खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 3

खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 3

कुछ लोग कहते हैं कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की सीरत की तस्दीक़ नहीं हुई है: 

ऐसा कहने का मतलब है कि जो नुसूस यक़ीनी (authentic) नहीं है हम पर उनकी पाबंदी लाज़िम नहीं है और इस वजह से हमारा उन पर अमल करना ज़रूरी नहीं है। ऐसे लोग समझते हैं कि ये बात रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के मक्की दौर के अफ़आल की पैरवी ना करने की उनकी राय की हिमायत में दलील है जब आप (صلى الله عليه وسلم) ने ख़िलाफ़त के क़याम के लिए काम किया था हालाँकि ये बात ख़ुद उनके ख़िलाफ़ दलील है।
हम इसका ये जवाब यूं देते हैं कि सीरत अख़बार (रिवायतों/narrations) और वाक़ेआत का समूह हैं जिन्हें तहक़ीक़ और छानबीन की ज़रूरत होती है। और चूँकि इसका ताल्लुक़ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के अफ़आल से है इसलिए वो वह्यी का हिस्सा हैं । इसलिए मुसलमानों पर लाज़िमी है कि वो मुहम्मद मुस्तफ़ा (صلى الله عليه وسلم) की सीरत पर दावत के एतबार से ध्यान दें, क्योंकि जिस तरह किताब व सुन्नत की पैरवी है इसी तरह सीरत की पैरवी लाज़िम है। आप (صلى الله عليه وسلم) की मक्की सीरत में वो अफ़आल व अमाल शामिल हैं जिनको आप (صلى الله عليه وسلم) ने मक्का में रहते हुए अंजाम दिया जिसके कारण मदीना में दारुल-इस्लाम वजूद में आया। चुनांचे सीरत को नजरअंदाज़ करने के आधार पर ज़रूर ऐसे लोग गुनहगार होंगे जो सीरत की तस्दीक़ करने की क़ाबिलीयत रखते थे और इसके बावजूद उन्होंने सीरत की तस्दीक़ नहीं की और इस मामले में उनके अलावा ऐसे मुसलमान भी गुनहगार होंगे जिन्होंने उसकी क़ाबिलीयत रखने वाले आलिमों की इस ज़िम्मेदारी की ख़ातिर इस जानिब हिम्मतअफ़्ज़ाई नहीं की। ये इंतिहाई ताज्जुब की बात है कि इस किस्म के दावे अक्सर वो लोग किया करते हैं आम तौर जो अहादीस के बयान करने और उनकी छानबीन का ख़ूब एहतिमाम करते हैं । और वो ये राय इस तरह सामने पेश करते हैं गोया इक़ामते दीन के लिए काम करने की ज़िम्मेदारी से वो आज़ाद कर दिए गए हैं और मज़ीद अफ़सोस ये है कि वो इस कमज़ोर राय का हवाला इस तरह दिया करते हैं गोया उन्होंने कोई इंतिहाई अहम बाज़ी जीत ली है।

क्या यह मुसलमान भूल गए हैं कि दूसरे मुसलमानों की तरह उन्हें भी हुक्म दिया गया है कि इस्लामी रियासत के क़याम के लिए काम करें ? यही हुक्म वो वजह है जिसकी ख़ातिर सीरत के बारे में अध्ययन और तहक़ीक़ व तफ़्तीश करना उन पर फ़र्ज़ क़रार पाता है। क्योंकि जब हालात ने उन्हें मजबूर किया कि शरई मामलात में वो जुज़वी शरई अहकाम (partial Shar’ee matters) की अहादीस की छानबीन करें तो उन्होंने इस पर ख़ूब मेहनत की और उनकी कोशिशें क़ाबिले-क़दर हैं और उनके हम बेहद शुक्र गुज़ार हैं कि उन्होंने वक़्त निकाल कर इस रास्ते में जद्दो जहद की । चुनांचे अब वो अंदाज़ा लगाऐं कि उन पर ये किस क़दर वाजिब हो जाता है कि वो इस मामले में जद्दो जहद करें अगर एक मर्तबा उन्हें मालूम हो जाए कि मामला इक़ामते दीन से संबधित है? अगरचे सीरत की किताबें उस बुलंद पाए की नहीं हैं कि उनमें मौजूद तमाम रिवायात को मुकम्मल तौर पर सच मान लिया जाये लेकिन इस दर्जे से नीचे भी नहीं हैं कि इनमें मौजूद तमाम रिवायात और वाक़ेआत का इनकार कर दिया जाये।

