खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 2

खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 2

कुछ मुसलमान ऐसा समझते हैं कि असल मक़सद इबादत है इस्लामी रियासत के लिए काम करना नहीं :

मज़ीद ये लोग कहते हैं कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों को अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत की तरफ़ दावत दी थी इस्लामी रियासत के क़याम की तरफ़ नहीं दी थी या ये कि असल और बुनियादी चीज़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत है इस्लामी रियासत नहीं, ज़रूरी नहीं कि हम इस्लामी रियासत क़ायम करें बल्कि ज़रूरी ये है कि हम अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत करें । इन अफ़राद की ये सोच है या उनके पास इसी किस्म की समझ वो रखते हैं । इस एतराज़ का जवाब देने के लिए ज़रूरी है कि यहां हम बयान करें कि इबादत की हक़ीक़त क्या है और वो किस तरह अदा होती है।

अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इंसान को अपनी इबादत के लिए पैदा किया है, चुनांचे इबादत ही इंसान को पैदा करने का मक़सद है । ۔ لا الہ الا اللّٰہ के मानी हैं कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) के सिवाए कोई माबूद नहीं और अल्लाह (سبحانه وتعالى) के सिवा बाक़ी सब बातिल हैं जिनका इनकार करना फ़र्ज़ है और इस बात की गवाही देना फ़र्ज़ है। और मुहम्मद रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के मानी हैं कि इबादत और इताअत इसी तरह की जाये जो मुहम्मद रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) अपने रब से लेकर आए हैं और उसकी गवाही भी इंसान पर फ़र्ज़ है। पस इबादत सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की है और इबादत सिर्फ़ इस तरीक़े पर होगी जो तरीक़ा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने बताया है।

इबादत सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) के लिए है और इबादत इबादत ना होगी जब तक ये अल्लाह (سبحانه وتعالى) के दिए गए हुक्म के मुताबिक़ ना हो जिसको हमारे आक़ा सय्यदना मुहम्मदुर्रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) लेकर आए हैं, ये इबादत का बुनियादी उसूल है, उसकी इताअत और पाबंदी ज़िंदगी के हर फे़अल में और हर कहे जाने वाले क़ौल में लाज़िमी है। चुनांचे जब एक मुसलमान उसकी ज़िंदगी में उसकी कोई भी ज़रूरत पूरी करने या किसी चीज़ और क़ीमत (ओहदा, जायदाद वग़ैरा) को हासिल करने के लिए कोई काम अंजाम देता है तो वो सारी मेहनत सिर्फ़ इस मक़सद से करता है ताकि उसकी इंसानी ज़रूरीतों या जिबल्लतें (needs and instincts) पूरी हो जाये और ज़रूरीतों और जिबल्लतों को पूरा करने के लिए कई तरीक़े हो सकते हैं और वो इनमें से किसी भी तरीक़े से उन्हें पूरा कर सकता है। चुनांचे इन ज़रूरीतों और जिबल्लतों को जब वो अपनी ख़्वाहिश के तहत पूरा करने की बजाय ख़ालिस शरई इस्लामी तरीक़े से पूरा करता है और इस तरह अपने अमल को अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान के साथ जोड़ देता है तो मुसलमान का ये अमल अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत कहलाता है । अब चूँकि इंसान के हर अमल के पीछे उसकी इंसानी ज़रूरत या उसकी कोई ख़्वाहिश मौजूद होती है और इंसानी जरूरतों और ख़्वाहिशों का रिश्ता ज़िंदगी के हर पहलू से जुड़ा होता हैं यानी इंसान को ज़रूरत, ख़्वाहिश ज़िंदगी के हर पहलू में होती है चुनांचे फ़ितरी तौर पर जब ज़रूरत को पूरा करने के लिए अमल करना पड़ता है तो इंसान ज़िंदगी के हर पहलू में अमल करता है, चुनांचे इंसानों की ज़िंदगी के हर पहलू में उसका कोई ना कोई अमल शामिल होता है।

