फ़राइज़ में तर्जीहात


फ़राइज़ में फ़र्ज़ ऐनी को अंजाम देना शरअ की अव्वलीन तर्जीहात में है। जब एक मुसलमान फ़र्ज़ ऐनी और फ़र्ज़ किफ़ाया सब अंजाम देने काबिल हो तो यही वोह चीज़ है जो दरकार है चुनांचे उसके लिए किसी तकलीफ़ और परेशानी की बात नहीं है।

अलबत्ता अगर दोनों भी किस्म के फ़राइज़ एक ही वक़्त में अंजाम देने के लिए उसके सामने पेश हो और वो सिर्फ़ किसी एक को अंजाम दे सकता हो तो ऐसी सूरत में फ़र्ज़ ऐनी को फ़र्ज़ किफ़ाया पर तर्जीह हासिल है और उसे फ़र्ज़ ऐनी अंजाम देना है। अगर विभिन्न फ़र्ज़ ऐनी एक ही वक़्त में अंजाम देने के लिए इसके सामने पेश हो तो इन विभिन्न फ़र्ज़ ऐनी के बीच कश्मकश की सूरत में तर्जीह का फ़ैसला अक़्ल की बुनियाद पर नहीं होगा बल्कि शरअ उसकी तर्जीह तय करेगी जिसने अहकाम पेश किए हैं और जिसने तमाम फ़राइज़ की तर्जीहात निर्धारित कर दी हैं। चुनांचे अहले-ख़ाना के लिए नान नफ़क़ा मयस्सर करना क़र्ज़ की अदायगी पर तर्जीह रखता है और क़र्ज़ की अदायगी हज के ख़र्चों को पूरे करने पर तर्जीह रखती है। रमज़ान के रोज़े मन्नत और नज़र के रोज़े पर तर्जीह रखते हैं, जुमा की नमाज़ किसी फ़र्द से किए हुए वादे पर तर्जीह रखती है बिलकुल इसी तरह अगर दीगर दो या दो से अधिक फ़र्ज़े किफ़ाया एक ही वक़्त में अंजाम देने के लिए इसके सामने पेश हो और एक ही वक़्त में उन अफ़आल को अंजाम देना नामुमकिन हो तो इस सूरत में भी तर्जीह का फ़ैसला अक़्ल की बुनियाद पर नहीं होगा बल्कि शरअ तय करेगी वो जिसने ऐसी कश्मकश में कुछ फ़राइज़ को दीगर फ़राइज़ पर फ़ौक़ियत देकर उनकी तर्जीहात निर्धारित की हैं यह विषय काफ़ी विस्तृत और जटिल है इसकी वजह ये है कि कई फ़र्ज़ किफ़ाया ऐसे हैं जो काफ़ी दुशवार हैं इसके अलावा उनकी अंजामदेही के लिए अथाह पूंजी की ज़रुरत होती है तो कहीं ऐसे फ़र्ज़ किफ़ाया हैं जिनकी ख़ातिर निरंतर अनथक जद्दो-जहद और लंबी अवधि की आवश्यकता होती है और ऐसे फ़राइज़ बकसरत है लिहाज़ा इन तमाम फ़राइज़ को मुसलमान के लिए एक ही वक़्त में अंजाम देना ना-मुम्किन हो जाता है चुनांचे मुसलमान के लिए ज़रूरी हो जाता है कि वो कुछ फ़राइज़ को अंजाम दे और उनकी ख़ातिर कुछ फ़राइज़ छोड़ दे । किन फ़राइज़ को वो अंजाम दे और किनको वो छोड़े ? ये फ़ैसला ज़ाती नफ़्सानी ख़्वाहिशात, अक्ली दलायल और निजी शौक़ या दिलचस्पी की बुनियाद पर हरगिज़ नहीं किया जा सकता बल्कि ये चयन सिर्फ़ फ़िक़ही तर्जीहात के आधार पर किया जा सकता है जिसमें तर्जीहात का फ़ैसला शरअ सुनाएगी। ये बात उन शरई क़राईन से अख़ज़ करदा (प्राप्त) है जो इन फ़राइज़ की शरई हैसियत को स्पष्ट करते है

फ़राइज़ किफ़ाया जो सबसे ज़्यादा अहम तरीन हैं

मिसाल के तौर पर जब हम ये तय करते हैं कि फ़राइज़ किफ़ाया की तर्जीहात कि तुलान के पैमाने में अव्वलीन दर्जे पर रियासते इस्लामी का क़याम आता है ।
ये फ़ैसला हम निम्न में मज़कूर शरई नुसूस (क़ुरआन व सुन्नत में नाज़िल करदा उसकी तफ़सीलात की इबारत) से अख़ज़ होता है