यक़ीनन सीरत के लेखको ने इतिहास लेखन के मैदान में काम किया और इस काम में उन्होंने मुहद्दिसीन के तौर तरीक़ों पर ऐसी सख़्ती से पाबंदी नहीं की जैसी मुहद्दिसीन रिवायत को इकट्ठा करते वक़्त इन तरीक़ों पर सख़्ती से पाबंदी किया करते हैं, इसी तरह उन्होंने रावियों और नक़ल करने वालों के काबिले-एतिमाद होने और जो कुछ नक़ल किया जा रहा है उसके सही होने के बारे में, निहायत सन्क्षिप्त अंदाज़ और नक़ल करने में बारीकी इख़्तियार करने के एहतिमाम में वैसी सख़्ती नहीं की जैसी कि मुहद्दिसीन करते हैं । जिसकी वजह से उल्मा-ए-हदीस और मुहक़्क़िक़ीन की नज़रों में सीरत निगार अफ़राद सहूलत पसंद (complacent) लोग क़रार पाए। सच्चाई यह है की इल्मे हदीस उसी तहक़ीक़ और रिवायात का तक़ाज़ा करता है जिसे मुहद्दिसीन और माहिरीने हदीस ने खुद से की है.

इल्म सीरत के इस पहलू जिसका ताल्लुक़ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा (رضی اللہ عنھم) की सीरत से था तो इसका भी ये तक़ाज़ा था कि इसके लिए तहक़ीक़ी तरीक़ा इख़्तियार किया जाता । इसके अलावा जो दूसरा पहलू है जो कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) या सहाबा (رضی اللہ عنھم) के बारे में नहीं है तो उसकी मालूमात में सहूलत पसंदी इख़्तियार करने में कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि हालात और वाक़ेआत बहुत ज़्यादा होते हैं और ज़माना बहुत तेज़ी से गुज़रता है चुनांचे सीरत निगार या इतिहासकार अगर उनके लिए भी मुहद्दिसीन के तहक़ीक़ी तरीके-कार को इस्तिमाल करे तो इसके लिए उन तमाम हालात और वाक़ेआत का अहाता करना नामुमकिन हो जाएगा। लिहाज़ा सीरत में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की ज़िंदगी से संबधित पहलू को निहायत एहमीयत देना मुसलमानों पर लाज़िम है क्योंकि इस पहलू में वो ख़बरें और मालूमात पाई जाती हैं जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की रिवायात, आप (صلى الله عليه وسلم) के अफ़आल, आप (صلى الله عليه وسلم) की जानिब से मंज़ूरी व इजाज़त और आप (صلى الله عليه وسلم) की ख़ूबीयों का बयान हैं और यह तमाम बातें क़ुरआन की तरह शरअ का हिस्सा बनती हैं । चुनांचे सीरते-रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) इस्लामी शरअ का हिस्सा है और इसी वजह से उसे हदीस का अंश माना जाता है जो चीज़ें रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से साबित हो वो शरई दलील है क्योंकि वो सुन्नत है। उम्मीद है कि हम सब जानते हैं कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी को लाज़िम क़रार दिया है, क़ुरआन ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की इत्तिबा का हुक्म दिया है: 

لَّقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِى رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٌ۬
“यक़ीनन तुम्हारे लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) बेहतरीन नमूना हैं ।” {33:21}

