क्या इस्लामी रियासत के क़याम का तरीक़ा तजुर्बे से हासिल हो सकता हैं ?

क्या इस्लामी रियासत के क़याम का तरीक़ा तजुर्बे से हासिल हो सकता हैं ?

कुछ लोग हैं जो कि इस्लामी रियासत के क़याम के लिए अमल को एक तजुर्बा क़रार देते हैं और इस तरह रियासत को हासिल करने के रास्ते को तजुर्बाती मंसूबे के तौर पर बयान करते हैं जिसके तहत दावत आगे बढ़ती है । क्या इस मामले को पूर्णता: (absolute) तजुर्बा कहना सही है?

तरीक़े को तजुर्बा कहना गुमराही है। ऐसा कहना तरीक़े को एक ऐसा अर्थ देता है जो लफ़्ज़ शरई तरीक़े से मेल नहीं खाता यानी जब तरीक़ा इंसानी तजुर्बा ही है तो फिर उसे शरई कहने की क्या वजह हुई । किसी कार्य या फे़अल को करने का तरीक़ा इस्लाम के अहकामे शरई की दलील की सेहत (strength/मज़बूती) के आधार पर होता हैं, जमात पर उनकी पाबंदी ज़रूरी है जैसा वो शरअ पर पाबंद हैं और जमात का उनसे रुख़ मोड़ना जायज़ नहीं जब तक वो उन्हें शरई अहकाम मानते हों । चुनांचे तरीक़ा, आज़माने और नतीजा निकालने का मामला नहीं कि अगर मक़सद में कामयाबी मिल जाये तो ये कामयाब कोशिश है वरना ये नाकाम कोशिश है इसलिए अब उसे बदल कर कुछ और आज़माना चाहीए ताकि उन तजुर्बात से मिलने वाले सुराग़ से तरीक़ा मालूम किया जा सके जिसे इस अज़ीम मक़सद के हासिल करने का रास्ता कहा जाएगा।

बल्कि शरई तरीक़ा तो उन शरई अहकामात का समूह है जो पिछले पृष्ठों में बयान हुए हैं और वो इस मक़सद के लिए हैं कि इस्लामी ज़िंदगी दुबारा जारी हो जाये, ये अहकाम दलील की बुनियाद पर हैं । ये रास्ता राहे-हक़ के मुसाफ़िरों के लिए उन्हें उनकी मंज़िल तक पहुंचाने के लिए उनके रब अल्लाह (رب العالمین) के बतलाए हुए अहकामे शरई हैं, इसलिए वो ख़ुद को सिर्फ़ उन अहकाम की हदों में रख कर सब्र के साथ उनकी इताअत और पाबंदी करते हैं तो ये अल्लाह (سبحانه وتعالى) की ऐन इबादत है और वो इन अहकाम को ना तो बदल सकते हैं और ना उसकी बजाय किसी और को इख़्तियार कर सकते हैं जब तक कोई दूसरी मज़बूत दलील उनके सामने ना आ जाए जो इस तरीक़े (रास्ता) से संबधित है ।

मुस्लिम फ़र्द के लिए ज़रूरी है कि वो शरई तरीक़ा में साफ़ तौर पर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी को देख ले क्योंकि शरई तरीक़ा वो है कि जिसमें रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी हो। इसी फ़र्क़ की वजह से शरई तरीक़ा उन लोगों के बनाए हुए तरीक़ों से बिलकुल भिन्न है जो सैकूलर निज़ाम के तहत काम करते हैं । जहां लोग अपनी बुद्धिमानी और समझ की बुनियाद पर विभिन्न फे़अल (कार्यों) का तजुर्बा करते हैं फिर मक़सद की प्राप्ती में कामयाबी और नाकामी को देखकर इस फे़अल और अमल के सही या ग़लत होने का फ़ैसला करते हैं ।