ऐसी आयतों की कसीर तादाद है जो ख़ालिस्तन अल्लाह की नाज़िल करदा आयात के मुताबिक़ हुकूमत करने का हुक्म देती हैं और ये कई जगहों पर क़ुरआन शरीफ़ में बयान हुई हैं चुनांचे अल्लाह (ربُّ الارباب) इरशाद फ़रमाते हैं :


﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ﴾ {5:44}

“.... और जो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ फ़ैसले ना करें वो लोग काफ़िर हैं ।”
﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أنزَلَ اللّهُ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ﴾ {5:45}

“... और जो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ फ़ैसले ना करें वो लोग ज़ालिम हैं ।”
﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ﴾ {5:47}

“.... और जो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ फ़ैसले ना करें वो लोग फ़ासिक़ हैं ।”
﴿يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُواْ إِلَى الطَّاغُوتِ وَقَدْ أُمِرُواْ أَن يَكْفُرُواْ بِهِ﴾ {4:60}

“और चाहते यह है कि अपना मुक़दमा एक सरकश के पास ले जाकर फैसला करायें हालांकि उनको हुक्म दिया गया था कि उसका इनकार करदे ”

﴿فَلاَ وَرَبِّكَ لاَ يُؤمِنُونَ حَتَّىَ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ﴾ {4:65}


“फिर क़सम है आप (صلى الله عليه وسلم) के रब की ये लोग ईमानदार न होंगे जब तक के ये बात न हो के इनके आपस में जो झगड़ा वाक़ेअ हो इसमें ये लोग आप (صلى الله عليه وسلم) से फैसला ना करा लें । ....”

﴿وَأَنِ احْكُم بَيْنَهُم بِمَا أَنزَلَ اللّهُ وَلاَ تَتَّبِعْ أَهْوَاءهُمْ﴾ {5:49}
“और हम मुकर्रर हुक्म देते है के आप (صلى الله عليه وسلم) इनके आपसी मामलात में इस भेजी हुई क़िताब के मुआफ़िक़ फ़ैसला कीजिये और इनकी ख़्वाहिशों पर अमल न कीजिये ....”

﴿أَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُونَ وَمَنْ أَحْسَنُ مِنَ اللّهِ حُكْماً لِّقَوْمٍ يُوقِنُونَ﴾ {5:50}

“तो क्या फ़िर जाहिलीयत का फ़ैसला चाहते हैं हालांकि जो लोग यक़ीन रखने वाले हैं उनके यहाँ अल्लाह से बेहतर और कोई फैसला करने वाला नहीं”

इन तमाम नुसूस और दूसरी संबधित नुसूस की इताअत व पाबन्दी और अमल दरआमद एक ऐसी इस्लामी रियासत की मौजूदगी पर टिके हुए है जो ख़ालिस अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करे ताकि उसके नतीजे में मुसलमान इन उल्लेखित अहकाम की इताअत और पाबंदी इख्तियार कर पाऐं।

इसी तर्ज़ पर क़ुरआन शरीफ़ में अधिकतर जगहों पर विभिन्न आयात के ज़रीये अल्लाह की नाज़िल करदा हदूद को क़ायम करने का हुक्म दिया गया है मिसाल के तौर पर अल्लाह (رب ذوالجلال) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُوا أَيْدِيَهُمَا﴾ {5:38}
“और चोर ख़्वाह मर्द हो या औरत दोनो के हाथ काट दो .....”

﴿الزَّانِيَةُ وَالزَّانِي فَاجْلِدُوا كُلَّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا مِئَةَ جَلْدَةٍ﴾ {24:2}
“ज़िना करने वाली औरत और ज़िना करने वाला मर्द सो इनमें से हर एक को सो दुर्रे मारो ....”

﴿وَالَّذِينَ يَرْمُونَ الْمُحْصَنَاتِ ثُمَّ لَمْ يَأْتُوا بِأَرْبَعَةِ شُهَدَاء فَاجْلِدُوهُمْ
ثَمَانِينَ جَلْدَةً﴾ {24:4}

“और जो लोग (ज़िना) की तोहमत लगाए पाक दामन औरतों को और फिर चार गवाह (अपने दावे पर) न ला सके तो ऐसे लोगो को अस्सी दुर्रे लगाओ ....”


