आपस में हक़ की वसीयत ( तोसी/ADMONITION) दावत का हिस्सा है :

क़ुरआन और सुन्नत ने दावत के नज़रिए को विभिन्न वाक्यों के द्वारा भी बयान किया है जैसे आपस में एक दूसरे को हक़ की तल्क़ीन (तोसी) करना बशारत (तबशीर) और ख़बरदार (अन्ज़र) करने के लिए भेजना, लोगों पर हक़ को वाज़ेह करना, नसीहत और याददेहानी करवाना और अहले-किताब से अहसन तरीक़े से मुबाहिसा करना, अल्लाह की राह में जिहाद करना, दीन को ग़ालिब करने की जद्दो-जहद करना। इनके अलावा भी दूसरी कई मिसालें हैं ।
अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿وَالْعَصْرِ ! إِنَّ الْإِنسَانَ لَفِي خُسْرٍ ! إِلَّا الَّذِينَ آمَنُوا
وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَتَوَاصَوْا بِالْحَقِّ وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ﴾

“गुज़रते हुए वक़्त की क़सम इंसान यक़ीनन ख़सारा में है सिवाए उन लोगों के जो ईमान लाए और आमाले सालेह करते रहे और एक दूसरे को हक़ की नसीहत और सब्र की तल्क़ीन करते रहे”  (सूरह-असर:1-3)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿وَمَآ أَرۡسَلۡنَـٰكَ إِلَّا ڪَآفَّةً۬ لِّلنَّاسِ بَشِيرً۬ا وَنَذِيرً۬ا وَلَـٰكِنَّ أَڪۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ
“और हमने नहीं भेजा आप (ऐ नबी) को तमाम इंसानियत की तरफ़ सिवाए ख़ुशख़बरी देने और ख़बरदार करने वाला बनाके, लेकिन अक्सर लोग जानते नहीं ।” (सूरह सुबह: 28)
अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿وَمَا أَرْسَلْنَا مِن رَّسُولٍ إِلاَّ بِلِسَانِ قَوْمِهِ لِيُبَيِّنَ لَهُم﴾
“और हमने किसी क़ौम में पैग़ंबर नहीं भेजे सिवाए जो अपनी क़ौम की ज़बान जानता हो, ताकि वो पैग़ाम को उनके सामने साफ़ साफ़ वाज़िह करदे ।” (इब्राहीम:4)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿إِنْ هُوَ إِلَّا ذِكْرٌ لِّلْعَالَمِينَ﴾
“यक़ीनन ये (क़ुरआन) एक याददेहानी के सिवा कुछ नहीं तमाम आलम के लिए (इंसानों और जिनों के लिए) ।” (तकवीर: 72)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿وَإِنَّهُ لَذِكْرٌ لَّكَ وَلِقَوْمِكَ وَسَوْفَ تُسْأَلُون﴾
“और यक़ीनन ये क़ुरआन एक याददेहानी है तुम्हारे (नबी ) और तुम्हारी उम्मत के लिए और (इसके लिए) तुम्हारी बाज़गश्त होगी ।” (सूरह ज़ख़रफ़:44 )

अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿وَجَادِلْهُم بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ﴾
“....उनसे अहसन तरीक़े पर गुफ़्तगु करो ।” (सूरह नहल: 125)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّى لاَ تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ كُلُّهُ لِلّه﴾
और उनसे क़िताल करो यहाँ तल कि फ़ित्ना (कुफ्र) बाक़ी ना बचे और दीन (इबादत) ख़ालिस अल्लाह ही के लिए हो जाये ।” (सूरह अनफ़ाल: 39)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) इरशाद फ़रमाते हैं :

﴿هُوَ الَّذِي أَرْسَلَ رَسُولَهُ بِالْهُدَى وَدِينِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهُ عَلَى الدِّينِ كُلِّهِ وَلَوْ كَرِهَ الْمُشْرِكُونَ﴾
“वही है जिसने अपने रसूल (मुहम्मद) को हिदायत और दीन-ए-हक़ के साथ भेजाता कि वो तमाम ही (दूसरे) अदयान (तरीक़ा ज़िंदगी)पर ग़ालिब आ जाए और मुश्रिकों को कितना ही नागवार क्यों ना गुज़रे ।” (सूरह सफ़: 9)

और अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं :

((ألا إن الدين النصيحة  قال قلنا لمن يا رسول الله قال لله ولرسوله ولكتابه ولأئمة المسلمين وعامتهم))
“बेशक दीन एक नसीहत है", पूछा गया, ऐ रसूलल्लाह किनके लिए ? उन्होंने फ़रमाया : अल्लाह, उसके रसूल, अल्लाह की किताब, नबी, अमीरु मुस्लिमीन और आम लोगों के लिए”  (मुत्तफ़िक़ अलैह हदीस )