अब इबादत ये है कि इंसान अपने तमाम आमाल (actions) को अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अवामिर और नवाही (orders and prohibitions) के मुताबिक़ अंजाम दे यानी अल्लाह (وحد ہ لاشریک) पर ईमान की बुनियाद पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म के मुताबिक़ कोई अमल करे या किसी अमल से रुक जाये, यूं इंसान के सारे आमाल इबादत बन जाऐंगे। एक मुसलमान जब दूसरे मुसलमान से ये कहता है कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत करो तो इसका मतलब हरगिज़ ये नहीं है कि आप उसे कह रहे हैं सिर्फ़ नमाज़ पढ़ो, ज़कात दो या हज करो या इन आमाल को अंजाम दो जिनको फुक़्हा (jurists) ने इबादात के अध्याय में लिखा है। बल्कि इसका मतलब ये है कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने जिन बातों के करने का हुक्म दिया है उन तमाम को बजा लाए और जिन बातों को हराम बता कर मना फ़रमाया है उनसे दूर हो जाये। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में तमाम अहकाम पर पाबंदी को इबादत तस्लीम किया जाता था चाहे इसका ताल्लुक़ किसी भी फे़अल से हो, यानी इस दौर में इबादत का मतलब तमाम अवामिर और नवाही की इताअत और फ़रमांबर्दारी थी और यही अमल बाद में भी रहा और इस दौरान फुक़्हा ने इस्लाम की बेहतर समझ के लिए विभिन्न कार्यो को विभिन्न वर्गो में वर्गीकृत (classify) किया। अफ़आल जिनमें इंसान का अल्लाह (سبحانه وتعالى) से ताल्लुक़ शामिल है ऐसी रस्मी इबादात को इबादात के फ़िक़्ही श्रेणी में रखा गया जैसे नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कत वगैरा, इसके अलावा इंसान के दीगर अफ़आल जिनमें इंसान का ख़ुद से और दूसरे इंसान या मख़्लूक़ (creation) से ताल्लुक़ है उनके लिए दूसरी श्रेणी बनाई गई है जैसे मामलात, उक़ूबात, अख़्लाक़ीयात वग़ैरा, आज उम्मत में फ़िक्री इन्हितात (वैचारिक पतन) की वजह से मुसलमानों में इबादात से मुराद आम तौर पर सिर्फ़ उन अफ़आल को लिया जाने लगा है जिन्हें फुक़्हा ने इबादात के फ़िक़्ही श्रेणी में रखा था। चुनांचे तमाम अहकामात में इताअत और फ़रमांबर्दारी इबादत है या दूसरे शब्दों में दुनिया में जिन भी आमाल की बंदा को ज़रूरत पेश आ जाए इन अफ़आल में अल्लाह (سبحانه وتعالى) और अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) के हुक्म पर पाबंदी और इताअत करना इबादत है, क्योंकि मुसलमान हर काम करते वक़्त अल्लाह (سبحانه وتعالى) का बंदा बना हुआ है ना कि सिर्फ़ रस्मी इबादात जैसे नमाज़, रोज़ा, हज, ज़क़ात के अफ़आल को अंजाम देते वक़्त ।

इस तरह तमाम अफ़आल की बुनियाद में अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ईमान है। इबादत इस ख़ातिर है कि तमाम आमाल और तमाम कार्यवाहीयों को अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर लाए गए ईमान की बुनियाद पर अक़ीदे के मुताबिक़ चलाए जाये इस तरह पूरा दीन अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत है और इबादत के मानी इताअत (बंदगी) हैं, अल्लाह (سبحانه وتعالى) की बंदगी करने या ख़ुद को अल्लाह (سبحانه وتعالى) के सपुर्द करने का मतलब अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत करना और आजिज़ी और इन्किसारी के साथ अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकाम अंजाम देना है जो सब कुछ जानने वाला अल-आलिम और सबसे बाख़बर-अलख़बीर है और ये कि हम रज़ा और इताअत के साथ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की बंदगी इख़्तियार करते हैं । यही वजह है कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत और बंदगी में अमर बिल मारुफ़ नही अनिल मुनकर, कुफ़्फ़ार और मुनाफ़ीक़ीन के ख़िलाफ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की राह में जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह, मुसलमानों की ज़िंदगी में इस्लाम को नाफ़िज़ करना, इंसानों के बीच दावत को फैलाना, मुसलमानों की हिफ़ाज़त करना वग़ैरा आमाल भी शामिल हैं जैसा कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत और बंदगी में नमाज़, ज़क़ात और क़यामे लैल (तहज्जुद) वग़ैरा शामिल हैं ।