﴿وَمَن قُتِلَ مَظْلُوماً فَقَدْ جَعَلْنَا لِوَلِيِّهِ سُلْطَاناً﴾ {17:33}
“ और जो शख्स ज़ुल्म से क़त्ल किया जाए हमने उसके वारिस को इख्तियार दिया है (के ज़ालिम क़ातिल से क़िसास ले, माफ कर दे या देयत क़बूल ले) ........ ”


﴿إِنَّمَا جَزَاء الَّذِينَ يُحَارِبُونَ اللّهَ وَرَسُولَهُ وَيَسْعَوْنَ فِي الأَرْضِ
فَسَاداً أَن يُقَتَّلُواْ أَوْ يُصَلَّبُواْ أَوْ تُقَطَّعَ أَيْدِيهِم وَأَرْجُلُهُم مِّن خِلافٍ
أَوْ يُنفَوْاْ مِنَ الأَرْضِ﴾ {5:33}

“ जो लोग खुदा और उसके रसूल से लड़ाई करे और मुल्क में फसाद करने को दौड़ते फिरे उनकी यही सज़ा है कि क़त्ल कर दिये जाए या सूली चढ़ा दिये जाये या उनके एक एक तरफ के हाथ और एक एक तरफ के पावँ काट दिये जाए या मुल्क से निकाल दिये जाए ”

इसी तरह विभिन्न अहादीस इस तरह मौजूद हैं जो शराब पीने वालों को कोड़े लगाने का ज़िक्र करती हैं और शादीशुदा मर्द या औरत जो ज़िना ख़ोरी के मुर्तक़ब हो उनको संगसार कर देने का हुक्म देती हैं, दाँत का बदला दाँत, ज़ख़्मी करने की सूरत में मुजरिम से वैसा ही बदला या इतना ही क़िसास (equal retribution) लेना, क़िसास ना दिए जाने की शक्ल में मज़लूम को बदला ख़ून (अरश/blood money) दिलाने का इंतिज़ाम और इन मामलात के लिए ताज़ीरात (discretionary punishment) का क़याम जिनके लिए शरअ ने कोई हद ना बतलाई हो। अहकामात और हदूद जो अल्लाह ने स्वंय वज़ा (legislated) किए हैं उन पर अमल दरआमद दरअसल इस्लामी रियासत के वजूद पर निर्भर है जो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करे और इसके ज़रीये मुसलमान अल्लाह के इन अहकामात और हदूद के मुताल्लिक़ अल्लाह की इताअत और पाबंदी कर सकें और पूरे इस्लाम में दाख़िल हो सकें ताकि अल्लाह (سبحانه وتعالى) तमाम मुसलमानों से राज़ी हो जाये।
इसी तरह क़ुरआन शरीफ़ में अधिकतम जगहों पर विभिन्न आयात के ज़रीये अल्लाह की राह में जिहाद को अंजाम देने की रुख़ पर अहकाम नाज़िल हुए हैं जैसे अल्लाह (الجبّار) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿انْفِرُواْ خِفَافاً وَثِقَالاً وَجَاهِدُوا بِأَمْوَالِكُمْ وَأَنفُسِكُم  فِي سَبِيلِ اللّهِ﴾ {9:41}
“निकल पड़ो (ख्वाह) थोड़े सामान से (हो) और (ख्वाह) ज़्यादा सामान से (हो) और अल्लाह की राह मे अपने माल और जान से जिहाद करों”


﴿قَاتِلُواْ الَّذِينَ لاَ يُؤمِنُونَ بِاللّهِ وَلاَ بِالْيَوْمِ الآخِرِ وَلاَ يُحَرِّمُونَ
مَا حَرَّمَ اللّهُ وَرَسُولُهُ وَلاَ يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا
الكِتَابَ حَتَّى يُعْطُواْ الْجِزْيَةَ عَن يَدٍ وَهُمْ صَاغِرُونَ﴾ {9:29}

 “उन लोगो से लड़ो जो अल्लाह पर और   आखिरत के दिन पर ईमान नहीं लाते और, न उसे हराम जानते है जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने हराम किया और सच्चा दीन क़बूल नहीं करते उन लोगो में से जो अहले क़िताब हैं यहाँ तक कि ज़लील होकर अपने हाथ से जिज़्या दें”


﴿وَقَاتِلُواْ الْمُشْرِكِينَ كَآفَّةً كَمَا يُقَاتِلُونَكُمْ كَآفَّةً﴾ {9:36}

“और तुम सब मुश्रिको से लड़ो जैसे वोह सब तुम से लड़ते है”

