खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 4

खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 4

कुछ मुसलमानों का मानना है कि तब्दीली लाने के लिए हुक्मरानों के ख़िलाफ़ हथियारों का इस्तिमाल ही वो तरीका है जो वाजिबुल इत्तिबा है

ये हज़रात बुरे हुक्मरानों के बारे में रसूल (صلى الله عليه وسلم) की हदीस को दलील के तौर पर पेश करते हैं जिसमें रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने हुक्म दिया है कि उन्हें अपनी तलवारों से ललकारें अगर वो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकामात को नाफ़िज़ ना करें ।

हम इन हज़रात की ताज़ीम और इकराम करते हैं अगरचे हमारे और उनके बीच इख़्तिलाफ़ राय है, अलबत्ता इन हज़रात के जवाब में हम कहते हैं कि: इस हदीस में मौजूद हुक्म के मनात (यानी जिन हालात के बारे में ये हदीस है इस हक़ीक़त) की जांच करने पर सही राय सामने आ जाती है, हदीस का ताल्लुक़ ऐसे हुक्मरान से है जो दारुल इस्लाम का इमाम है जिसे शरई तौर पर बैअत दी गई हो। इस तरह वो मुसलमानों से बैअत लेकर इमाम बना हुआ हो और वो ज़मीन जहां वो इमाम हुकूमत करता हो वो दारुल इस्लाम हो (यानी जहां इस्लाम के अहकाम को बालादस्ती हो) और उसकी अमान मुसलमानों के हाथों में ही हो। ऐसी हालत में मुसलमानों पर इमाम की इताअत का हुक्म वाजिब है और अगर वो इमाम अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नाज़िल करदा अहकामात के दायरे से निकल कर एलानिया तौर पर कुफ्रिया अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करने लगे चाहे कुफ्र से एक ही हुक्म लेकर नाफ़िज़ करे जबकि इस हुक्म के इस्लामी होने की कोई दलील या दलील का शुबा भी इसके पास ना हो तब मुसलमानों को हुक्म दिया गया है कि इसके ख़िलाफ़ तलवार इस्तिमाल करें । इस हदीस के माअनी में ग़ौर करें जो हमारी बेहस का विषय है और ये सब बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा। हदीस ये है कि औफ़ बिन मालिक अल-अशजाई ने कहा कि: मैंने सुना कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:

خيار أئمتكم الذين تحبونهم و يحبونكم و تصلون عليه
 يصلون عليكم ، و شرار أئمتكم الذين تبغضونهم و
يبغضونكم)). قيل يا رسول الله : أفلا ننابذهم بالسيف عند
ذلك؟ قال : ((لا، ما أقاموا فيكم الصلاة)) 

“तुम्हारे बेहतरीन इमाम वो होंगे जिनसे तुम मुहब्बत करोगे और वो तुम से मुहब्बत करेंगे तुम उनके लिए दुआ करोगे वो तुम्हारे लिए दुआ करेंगे और तुम्हारे बुरे इमाम वो होंगे जिनसे तुम बुग़ज़ रखोगे और वो तुम से बुग़ज़ रख़ोगे।
कहा गया ए अल्लाह के रसूल! (صلى الله عليه وسلم) हम उनको अपनी तलवारों से क्यों ना निकाल बाहर करें ? फ़रमाया:नहीं जब तक वो तुम्हारे अन्दर नमाज़ को क़ायम करते रहें ।”

नमाज़ को क़ायम करने का मतलब शरअ के अहकाम को क़ायम करना है यहां जुज़ कह कर कल मुराद ली गई है (باب تسمیة الکل باسم الجزئ/meaning the whole by mentioning a part)

दारुल-कुफ्र के हुक्मरान का मामला या हक़ीक़त बिलकुल भिन्न होता है: हालाँकि वो मुसलमानों पर हुक्मरान होता है लेकिन वो इनका इमाम नहीं है और शरअ के तहत लाज़िम किए गए तरीक़े पर इसकी शरई नियुक्ति नहीं होती और ना ही इसने मुसलमानों की ज़िंदगीयों पर इस्लाम के अहकामात को नाफ़िज़ करने का कोई वचन लिया होता है, हालाँकि इस्लामी अहकामात का निफ़ाज़ करना तो उस पर भी फ़र्ज़ है। इसके विपरीत दारुल-इस्लाम का हुक्मरान मुसलमानों का इमाम होता है और दारुल-इस्लाम के इमाम की नियुक्ति शरई तौर पर होती है जिसमें बैअत के तहत वो मुसलमानों के साथ उनकी ज़िंदगीयों में इस्लाम को नाफ़िज़ करने का वचन लेता है।