इसलिए सीरत की तरफ ध्यान केन्द्रित करना और उसकी पैरवी करना शरई हुक्म है।

शुरूआती दौर में सीरत को नक़ल करने के तरीक़े में ख़बरों को बयान किया जाता था और ख़बरों पर भरोसा किया जाता था । इतिहासकारो ने उसको ज़बानी अंदाज़ में बयान करना शुरू किया । वो अव्वलीन नस्ल जो ख़ुद रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के आमाल और वाक़ेआत के गवाह थे या उसके मुताल्लिक़ ख़बरें सुनीं इस पहली नस्ल ने उन आमाल और वाक़ेआत को दूसरों को बयान करना शुरू किया। फिर दूसरी अगली नस्ल ने इन आमाल और वाक़ेआत को पहली नस्ल (रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के दौर की नस्ल) से सुन कर बयान किया, दूसरी नस्ल में से कुछ ने इन ख़बरों को विविध अंदाज़ में विभिन्न तौर पर लिखना शुरू किया जो कि अब तक अहादीस की किताबों की शक्ल में मौजूद हैं । इसके बाद दूसरी सदी हिजरी की शुरूआत में हम देखते हैं कि बाअज़ उल्मा ने सीरत से संबधित ख़बरों को जमा करना और बाअज़ ख़बरों को बाअज़ के साथ जोड़ कर उन्हें तर्तीब देना शुरू किया और उन्होंने इन ख़बरों को उनके रावियों और जिनसे नक़ल किया गया उन तमाम के नाम के साथ लिखा । चुनांचे इस दौरान सीरत की ख़बरों को रिवायात के तरीके-कार के मुताबिक़ लिखा गया जिस तरह हदीस रिवायत की जाती है। सीरत की रिवायात की तर्तीब हो जाने से अब हदीस के उल्मा और अस्नाद (chain of transmission) की तहक़ीक़ और तफ्तीश करने वालों के लिए मुम्किन हो गया था कि सीरत से संबधित क़ाबिले-क़बूल, सही और कमज़ोर, ग़लत रिवायात के बीच फ़र्क़ कर सकें क्योंकि रावियों और सनद को समझने से उसको मालूम किया जा सकता है। चुनांचे सीरत से जब कुछ दलील पेश की जाती है तो उसी तरीक़े पर एतबार किया जाता है ताकि सही दलील बतलाई जा सके । पस ज़रूरत इस बात की नहीं है कि इस्लामी उलूम में कोई नया इल्म वजूद में लाया जाये अलबत्ता रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के क़ौल व फ़ेअल में बारीकबीनी और सही सनद की तलाश ज़रूरी है । लिहाज़ा मुहक़्क़िक़ीन अगर सीरत की तहक़ीक़ का एहतिमाम करें ये काम दुशवार नहीं है। कुछ फ़िक्रमंद हज़रात ने इस काम को अंजाम दिया भी है और सीरत में तहक़ीक़ करके सही को मालूम किया है क्योंकि वो जमात या हिज़्ब जो इक़ामते दीन में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करती है उसके लिए इन नुसूस की तहक़ीक़ करना लाज़िमी है जिनसे वो काम की ख़ातिर दलील हासिल करके सुन्नत पर मुतमईन हो जाये।

मज़ीद ये कि सीरत की किताबों में इख़्तिलाफ़ (मतभेद) होने के बावजूद वो दावत के मराहिल (stages) और उनमें किए गए अफ़आल पर आपस में इत्तिफ़ाक़ करतीं हैं क्योंकि अहादीस और क़ुरआन से सही वाक़ेआत की तरफ़ निशानदेही हो जाती है जैसा कि हदीस में इख़्तिलाफ़ के दौरान कई मर्तबा क़ुरआन शरीफ़ से सही राय की जानिब निशानदेही हो जाती है और क़ुरआने-करीम ने दावत की तफ़ासील (details) पर इस क़दर और ऐसे अंदाज़ में रोशनी डाली है कि ये तफ़ासील, सीरत की रिवायात में जो कुछ नक़ल किया गया है उनकी सेहत को मालूम करने के लिए काफ़ी हैं । क़ुरआन में कई जगह बड़ी वज़ाहत से हुक्म बयान हुए हैं जो साफ़ तौर पर आवश्यक अमल को बयान कर देते हैं और ये क़तई अहकाम हैं । इस तरह क़ुरआने-करीम दावत के मराहिल और आमाल की तरफ़ रहनुमाई करता है