मौजूदा सैकूलर निज़ाम की शक्ल व सूरत को इसके मानने वाले ख़ुद मुकम्मल हल नहीं समझते और इस निज़ाम के कोई भी हल उनके मुताबिक़ आख़िरी हल नहीं हैं । इसमें हमेशा तब्दीली और बेहतरी की ज़रूरत होती है। इसलिए ये लोग जो भी काम करते हैं उसे एक तजुर्बाती काम कहना दरुस्त है। इसमें कोई शक नहीं कि पश्चिम के बनाए हुए तमाम क़वानीन तजुर्बात के सिवा कुछ नहीं हैं । उनके नज़दीक किसी अमल के सही या ग़लत होने की पहचान उस अमल के ज़रीये मक़सद को पाने में कामयाबी से की जाती है, यानी जो भी अमल (तरीक़ा) नतीजा लाए वो सही है वरना वो ग़लत है। मुस्लिम के लिए ये मामला इस्लाम की फ़ितरत के अलग होने की वजह से बिलकुल अलग हो जाता है क्योंकि इस्लाम फ़ितरी तौर अपने आप में अल-आलीम (जो सब कुछ जानता है) और अल-ख़बीर (जो हर बात की ख़बर रखता है) की तरफ़ से आया एक आसमानी मन्हज (तरीक़ा) है जो हर मामले और इसके तरीक़े को बयान करता है, इसलिए तरीक़ा जब तक शरई दलील की बुनियाद पर हो तो सही और मुकम्मल है । इसके सही होने का दारो मदार इसकी शरई दलील पर के सही होने पर है, और तरीक़े का नतीजे से कोई ताल्लुक़ नहीं है । चुनांचे तरीक़े में शरई दलील पर कारबन्द रहना बुनियादी मामला है और तरीक़े की कामयाबी के लिए शरई दलील पर पाबंदी की जाती है । जहां तक तरीक़े के अलग-अलग आमाल और नतीजा यानी क़ुव्वत और इक़्तिदार को अपनाने की बात है तो ये लाज़िमी है कि दोनों की पाबंदी की जाये यानी दोनों ही मक़ासिद हासिल किए जाएं जैसा कि अल्लाह (عزوجل) का फ़रमान है कि:

وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَعَمِلُواْ ٱلصَّـٰلِحَـٰتِ لَيَسۡتَخۡلِفَنَّهُمۡ فِى ٱلۡأَرۡضِ ڪَمَا ٱسۡتَخۡلَفَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمۡ دِينَہُمُ ٱلَّذِى ٱرۡتَضَىٰ لَهُمۡ وَلَيُبَدِّلَنَّہُم مِّنۢ بَعۡدِ خَوۡفِهِمۡ أَمۡنً۬ا ۚ يَعۡبُدُونَنِى لَا يُشۡرِكُونَ بِى شَيۡـًٔ۬اۚ {24:55} 

“अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने तुम में उन लोगों से वाअदा फ़रमाया है जो ईमान लाए और नेक अमल करते रहे कि उनको ज़रूर ज़मीन में ख़िलाफ़त अता करेगा जैसा कि उनसे पहले लोगों को ख़िलाफ़त से नवाज़ा, उनके दीन को ग़ालिब करेगा जिसको उसने उनके लिए पसंद फ़रमाया, उनके ख़ौफ़ को अमन से बदल देगा, वो मेरी इबादत करेंगे और किसी को मेरा शरीक नहीं बनाएंगे ।”

मज़ीद इसलिए कि अल्लाह (الناصر) ने फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَنصُرُواْ ٱللَّهَ يَنصُرۡكُمۡ وَيُثَبِّتۡ أَقۡدَامَكُمۡ
“अगर तुम अल्लाह (के दीन) की मदद करोगे तो अल्लाह तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हें साबित क़दम रखेगा ।” (47मुहम्मद7)

अब अगर नतीजा नहीं निकले तो मुस्लिम तरीक़े को ग़लत नहीं बतलाए या किसी और तरीक़े से तब्दील ना करे, ना ही इसके नाकाम होने का ऐलान करेगा, बल्कि तरीक़ा के अहकामात पर दुबारा नज़र डाली जाये और अधिक छान फटक पुन और पुनर्परीक्षण की जाएगी। किसी भी हुक्मे शरई को निकाल (abandoned/त्याग) नहीं किया जाएगा जब तक जमात को निश्चित तौर पर ये मालूम हो जाए कि इस हुक्म को समझने में ग़लती हुई थी, फिर उसको दरुस्त किया जाएगा। अगर जमात को नज़रे-सानी के बाद भी कोई ग़लती नज़र नहीं आए तो जमात पर इन अहकामात पर पाबंदी के अलावा कोई और रास्ता नहीं होगा और वो सब्र और यक़ीन का पर जमी रहेगी यहाँ तक कि उसे अल्लाह (سبحانه وتعالى) की मदद आ जाए। या फिर ये समझा जायेगा कि बाअज़ दफ़ा नुसरत पहुंचाने के लिए अल्लाह (سبحانه وتعالى) की सुन्नत के मुताबिक़ मदद के आने में देर हो सकती है जो कि अन्बिया के साथ भी हुआ है। इरशाद बारी ताअला है: (12यूसुफ़110)

