना मुनासिब है जबकि तुम में से किसी को मौत आने लगे और वसीयत करने का वक़्त हो, वे दो शख़्स तुम में से ऐसे हों कि दीनदार हों या ग़ैर लोगों में से दो शख़्स हों अगर तुम कहीं सफ़र में गए हो और तुम्हें मौत आ जाए (अल माईदा-106)
3) मुसलमान अपने तमाम अफ़आल को अहकामे शरीया के मुताबिक़ सरअंजाम देगा ।
يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَـٰزَعۡتُمۡ فِى شَىۡءٍ۬ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ
ऐ ईमान वालो! इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और तुम में से साहबे हुकूमत की फिर अगर किसी चीज़ में इख़्तिलाफ करो तो उसे लौटाओ अल्लाह और रसूल की जानिब (अन्निसा-59)
इस्लामी रियासत में कुफ़्फ़ार पर, अक़्दे ज़िम्मह के बाइस, अहकाम शरीया नाफ़िज़ होंगे।
حَتَّىٰ يُعۡطُواْ ٱلۡجِزۡيَةَ عَن يَدٍ۬ وَهُمۡ صَـٰغِرُونَ
यहां तक वो ज़लील व ख़्वार होकर अपने हाथ से जिज़िया अदा करें (अत्तौबा-29)
यानी ये लोग इस्लामी अहकाम के सामने झुकें। लिहाज़ा उन्हें इस्लामी अहकाम के अमल पर मजबूर किया जाएगा लेकिन इस्लामी अक़ीदे पर ईमान लाने पर नहीं क्योंकि:
لَآ إِكۡرَاهَ فِى ٱلدِّينِۖ
दीन (यानी क़बूले इस्लाम) के बारे में कोई ज़बरदस्ती नहीं (अल बक़राह-256)
इसी तरह इबादात, निकाह व तलाक और लिबास और खाने पीने के मसाइल में उन्हें, शरीयत के हदूद के अन्दर रहते हुए, अपने रस्म और रिवाज पर छोड़ दिया जाएगा। इसके दलाइल सुन्नत से साबित हैं।
4) बालिग़ होना, लिहाज़ा बच्चा मुकल्लिफ़ नहीं है।
5) आक़िल होना, लिहाज़ा मजनून मुकल्लिफ़ नहीं है।
6) होशमंद होना, लिहाज़ा सोने वाला मुकल्लिफ़ नहीं है।
’’ رفع القلم ثلاث: الصبی حتی یبلغ و النائم حتی یستیقظ و المجنون
حتی یفیق ‘‘
तीन लोगों से क़लम उठा लिया गया है: बच्चा जब तक वो बालिग़ ना हो जाए, सोने वाला जब तक वो बेदार ना हो जाये और पागल जब तक वो होश में ना आ जाए
यहां रफ़ा उल-क़लम से मुराद तकलीफ़ का उठा दिया जाना है।
मुंदरजा ज़ैल उज़रात पर मुकल्लिफ़ का मुवाख़िज़ा नहीं होगा:
1) मजबूरी जिस में जान का ख़तरा हो या वो जो इस हुक्म में आए।
2) भूल यहां तक कि याद आ जाए।
3) ख़ता, यानी वो फे़अल जो, बगै़र इख़्तियार के, ग़ैर उमदन हो जाए।
’’ إن اللّٰہ وضع عن أمتي الخطأ و النسیان وما استکرھوا علیہ ‘‘(ابن ماجہ(
मेरी उम्मत से ग़लती और भूल और जब्र उठा ली गई है
यानी मुकल्लिफ़ से मुवाख़िज़ा उठा दिया गया है।
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