फ़िर उसके अलावा जब हम हालात देखते हैं तो मालूम हो जाता है कि तब्दीली लाने के अमल में असलेह या हथियारों का इस्तिमाल काफ़ी नहीं है। तब्दीली का ये मसला इस बात से बहुत बड़ा है कि इस हुक्मरान को हटा कर एक संजीदा इस्लामी हुक्मरान को बिठा दिया जाये बल्कि इस हुक्मरान को हटाने के साथ साथ एक ऐसी हुकूमत का क़ायम होना ज़रूरी है जो इस्लाम के मुताबिक़ हुकूमत कर पाए। चुनांचे इस बात को निश्चित बनाने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? इसके लिए ज़रूरी होता है कि सियासी बसीरत और तजुर्बेकार सियासी महारत रखने वाली क़ियादत मौजूद हो. और साथ ही इस्लामी सियासी ज़रीया भी मौजूद हो । इस्लाम के ज़रीये हुकूमत करना कोई ऐसी आसान चीज़ नहीं कि कोई भी अस्करी रहनुमा (military leader) उसको अंजाम दे सके चाहे उसके पास कितनी ही फ़ौजी क़ुव्वत हो और वो इस्लाम से मुख़्लिस (sincere) भी हो, इस मामले में तजुर्बा, मामलाफहमी और बारीक बीनी, जद्दो जहद और निहायत आला दर्जे की शरई समझ की ज़रूरत है। और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का तरीक़ा ही इन तमाम बातों को निश्चित बनाता है।

(1) रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का तरीक़ा (नबवी मन्हज) इस बात को निश्चित बना देता है कि एक बेमिसाल मुसलमान सियासी क़ाइद (leader) तैय्यार हो जाये जो इस्लामी रियासत के क़याम से पहले दावत के रास्ते में इसका एक लंबे अर्से का तजुर्बा रखता हो, जिसको कुफ़्फ़ार रियासतों की चालों और मक्र व फ़रेब, धोकेबाज़ीयों, मक्कारियों, साज़िशों और मंसूबों का अच्छी तरह इल्म हो जिसकी वजह से वो उनसे कभी धोका ना खा सके, इस अहलीयत के बाद ही वो इस्लामी रियासत की हिफ़ाज़त करने और फिर रियासत को दुनिया के मुल्कों में उस अद्भुत मुक़ाम तक पहुंचाने के योग्य होगा जहां इस्लामी रियासत दुनिया भर में अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकेगी यानी दुनिया को हिदायत पहुंचाने वाली एक हिदायत याफ़्ता रियासत के तौर पर सामने आएगी ऊर्जो नबवी मन्हज पर दुबारा क़ायम होने वाली ख़िलाफ़ते-राशिदा होगी ।

(2) नबवी मन्हज निश्चित बना देता है कि ऐसे मोमिन शबाब तैय्यार हों जो रियासत के क़याम से पहले दावत की ज़िम्मेदारी का बोझ उठाएं, such that they, with others of the Muslims who are concerned about the matters of the da’wah, form the Islamic political medium, and from them will come the walis (governers), Ameer of Jihaad, ambassadors and those who carry the da’wah to the people in other states .इस तरह कि ये शबाब दूसरे ऐसे मुसलमानों, जो दावत और इससे जुड़े मामलात के बारे में फ़िक्रमंद हों, उनके साथ मिलकर सियासी ज़रीया को तशकील देंगे और फिर इन संजीदा अफ़राद में से गवर्नर, अमीरुल-जिहाद, सफ़रा (ambassadors) और दूसरी रियासतों में इस्लाम की दावत ले जाने वाले बेहतरीन अफ़राद हासिल होंगे।

3। नबवी मन्हज एक ज़बरदस्त जनसमर्थन और मक़बूल अवामी जज़बात के ज़रीए एक विशाल अवामी बुनियाद क़ायम करेगा जो इस्लाम को अहलन और सहलन सीने से लगा कर ख़ुशआमदीद कहेंगे और इस्लामी रियासत की हिफ़ाज़त करेंगे।