إِذَا ٱسۡتَيۡـَٔسَ ٱلرُّسُلُ وَظَنُّوٓاْ أَنَّہُمۡ قَدۡ ڪُذِبُواْ جَآءَهُمۡ نَصۡرُنَا
“यहां तक कि रसूल नाउम्मीद होने लगे और ये गुमान करने लगे कि उनको झुटलाया गया तब हमारी मदद पहुंच गई।”

जी हाँ ये काम यक़ीनन मुश्किल और बहुत ही कठिन मेहनत और बड़े पैमाना की एक जद्दो जहद की मांग करता है। जमात के संसाधन भी उन हुकूमतों से कम होते हैं जिनके साथ जमात का मुक़ाबला है, काम की कामयाबी किसी निर्धारित अवधि से नहीं जुड़ी है कि अगर अवधि (मुद्दत) पूरी हो जाए और मक़सद पूरा ना हो तो इस कोशिश को नाकामयाबी बतला दिया जाये और फिर उसी ख़ास मुद्दत में कामयाबी के लिए नई कोशिश की जाये बल्कि कामयाबी का ताल्लुक़ फ़िक्र की मज़बूती और इसके लिए अमल करने वालों की पाबंदी में इस्तिक़ामत, स्थिरता और अवाम में इस फ़िक्र की आम क़बूलीयत (general acceptance) से है। जब ये बातें पूरी हो जाएं तो नुसरत का सवाल पैदा होता है और फिर जमात उसे तलबे नुसरा के ज़रीये हासिल करेगी जैसा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने किया था, ये तमाम काम अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात हैं और उनकी जांच भी कि ये काम मुकम्मल हुए हैं या नहीं, ये फ़ैसला अल्लाह (سبحانه وتعالى) के इख़्तियार में है । और जमात के ज़रीये ऐसी कोई भी जांच सिर्फ़ एक संभावना (probability) ही होगी।

जब नुसरा के अवामिल (factors) हासिल हो जाएंगे तो ये अमल जल्द हो जाएगा वरना इसमें देर हो सकती है। अल्लाह (سبحانه وتعالى) की नुसरत में देर होने का मतलब ये ज़रूरी नहीं कि तरीक़े में ग़लती हुई है, इसके मानी ये भी हो सकते हैं कि तैय्यारी और मुस्तैदी का स्तर अभी पर्याप्त नहीं है और इसके लिए अधिक तैय्यारी की ज़रूरत है। इसके अलावा देर होने का कारण जमात या गिरोह के शबाब के लिए अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जानिब से आज़माईश हो सकती है कि ये अफ़राद कोई ख़ता और गुनाह करते हैं या इनमें से कौन नाउम्मीद होकर बैठ जाते हैं या फिर अपने अह्द पर क़ायम रहते हैं ? वजह कुछ भी हो हर हाल में तरीक़े पर नज़रे-सानी ज़रूरी है कि क्या हमारा तरीक़ा शरई है? सिर्फ़ नुसरा के मिलने में देर होने की वजह से तरीक़े को तब्दील करना जायज़ नहीं, क्योंकि हिदायत की तरह नुसरत भी अल्लाह (سبحانه وتعالى) ही के हाथ है। अलबत्ता जमात पर लाज़िम हो जाता है कि वो अपने संसाधन और उस्लूब की जांच करे जो कि अस्लन मुबाह या जायज़ हैं और ज़्यादा मुनासिब उस्लूब और मज़ीद बेहतरीन संसाधन इख़्तियार करने चाहिए। देर होने का मतलब ज़रूरी नहीं कि नाकामी हुई है, इसके अलावा ऐसा कोई शरई हुक्म नहीं है जो बतलाता हो कि एक ख़ास अवधि याअ मुद्दत के अंदर मक़सद का हासिल होना लाज़िमी है।यक़ीनन मुस्लिम के लिए ज़रूरी है कि तरीक़ा से जुड़े हुए अफ़्क़ार व अहकाम की सेहत (strength) पर नज़र रखी जाये और इन्ही अफ़्क़ार व अहकाम के ज़रीये शबाब और उम्मत की तैय्यारी होगी । अगर ये अफ़्क़ार और अहकाम जमात की नज़र में सही और हक़ हैं और बेहतरीन संसाधन और उस्लूब इख़्तियार किए गए हैं फिर जमात पर ज़रूरी है कि वो सब्र और इस्तिक़ामत के साथ साबित क़दम रहे चाहे नुसरत हासिल होने में कितनी ही देर लग जाये।