मिसाल के तौर पर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने झूटे अक़ाइद पर हमला शुरू किया और बुतों, नास्तिकता, यहूदियत, मजूसियत और दीन से पलटने वाले साबईन की ज़बरदस्त मुख़ालिफ़त और मुज़म्मत की, क़ुरआन ने कई आयात में इस बात का तज़किरा किया है। इसी तरह रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने रसमो रिवाज पर हमला किया जब आप (صلى الله عليه وسلم) ने आदात और आराफ़ (customs and traditions) के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई जैसे बच्चीयों को ज़िंदा क़ब्र में दफ़न करना, ऊंटनी को आवारा चरने के लिए छोड़ देना (वसीला ), जुड़वां बच्चों की चाहत में बुतों पर बिल्ली और चढ़ावे चढ़ाना और तीर के ज़रीये फ़ाल निकालना वग़ैरा । इसके अलावा आप (صلى الله عليه وسلم) ने हुक्मरानों की मुख़ालिफ़त की जो समाज की ख़राबियों को ज़िंदा रखते थे, और आप(صلى الله عليه وسلم) ने उन तमाम के नाम लेकर उनके बरताव और करतूत बयान किए और दावत के ख़िलाफ़ उनकी साज़िशों को बेनकाब कर के उन सरदारों का सामना किया, जमात पर भी इन तमाम बातों को अंजाम देना लाज़िम है। जमात पर हुक्म इन तमाम आमाल की अस्ल और इसके आम माअनी (मक़सद) पर पाबंदी की ख़ातिर होगा ना कि उनकी तफ़सीलात, संसाधन और उस्लूब पर पाबंदी का हुक्म होगा यानी ये काम ज्यों का त्यों अंजाम ना दिये जाऐंगे बल्कि आज के हालात में आज की ख़राबियों पर हमले करना और इसके लिए मौजूदा हालात के मुताबिक़ उचित और मुनासिब संसाधन, उस्लूब इख़्तियार करना ये असल हुक्म होगा। यूं जमात भी अपने ज़माने में मौजूद ग़लत विचारों, ग़लत अवधारणाओं और इस्लाम से भटके हुए रसमों रिवाज और आदात पर हमले करेगी, हुक्मरानों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होगी उनकी साज़िशों को बेनकाब करेगी, इस्लाम के अफ़्क़ार और अहकाम को साफ़ साफ़ खोल कर बयान करेगी उम्मत को उन पर अमल करने उनको इख़्तियार करने और ज़िंदगी में उनको नाफ़िज़ करने के लिए साथ मिल कर काम करने की दावत देगी।

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने तन्हा विभिन्न बुराईयों और दीगर हुक्मरानों के बीच कोई फ़र्क़ और किसी की तरफदारी किए बगै़र इन सब का मुक़ाबला किया जबकि आप (صلى الله عليه وسلم) और आप (صلى الله عليه وسلم) की जमात निहत्ते, ग़ैर-मुसल्लह और किसी दिफ़ा के बगै़र थे और ना ही आप (صلى الله عليه وسلم) किसी दरमयानी हल और समझौते पर कभी राज़ी हुए और ना किसी की ख़्वाहिशात की परवाह की। हर किस्म की मुफ़ाहमत (सन्धि/मध्यमार्ग) की पेश कशों को ठुकराया और धमकीयों से झुके नहीं अलबत्ता सब्र किया और अपने रब के हुक्म की कभी नाफ़रमानी नहीं की और ना इससे ग़फ़लत बरती। हमें क़ुरआन ने ये तमाम बयान किया है चुनांचे एक जमात के लिए यही हिदायात हैं और इसके काम का सही तरीक़ा है। चुनांचे अल्लाह 
(سبحانه وتعالى) के इस फ़रमान का नुज़ूल कि

فَٱصۡدَعۡ بِمَا تُؤۡمَرُ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ
“तुम्हें जो हुक्म दिया जा रहा है उसको खोल कर बयान करें ।” (15उल-हिजर94)

ये आयत (हुक्म) इस बात की दलील है कि इस आयत के नाज़िल होने से पहले तक दावत ऐलानीया तौर पर मौजूद नहीं थी बल्कि ढके छिपे अंदाज़ में खु़फ़ीया तौर पर की जाती थी और ये दौर आप (صلى الله عليه وسلم) के दावती अमल में ऐलानीया दावत से पहले का मरहला है। इसी तरह अल्लाह (سبحانه وتعالى) का ये इरशाद कि: 

وَلِتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَاۚ
“और तमाम अल-क़ुरा (मक्का) और इसके आस पास वालों को डराओ।”  (6अल-आनाम92)

ये दावत को फैला कर मक्का से बाहर ले जाने का हुक्म है और क़ुरआन में मुहाजिरीन और अंसार का ज़िक्र किया जाना हिजरत व नुसरत के शरई हुक्म और अमल होने की दलील है।

