हुक्मे शरई

हुक्मे शरई की तारीफ़: خطاب الشارع المتعلق بأفعال العباد بالإقتضاء أو بالتخییرأو بالوضع (बंदों के अफ़आल से मुताल्लिक़ शारे का वो ख़िताब जो तलब या इख़्तियार देने या वज़ा के साथ किया गया है)

अगरचे शारे अल्लाह ताला है मगर यहां ख़िताब अल्लाह के बजाय खिताबे शारे इस वजह से कहा गया है कि कहीं ये वहम ना हो कि इस से मुराद फ़क़त क़ुरआन है। सुन्नत भी चूँकि वह्यी है इस लिए वो भी खिताबे शारे में शामिल है और इज्माऐ सहाबा رضی اللہ عنھم भी क्योंकि इस से मुराद सुन्नत से किसी दलील का इन्किशाफ़ (ज़ाहिर होना) है। मुकल्लफ (legally responsible) के बजाय बंदा इस वजह से कहा गया क्योंकि इस में बच्चे और पागल से मुताल्लिक़ा अहकाम भी शामिल हैं। यहां ये ना कहा जाये कि जब बच्चे और पागल पर ज़कात, नफ़क़ा वग़ैरा वाजिब हैं, तो वो भी बाअज़ अहकाम के मुकल्लफ ठहरे। ये इस लिए क्योंकि ये वाजिबात बच्चे और पागल के अफ़आल से मुताल्लिक़ नहीं बल्कि उन के माल से हैं। यानी उन का माल तकलीफ़ का महल (object ) है। इसके इलावा हदीस में जो कहा गया कि उन से तकलीफ़ उठा ली गई है: حتی یبلغ (जब तक बालिग़ ना हो जाए) और حتی یفیق  (होश में ना आ जाए), ये दोनों अक़्वाल तालील का फ़ायदा दे रहे हैं, यानी बचपन और बेअकली नस की इल्लत (reason/वजह) है, और इस अम्र को उन के माल में कोई दख़ल नहीं और ये इस से मुसतशना (excluded) नहीं। इस बयान से तारीफ़ का जामि और माने होना ज़ाहिर हुआ।

बंदों के अफ़आल से मुताल्लिक़ शारे का वो ख़िताब जो तलब या इख़्तियार देने के बारे में है, उसे खिताबे तकलीफ से मौसूम किया जाता है और बंदों के अफ़आल से मुताल्लिक़ शारे का वो ख़िताब जो वज़ा के बारे में है, उसे खिताबे वज़ा कहा जाता है।

खिताबे तकलीफ

खिताबे तकलीफ (हुक्मे तकलीफ़ी) में या तो किसी फे़अल (काम) को करने की तलब (demand) होगी या किसी फे़अल को तर्क करने की तलब या फिर इस में किसी फे़अल को करने या छोड़ने का इख़्तियार दिया जायेगा। इस के नतीजे में अहकामे शरईया की ये पांच किस्मे सामने आती हैं:

फ़र्ज़ , मंदूब , मुबाह , मकरूह और हराम ।

ज़िंदगी के तमाम अफ़आल इन्ही में महदूद हैं। उस की तफ़सील ये है:

फ़र्ज़:

शारेअ (अल्लाह سبحانه وتعالى) का ख़िताब (सम्बोधन) अगर किसी फे़अल (काम) के करने से मुताल्लिक़ हो और ये तलबे जाज़िम (definitive demand/ निश्चित/निर्णयक मांग) के साथ हो, तो ये फ़र्ज़ या वाजिब कहलाएगा। फ़र्ज़ और वाजिब के एक ही माअनी हैं और इनमें कोई फ़र्क़ नहीं क्योंकि ये दो लफ़्ज़ मुतरादिफ़ (पर्याय) हैं। ये कहना सही नहीं कि जो चीज़ क़तई दलील (क़ुरआन और सुन्नते मुतवातिर) से साबित है वो फ़र्ज़ है और जो ज़न्नी दलील (ख़बरे वाहिद और क़ियास) से साबित है वो वाजिब है। ये इसलिए क्योंकि दोनों नामों (फ़र्ज़ या वाजिब) की एक ही हक़ीक़त है और वो ये कि शारेअ ने किसी फे़अल करने की तलबे जाज़िम की है। इस ऐतबार से क़तई दलील और ज़न्नी दलील में कोई फ़र्क़ नहीं है क्योंकि ये मसला ख़िताब के मदलूल से मुताल्लिक़ है ना कि इस के सबूत से।
फ़र्ज़ वह है जिस के करने वाले की तारीफ़ की जाये और ना करने वाले की मज़म्मत की जाये या इसको छोड़ने वाला सज़ा का मुस्तहिक़ हो।
फ़र्ज़ को क़ायम करने की हैसियत से, उस की दो किस्में हैं:
फ़र्ज़े ऐन और फ़र्ज़े किफ़ाया
उन के वाजिब होने के ऐतबार से, इन में कोई फ़र्क़ नहीं क्योंकि दोनों तलबे जाज़िम के साथ हैं। अलबत्ता उन को क़ायम करने की हैसियत से इनमें ये फ़र्क़ है कि फ़र्ज़ ऐन में हर फ़र्द से ज़ाती तौर पर फे़अल अंजाम देने का मुतालिबा किया गया है, जबकि फ़र्ज़े किफ़ाया में आम तौर पर मुसलमानों से फे़अल का मुतालिबा किया गया है, यानी ख़िताब का मक़सद मुअय्यन (खास) फे़अल की अंजाम दही है ना ये कि हर फ़र्दे वाहिद उसे अंजाम दे। लिहाज़ा अगर इस फे़अल को बाअज़ मुसलमानों ने सरअंजाम दे दिया (यानी फे़अल की अदायगी क़ायम हो चुकी) तो बाक़ीयों से इस का ज़िम्मा साक़ित हो जाएगा (हट जायेगा)। अलबत्ता सवाब के मुस्तहिक़ वही होंगे जिन्हों ने इस फे़अल को किया । और अगर इस फे़अल को किसी ने अंजाम नहीं दिया, तो जब तक वो क़ायम नहीं हो जाता, सब गुनहगार रहेंगे, मासिवा वो लोग जो उस की अदायगी में मशग़ूल हैं।
शारे की तरफ़ से किसी फे़अल को करने की तलब सेग़ा ए-अम्र (افعل) के साथ होगी या जो कुछ इस मानी के क़ाइम मक़ाम (मायने मे बराबर) हो। फिर अगर कोई ऐसा क़रीना पाया जाये जो फे़अल को तलबे जाज़िम होने का फ़ायदा दे , तो इस सेग़ा ऐ तलब और करीना ए जाज़िमा के वजह से, फे़अल (काम) वाजिब क़रार पायगा।
मिसाल :
وأقیموا الصلاۃ
और नमाज़ क़ायम करो (अल नूर-56)
إن الصلاۃ کانت علی المؤمنین کتابا موقوتا
“यक़ीनन नमाज़ मोमिनों पर मुक़र्रर वक़्तों पर फ़र्ज़ है” (अन्निसा-103)
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