﴿وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّى لاَ تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ لِلّهِ﴾ {2:193}
 “और उनसे लड़ो यहाँ तक कि फसाद बाक़ी न रहें और अल्लाह का दीन क़ायम हो जाए”

﴿وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا اسْتَطَعْتُم مِّن قُوَّةٍ وَمِن رِّبَاطِ الْخَيْلِ تُرْهِبُونَ
بِِِهِ عَدْوَّ اللّهِ وَعَدُوَّكُم وَآخَرِينَ مِن دُونِهِمْ لاَ تَعْلَمُونَهُمُ
اللّهُ يَعْلَمُهُم﴾ {8:60}

“और उन से लड़ने के लिए जो कुछ (सिपाहीयाना) क़ुव्वत से पले हुए घोड़ो से जमा कर सको सो तैयार रखो कि इससे अल्लाह के दुश्मनो पर और तुमहारे दुश्मनों पर और उनके सिवा दूसरो पर जिन्हें तुम नहीं जानते अल्लाह जानता है, हैबत पड़े ।”

तमाम मुसलमानों का इन नुसूस और संबधित आयात व अहादीस की इताअत और पाबंदी कर पाने और उन पर अमल दरआमद करने का इन्हिसार इस्लामी रियासत की मौजूदगी पर है जो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करती है। कई अहादीस ऐसी हैं जो बतलाती हैं कि यौम आख़िर तक जिहाद जारी रहेगा और किसी आदिल का अदल और ज़ालिम का ज़ुल्म उसे रोक नहीं पाएगा। यानी मुसलमान पर फ़र्ज़ है कि जब भी जिहाद लाज़िम हो जाए वो जिहाद में हिस्सा ले चाहे इस्लामी रियासत मौजूद हो या ग़ैर मौजूद हो यानी किसी अमीर के मातहत जिहाद जारी रहेगा अमीर चाहे नेक हो या बद। अलबत्ता आज हम देख सकते हैं कि मुस्लिम हुक्मरान जिहाद पर कारबन्द नहीं हैं और ना ही वो अल्लाह (سبحانه وتعالى) की राह में जिहाद की दावत देते हैं बल्कि जब वो जंग वजदाल के लिए हुक्म जारी करते हैं तो सिर्फ़ आपस में मुसलमानों के बीच आपसी फ़साद और लड़ाई के फ़रमान देते हैं उनके हथियार सिर्फ़ मुसलमानों ही ख़िलाफ़ इस्तिमाल होते हैं और वो अपना ये बातिल अमल तब तक जारी रखेंगे जब तक ऐसे लोग जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) और यौम आख़िरत के हक़ीक़ी मोमिन हैं उनके ख़िलाफ़ उठ खड़ें हों और उनकी छोटी छोटी कुफ्र सल़्तनतों का क़िला ध्वस्त करके उनकी जगह एक वाहिद इस्लामी रियासत क़ायम नहीं कर लेते जो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करेगी चुनांचे बात के ज़रीये जिहाद को मुअत्तल करने की सूरत में मुसलमान उम्मत को हुक्मरानों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होकर जिहाद के इस मुक़द्दस सिलसिला को जारी रखना होगा

इसके कई आयात ऐसी हैं जो इस्लाम के आफ़ाक़ी पैग़ाम को तमाम आलिम तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उम्मते मुस्लिमा के सपुर्द करती हैं और इस उम्मत को तमाम अगली पिछली अक़्वाम आलिम में सबसे बेहतरीन उम्मत बतलाती हैं :

﴿كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ
وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَتُؤمِنُونَ بِاللّهِ﴾ {3:110}

“तुम वो बेहतरीन उम्मत हो जो लोगों की ख़ातिर बरपा की गई है, तुम नेकी का हुक्म देते हो बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो ।” (आले इमरान: 110)
﴿وَلِلَّهِ الْعِزَّةُ وَلِرَسُولِهِ وَلِلْمُؤمِنِينَ﴾ {64:8}

“और इज़्ज़त तो अल्लाह और उसके रसूल और मोमिनो के लिए ही है”
﴿وَلَن يَجْعَلَ اللّهُ لِلْكَافِرِينَ عَلَى الْمُؤمِنِينَ سَبِيلاً﴾ {4:141}