यूं इस दावत का क़ुरआन ही सबसे बड़ा रहनुमा है। इसके अलावा अहादीस की किताबें मक्की अहद में मुसलमानों के हालात के बारे में रिवायतों से भरी पड़ी हैं । मिसाल के तौर पर बुख़ारी में पूरा एक बाब: “मुशरिकीन मक्का ने नबी (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा (رضی اللہ عنھم) के साथ क्या बरताव किया है” जिसमें वो खब्बाब (رضي الله عنه) बिन अल-अरत की हदीस का ज़िक्र करते हैं जब वो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के पास मुसलमानों की मदद के लिए दुआ करवाने के लिए आए। इसी तरह बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का क़ुरैश के सरदारो को बद-दुआ देने के वाक़िए को बयान किया, इसके अलावा जब रसूल (صلى الله عليه وسلم) ताइफ गए तो क़ौम ने कैसा सख़्त सुलूक किया उसको बयान किया है। ये और इस किस्म के वाक़ेआत हदीस की दूसरी किताबों में भी बयान हुए हैं, चुनांचे हम ऐसे किसी फ़रमान को अंजाम देने के लिए नहीं खड़े हुए हैं कि जिसका कोई हुक्म मौजूद नहीं है और ना ही कोई इबारतें पाई जाती हैं, हमें सिर्फ़ इन नुसूस पर तहक़ीक़ और इन पर अमल करना है।

यहां ये बात भी बयान कर देना ज़रूरी है कि कुछ सीरत के लेखक ख़ुद ही निहायत क़ाबिले-एतिमाद और भरोसेमंद हैं जिनकी गवाही दीगर कई उल्मा ने भी दी है जैसे:

इब्ने इस्हाक़ (رحمت اللہ علیہ) (85-152हि) ने एक किताब अलमग़ाज़ी (फ़ौजी मुहिमात) लिखी, आप (رحمت اللہ علیہ) के बारे में अल-ज़हरी फ़रमाते हैं कि: “जो कोई रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दौर में फ़ौजी अभियान को पढ़ना चाहे उसको चाहिए कि इब्ने इस्हाक़ (رحمت اللہ علیہ) को पढ़े ।” इमाम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ) फ़रमाते हैं: “जो कोई रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दौर की फ़ौजी मुहिमात (अभियानों) के बारे में महारत हासिल करना चाहे उसे सिर्फ़ इब्ने इस्हाक़ पर निर्भर होना चाहिए ।” इमाम बुख़ारी (رحمت اللہ علیہ) ने भी अपनी तारीख़ में इनका ज़िक्र किया है।

इब्ने साद (رحمت اللہ علیہ) (168-230हि), आप (رحمت اللہ علیہ) की किताब अल-तबक़ात (the generations) है। आप (رحمت اللہ علیہ) के बारे में अल-ख़तीब अल-बग़दादी ने फ़रमाया: “हमारे नज़दीक मुहम्मद बिन साद अहले अदालत (people of trust) में से हैं आप की बात से आप की सच्चाई आशकारा हो जाती है आप अपनी अक्सर रिवायात के बारे में तहक़ीक़ करते हैं ।” इब्ने ख़ुलक़ान ने आप के बारे में फ़रमाया: “आप ईमानदार, सच्चे और काबले-एतिमाद थे ।” इब्ने हजर ने आप के बारे में फ़रमाया: “वो अज़ीम शख़्सियात में से थे और काबले-एतिमाद हुफ़्फ़ाज़ थे जिन्हें अक्सर अहादीस हिफ़्ज़ थीं और अज़ीम तन्क़ीद निगार थे।”

अल-तबरी (رحمت اللہ علیہ) (224-310हि) आप की किताब तारीख़ अल-रसूल वल-मुलूक (तारीख़ अन्बिया और हुक्मरानों की) है जिसमें आप ने अस्नाद के तरीक़े को इख़्तियार किया है। अल-ख़तीब अल-बग़दादी ने आप के बारे में कहा है: “आप सुन्नत (अहादीस), हदीसों की रिवायतों के सिलसिले, कमज़ोर अहादीस में से मज़बूत हदीस की पहचान यानी सही और ग़लत के बीच फ़र्क़ करने वाले आलिम थे, लोगों और उनके हालात वो औक़ात से बाख़बर थे।” आप की किताब में हदीस की कसीर तादाद होने की वजह से आप ने अपनी किताब ‘तारीख़’ में मुहद्दिसीन के तरीक़े को इख़्तियार किया। हदीस में भी आप की एक किताब है जिसका नाम (तहज़ीब आसार व तफ़सील अत-हाबित अन रसूलुल्लाहि صلى الله عليه وسلم मिनलअख़बार) है । जिसके बारे में इब्ने असाकिर ने कहा: “ये आश्चर्य जनक किताब है जिसमें आप ने रसूल (صلى الله عليه وسلم) की सहीह अहादीस को जमा किया।”

इस तरह इब्ने कसीर (رحمت اللہ علیہ) और अल-ज़ेहबी (رحمت اللہ علیہ) भी उन लोगों में से हैं जिनको हदीस में महारत हासिल थी।

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