मुसलमान के वो सब आमाल इबादत हैं जिनको वो रोज़मर्रा ज़िंदगी में अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात के मुताबिक़ अंजाम देता है, मुस्लिम को विभिन्न कार्यों की ज़रूरत उस पर पेश आने वाले हालात के तहत होती है । जैसे अगर एक मुसलमान नमाज़ नहीं पढ़ रहा हो तो उसको नमाज़ के लिए बुलाना इबादत की दावत है, और उसको रोज़े की तरफ़ दावत देना इबादत की दावत है, उसको दावत देना कि वो शरीयते इस्लामी के मुताबिक़ ख़रीद और फ़रोख़्त करे तो ये इबादत की दावत है। चूँकि हर इबादत की बुनियाद अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ईमान है चुनांचे ईमान की दावत देना, नमाज़, रोज़ा वग़ैरा की दावत से भी पहले है, चुनांचे जिस किसी को भी दावत दी जाये उसके अंदर पहले ईमान को तैय्यार और गतिशील कर दिया जाये ताकि ये ईमान उसको शरअ का पाबंद बनाने वाला और आमाल के लिए तैय्यार करने वाला हो जाए। इसी तरह लोगों को इस्लाम के क़याम की दावत, अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करने की दावत अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकाम हैं जिनकी फ़रमांबर्दारी फ़र्ज़ है। इस दावत को वही अंजाम देता है जिसने अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ईमान लाया हो। चुनांचे इन अहकामात की दावत से पहले ईमान की तरफ़ दावत देना ज़रूरी है, चुनांचे अगर दावत को इसी तर्तीब पर किया जाएगा तो ये दावत इन अहकामात के मामले में अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत है।

आज के हालात में चूँकि मुसलमान कुफ़्रीया निज़ामों के साए तले ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं और उन निज़ामों के क़वानीन अल्लाह (سبحانه وتعالى) के क़वानीन नहीं होते हैं जिसकी वजह से मुसलमान उन निज़ामों तले इस्लामी तरीक़े पर ज़िंदगी नहीं गुज़ार पा रहे हैं चुनांचे दीन को क़ायम करने की दावत इन हालात में अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत है जिसकी जानिब लोगों को तैय्यार करना और इस जानिब अमल करना ज़रूरी है।

इस वजह से हम पर लाज़िम है कि आज हम जब अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत की दावत दें तो हम अपनी दावत को आज के दौर के हालात, मसाइल और ज़रूरतों से जोड़ दें क्योंकि इन समस्याओं और ज़रूरतों का ताल्लुक़ इस्लामी ज़िंदगी से है और इस्लामी ज़िंदगी की वापसी इस्लाम की दावत के साथ जुड़ी हुई है, ताकि इस्लामी ज़िंदगी दुनिया में दुबारा जारी और सारी होकर अल्लाह (سبحانه وتعالى) की कामिल व मुकम्मल इबादत और बंदगी हो सके, लिहाज़ा इस्लामी रियासत के क़याम की दावत हक़ीक़त में दीन के क़याम की दावत है और दीन को क़ायम करना इबादत है, चुनांचे दीन को क़ायम करने की दावत अल्लाह (سبحانه وتعالى) की मुकम्मल इबादत की तरफ़ दावत है। इस तरह ये दावत इबादत की दावत है, क्योंकि ये अल्लाह (سبحانه وتعالى) का हुक्म है जिस पर हम ने ईमान लाया है चुनांचे जो मुसलमान इस हुक्म को नज़रअंदाज करेगा और इस पर काम नहीं करेगा वो यक़ीनन अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत में कोताही करने वाला होगा।

बाअज़ मुसलमानों की जानिब से ये मामला जिस अंदाज़ से पेश किया जाता है बिलकुल ग़लत है क्योंकि इससे ऐसा ज़ाहिर होता है कि ख़िलाफ़त के क़याम के लिए काम करना और इबादत करना दोनों अलग-अलग बातें हैं जो आपस में टकराती हैं । फिर इस वजह से भी ये ज़्यादा संगीन ग़लती है कि ऐसी राय रखना क़ुरआन के एक हिस्से के ज़रीये क़ुरआन के दूसरे हिस्से पर हमला करना है जिससे मुसलमानों को मना किया गया है, ग़ौर करें ।

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