“और अल्लाह काफिरो को मोमिनो पर हरगिज़ ग़लबा नहीं देगा”
लोगों के मुताल्लिक़ गवाही। अल्लाह (ربّ العزّت) का इरशाद है :
﴿وَكَذَلِكَ جَعَلْنَاكُم أُمَّةً وَسَطاً لِّتَكُونُوا شُهَدَاء عَلَى النَّاسِ
وَيَكُونَ الرَّسُولُ عَلَيْكُمْ شَهِيداً﴾ {2:143}

“और हमने तुम्हें उम्मत-ए-वस्त (दरमयानी उम्मत) बनाया ताकि तुम इंसानों पर गवाह रहो और रसूल तुम पर गवाह हो ।”

कोई क़ुव्वत, कोई इक़्तिदार, कोई रियासत अगर मोमिनों के क़ब्ज़े में नहीं हो तो फिर क्योंकर मुम्किन है कि ईमान वालों की इज़्ज़त और अस्मत महफ़ूज़ रहे और कुफ़्फ़ार को उन पर सितम दराज़ी के लिए छूट ( ग़लबा की कोई राह ना) ना मिले जबकि कोई क़ुव्वत उनके पास ना हो? चुनांचे वो किस तरह ग़ैर क़ौमों को मारूफ़ का हुक्म दे सकेंगे और मुनकर से रोक सकेंगे जबकि अपने घर में वो ख़ुद मारूफ़ की दावत ना दे सकते हो इसका हुक्म ना कर सकते हो मुनकर को रोकने का इख्तियार ना रखते हो? चुनांचे एक ऐसी इस्लामी रियासत की ग़ैर-मौजूदगी में इन तमाम अफ़आल को अंजाम देना नामुम्किन है जो ख़ालिस्तन अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करती हो इस तरह मोमिनीन अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर के अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्म की इताअत और पाबंदी और उम्मत की ख़ासीयत की शर्त को पूरा नहीं कर सकते रियासत इस्लामी की ग़ैर-मौजूदगी में ।
इसके अलावा ऐसी कई अहादीस हैं जो तमाम मुसलमानों को एक इमाम और एक अमीर के तहत आने का हुक्म देती हैं जिसको वो किताबुलल्लाह और सुन्नत रसूलुल्लाह पर बैअत देकर दुनिया और आख़िरत में महफ़ूज़ रह सकेंगे

((و من مات و ليس في عنقه بيعة مات ميتة جاهلية))
“और जो इस हाल में मिरा कि उसकी गर्दन में (ख़लीफ़ा की)बैअत का तविक ना हो तो वो गोया जाहिलियत की मौत मरा ।” 
फ़रमाया:

((إنما الإمام جنة يقاتل من ورائه و يتقى به))
“इमाम ही ढाल है जिसकी पुश्तपनाही में लड़ा जाता है और इसके ज़रीये तहफ़्फ़ुज़ हासिल होता है ।”
इरशाद है:

((مَن كره مِن أميره شيئاً فليصبر عليه فإنه ليس أحد
مِن الناس خرج مِن السلطان شبراً فمات عليه إلا مات
ميتة جاهلية))

“जिसको उसके अमीर की कोई बात पसंद ना आए तो उसको चाहिए कि इस पर सब्र करे क्योंकि लोगों में से जो भी सुल्तान (शरई इख्तियार के हामिल शख़्स) से एक बालिशत भी जुदाई इख्तियार करेगा और उसी हालत में मरेगा तो वो जाहिलियत की मौत मरेगा ।”

सहाबा किराम (رضوان اللہ علیہم اجمعین) का इस बात पर इजमा था कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की वफ़ात के बाद रसूलुल्लाह के ख़लीफ़ा (जांनशीन) कि नियुक्ति करना फ़र्ज़ है चुनांचे वो हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (رضي الله عنه) को बैअत देकर अपना अमीर, इमाम और ख़लीफ़ा तस्लीम करने के लिए सहमत हुए, उनकी वफ़ात के बाद उमर फ़ारूक़ (رضي الله عنه) के लिए, उनके बाद उसमान ज़ुलनुरेन (رضي الله عنه) के लिए, उनके बाद अली अल-मुरतज़ा (رضي الله عنه) को ख़लीफ़ा तस्लीम करने के लिए सहमत हुए। तमाम सहाबा किराम (رضوان اللہ علیہم اجمعین) पूरी ज़िन्दगी उम्मत के अमीर यानी ख़लीफ़ा के चुनाव और नियुक्ति की फ़र्ज़ीयत पर सहमत थे। हालाँकि इनमें इस मामले में इख़्तिलाफ (मतभेद) ज़रूर हो सकता है कि ख़लीफ़ा कैसे चुना जाये लेकिन ख़लीफ़ा के क़याम के फ़रीज़े से संबधित मसले में इख़्तिलाफ़ कभी भी प्रकट नहीं हुआ।