4। नबवी मन्हज ये भी निश्चित करेगा कि ऐसे माहिर तर्बीयत याफ़्ता अहले क़ुव्वत अफ़राद तैय्यार हों जो दीगर मज़ीद अहले क़ुव्वत अफ़राद के साथ खड़े होकर उनकी ताक़त को अधिक बढ़ाएंगे और ख़िलाफ़ नहीं खड़े होंगे, ख़ास तौर पर उस वक़्त कि जब वो समझ लेंगे कि हुक्मरान, इसके साथ हुकूमती ढांचा और ताक़त जिस पर हुक्मरान टिका हुआ है ये ऐसी क़ुव्वतें हैं जो एक मर्तबा उनके पुश्त पर आ जाऐं तब वो दीन को क़ायम कर सकेंगे जिसके क़याम को अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने उन पर फ़र्ज़ किया है।

इन तमाम के अलावा मज़ीद ये देखें कि मुसल्लह जद्दो जहद के लिए माल, असलेह और उसकी तर्बीयत की ज़रूरत होती है और तेहरीक पर ये बहुत भारी बोझ होगा क्योंकि ये सब मुहैया कराना एक तेहरीक के लिए आसान नहीं और फिर इन अस्बाब के लिए ये तहरीक किसी और से मदद मांगने पर मजबूर या किसी और की मोहताज हो सकती है, और ये बर्बादी की जानिब पहला क़दम है, यही तेहरीकों के ख़त्म होने का कारण बना है फिर भी मुसलमानों ने इस रास्ते को ख़ूब आज़माया है लेकिन इससे उन्हें भारी नुक़्सान उठाना पड़ा है। अब इसे अधिक बयान करने की ज़रूरत नहीं कि लफ़्ज़ (आज़माना, तजुर्बा करना) किसी भी शरई अमल के तरीक़े के तौर पर ना-मुनासिब और ग़लत है ।

जब हम ये कहते हैं कि असलेह का इस्तिमाल तब्दीली लाने का शरई तरीक़ा नहीं तो हम इन ज़ालिम हुक्मरानों के लिए नरमी हरगिज़ नहीं रखते और ना ही उनकी तरफदारी नहीं करते हैं जिन्हें मुसलमानों की ज़रा सी भी परवाह नहीं है। बल्कि हम अपने दीनी भाईयों के तरफ़दार हैं और चाहते हैं कि इन तमाम मुख़्लिसीन की कोशिशें और जद्दो जहद एक शरअन मतलूब अमल (required Shar’ee work) के लिए एकत्रित हो जाएं । हम उन्हें इस हक़ीक़त की तरफ़ याददेहानी कराते हैं कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में सहाबा (رضی اللہ عنھم) की जानिब से असलेह के इस्तिमाल की इजाज़त तलब करने पर उन्हें मना करते हुए ये फ़रमाया था कि:

((لقد أمرت بالعفو، فلا تقاتلوا القوم))
“मुझे माफ़ करने का हुक्म दिया गया है, तुम क़ौम से मत लड़ो ।” (सीरत इब्ने हिशाम)

फिर अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मज़ीद ये इरशाद फ़रमाया:

أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ قِيلَ لَهُمۡ كُفُّوٓاْ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡہِمُ ٱلۡقِتَالُ......
“क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया कि अपने हाथों को रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो, फिर जब उन पर क़िताल फ़र्ज़ किया गया...” {4:77}

इस किस्म के दीगर कई शरई दलायल हैं जिनसे रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दावत में तरीक़े कार की पैरवी करने की पुष्टि होती है और इस तरीक़े में कोई कमी और ज़्यादती, तब्दीली, तरमीम और इससे इन्हिराफ़ की वजह से दावत, जमात और उम्मत मुस्लिमा को बहुत भारी नुक़्सान होगा। यही वजह है कि हम ने निहायत स्पष्ट तौर पर शरअ के अध्ययन और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े को ख़ूब ग़ौर से पढ़ने पर ज़ोर दिया है ताकि आप (صلى الله عليه وسلم) की बेहतरीन तौर पर पैरवी की जाये और अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ही है कि वो हमें सच्चा और सीधा रास्ता बतलाऐ ।


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