तब्दीली का मसला उम्मत में तब्दीली का है ना कि अफ़राद में तब्दीली का, समाज को बदलना अफ़राद के बदलने से बड़ी चीज़ है क्योंकि इसमें दीगर दूसरी चीज़ों को भी बदलने की भी ज़रूरत होती है इस वजह से इसमें तब्दीली की गति बहुत धीमी होती है जिसका नज़र आना मुश्किल होता है। इस बात का एहसास सिर्फ़ वो कर सकता है जो साहिब बसीरत हो और समाज को बारीकबीनी से देखता हो और उसे अच्छी सरपरस्ती और मदद हासिल हो। इसका मतलब ये नहीं कि मुस्लिम इस ख़्याल के साथ काम करे कि ये काम उसके हाथों नहीं होगा या ये काम आइन्दा नस्लों के हाथों अंजाम पाएगा। बल्कि जमात के फ़र्द और जमात को ये सोचना चाहिए कि ये काम हमारे ही हाथों होगा, इंशाअल्लाह उसको हम अपनी आँखों से देखेंगे जैसा कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा (رضی اللہ عنھم) के हाथों हुआ था, यहां तवक्कुल की ज़रूरत है। कहने का मक़सद ये है कि एक फ़र्द की उम्र कम या ज़्यादा हो सकती है और अल्लाह (سبحانه وتعالى) का वाअदा किसी फ़र्द या अफ़राद के साथ नहीं है बल्कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) का वाअदा जमात के साथ है। ये मोमिनों का गिरोह है जिसके साथ अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने ज़मीन में ख़िलाफ़त (استخلاف) का वाअदा फ़रमाया है, इस काम के दौरान फ़र्द का या अमीर का भी इंतिक़ाल हो सकता है और ये भी हो सकता है कि बहुत सारे लोग इस रास्ते में ख़त्म हो जाएं, लेकिन जब तक जमात बाक़ी है जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म को पूरा करने में लगी रहेगी तब तक अल्लाह (سبحانه وتعالى) का वाअदा क़ायम है, अल्लाह (سبحانه وتعالى) की नुसरत उन्हें नसीब होकर रहेगी देर हो या जल्दी । नुसरत कब मिलेगी इसका इल्म सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) को है और कोई भी इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं है लेकिन जमात पर इस तरीक़े पर पाबंद रहने की ज़िम्मेदारी है।

लिहाज़ा किसी भी फ़र्द को ये नहीं कहना चाहीए कि हुक्मे शरई एक तजुर्बा है इस तरह कि अगर मक़सद को हासिल करने में देर हो जाए तो हम उसको नाकाम क़रार दें और फिर किसी दूसरे तजुर्बाती अमल की तैय्यारी में इस हुक्म को झटक दें या छोड़ दें। कोई भी ऐसा तब तक नहीं कह सकता है जब तक हमें उसके शरई हुक्म होने का पर यक़ीन हों और इसके दलायल भी मौजूद हों अलबत्ता संसाधन और उस्लूब तजुर्बे के तहत अपनाने चाहिए ।

(नोट: इस टोपिक पर मज़ीद वज़ाहत के लिये पढे मज़मून:
तरीक़ा और उस्लूब के बीच फ़र्क़)
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