इसी तरह इस्लामी समाज में ज़िंदगी गुज़ारने के लिए दरकार ज़रूरीयाते ज़िन्दगी जैसे उद्योग, अदवियातो-मुआलिजात (medicine and hospitals), दवाख़ाना, कारख़ानों, तजुर्बागाहों (laboratories) का क़याम, फ़ौजी क़ुव्वत और ताक़त को तैय्यार और इसमें इज़ाफ़ा करने की ख़ातिर कोशिशें इसी तरह की दीगर ज़रूरीयाते ज़िन्दगी फ़राइज़े किफ़ाया हैं जिनके प्राप्त करने की ज़िम्मेदारी तमाम मुसलमानों पर आइद होती हैं. हालांकि इन मामलात को - जिनमे एक तरफ हर काम की बुनियाद अल्लाह की बंदगी हो और दूसरी तरफ मुसलमानों की तरबियत और इस्लाम के लिये क़ुव्वत हाँसिल करना ताक़ि दावत के फरीज़े को अंजाम दिया जा सके - पूरी तरह से रियासत की ताक़त के बगैर हाँसिल नही किया जा सकता जो खुद इन फराईज़ की अंजामदेही की निगरानी करे और इस तरह से इस्लाम के मक़ासित को हाँसिल किया जा सके.


मुसलमानों की तरफ से इन तमाम मामलात की अंजाम देही नहीं की जा सकती सिवाए इसके कि एक रियासत उन्हें अंजाम दे जो अपनी निगरानी के तहत इन फ़राइज़ के हुसूल का प्रभावपूर्ण इंतिज़ाम इस दर्जा और तर्ज़ पर करे जो इस्लाम की फ़ितरत और अल्लाह की इस सरज़मीन पर उसके ज़हूर के मक़ासिद से मेल खाता हो यानी तमाम इंसानों की ज़िंदगीयां इस्लामी तर्ज़ पर चलने लगे और सिर्फ़ माबूद हक़ीक़ी ईलाह अल-अलामीन की इबादत दुनिया में क़ायम हो ।



इसी तरह इस्लाम ने एक हाकिम पर यह ज़िम्मेदारी आइद कर रखी है कि वो तमाम अवाम को इस्लाम के अहकाम पर पाबंद बनाए जिन्हें शरअ ने उन पर फ़र्ज़ क़रार दिया है ये अहकाम जो हाकिम की ज़िम्मेदारी हैं ख़िलाफ़त की ग़ैरमौजूदगी में मुअल्लक़ (suspended) हो जाते हैं और जब अवाम भी इन अहकाम से रुख़ फेर लेंगी और अवाम की इन अहकाम पर पाबंदी ख़त्म हो जाएगी जो ख़ुद उनसे संबधित थे तब अवाम अपने समाज में से ऐसे हाकिम कभी भी नहीं पा सकेंगे जो उनको फिर से इन अहकाम पर पाबंद बनाए चुनांचे ऐसा होने की सूरत में लोगों से संबधित अधिकतम अहकाम मुअत्तल (suspended) हो जाऐंगे। चुनांचे ज़िंदगी के तमाम पहलूओं में इस्लाम का अमली वजूद क़ायम होने के लिए इस्लामी रियासत की मौजूदगी बुनियादी तत्व बन कर सामने आती है, और जब ये बुनियाद जब ढह जाती है तो बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम के अहकामात ढह जाते हैं और समाज में राइज कुफ़्रिया निज़ामों की बदौलत इस्लामी शरई इबारतें, अल्लाह के अहकाम ग़ैर नाफ़िज़ और ग़ैर अमली होते जाऐंगे, मुसलमान अपनी क़ुव्वत, इज़्ज़त और वक़ार और यहाँ तक कि अपनी मुस्लिम होने की पहचान खोने लगेंगे, मुसलमानों की ज़मीनें (सरज़मीनों) ग़सब हो जाएंगी और उन पर उनके दुश्मनों का तसल्लुत क़ायम हो जाएगा और मुनकिरात आम होने लगेंगे और कोई भी इस्लाही जद्दो-जहद समाज की तब्दीली के लिए अच्छे खासे परिणाम नहीं दे सकेंगी ।
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