सुलेमान बिन बुरीदा अपने वालिद से रिवायत करते हैं जिन्होंने कहा, “जब अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) किसी शख़्स को फ़ौज का सरबराह बनाते या किसी हमले के लिए ज़िम्मेदार बनाते तो उसे समझाते कि वो अल्लाह से (निजी मामलात में ) डरे और उन मुसलमानों के साथ अच्छा बरताव करे जो इसके साथ में हो”

और अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं :
((كان رسول الله (صلى الله عليه وسلم) إذا أقر أميراً على جيش أو سرية أوصاه في خاصته بتقوى الله و من معه من المسلمين خيراً ثم قال: اغزوا باسم الله و في سبيل الله. قاتلوا من الكفر بالله ... و إذا لقيت عدوك من المشركين فادعهم إلى ثلاث خصال (أو خلال) فأيتهن ما أجابوك فاقبل منهم و كف عنهم. ثم ادعهم إلى الإسلام فإن أجابوك فاقبل منهم و كف عنهم ...))

“अल्लाह के नाम के साथ अल्लाह की राह में क़िताल करो, उनसे क़िताल करो जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते। जब मुशरिक दुश्मनों से तुम्हारा सामना हो तो उनके सामने तीन शर्तों पर दावत पेश करो और अगर वो इनमें से किसी एक पर पलट आएं तो क़बूल करलो और ख़ुद को उन्हें कोई नुक़्सान पहुंचाने से बाज़ रहो। उनको इस्लाम (क़बूल करने) की दावत दो, अगर वह पलट आएं तो उन्हें क़बूल करलो और उनके ख़िलाफ़ लड़ाई से बाज़ रहो”  (रिवाया मुस्लिम)

अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) से रिवायत है कि उन्होंने फ़रमाया :

((نضر الله عبداً سمع مقالتي فحفظها و وعاها و أداها, فرُب حامل فقه غير فقيه, و رُب حامل فقه إلى من هو أفقه منه))
“अल्लाह उस बंदे का चेहरा मुनव्वर करदे जो मेरी हदीस सुने और फिर उसे याद कर ले, अच्छी तरह ज़हन नशीन कर ले और फिर लोगों को बयान करे ऐसा भी हो सकता है किसी के पास फ़िक़्ह (इल्म) मौजूद हो और वो फ़क़ीह ना हो। ऐसा भी हो सकता है कि कोई शख़्स इस फ़िक़्ह (इल्म) को किसी ऐसे के पास पहुंचाए जो उससे बेहतर फ़क़ीहा हो”  (रिवाया तिरमिज़ी)

दावत तमाम मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है, इस रू से उल्लेखित मुंदरजा बाला आयात और अहादीस यह बात प्रमाणित करती हैं, इस तरह कि हर एक आयत और हदीस में बज़ाते-ख़ुद एक दावत मौजूद है जो मुसलमानों में से विभिन्न वर्गों में से हर एक व्यक्ति को संबोधित करती है और अपनी इस्तिताअत के मुताबिक़ दावत को अंजाम देने की मांग करती हैं ।

हम अगर दावत से संबधित बाक़ी आयतों के बजाय सिर्फ़ अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर से संबधित आयतों पर ग़ौर करें तो ये आयतें साफ़ तौर पर हमें स्पष्ट तौर बताती हैं कि इस्लाम का यह बुनियादी सतून और अज़ीम फ़रीज़ा तमाम मुसलमानों को संबोधित करता है और इस्लाम के इस अहम स्तंभ की बजा आवरी में तमाम मुसलमानों का शरीक होना लाज़िमी है आईए देखें कि किस तरह अल्लाह (سبحانه وتعالى) अपनी इन आयतों में मुसलमानों के हर एक गिरोह को अपनी दावती ज़िम्मेदारी को अदा करने का हुक्म देते हैं ।
हमारे लिए बेहतरीन नमूना और उस्वा हसना यानी हमारे नबी (صلى الله عليه وسلم) से संबधित आयत बतलाती है :

﴿يَأْمُرُهُم بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَاهُمْ عَنِ الْمُنكَرِ وَيُحِلُّ لَهُمُ الطَّيِّبَاتِ وَيُحَرِّمُ عَلَيْهِمُ الْخَبَآئِثَ﴾
“.... वो उन्हें मारूफ़ का हुक्म देता है और मुनकिर से रोकता है और तय्यबात उनके लिए हलाल करता है और तमाम ख़बाइस को उनके लिए हराम क़रार देता है ।” (अल आराफ़:157)

ये आयते अल्लाह के पैग़ाम की तकमील (completion) को स्पष्ट करती है। वो रसूल (صلى الله عليه وسلم) हैं जिनकी ज़बान से अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हर एक भलाई (मारूफ़) का हुक्म दिया और हर एक बुराई को हराम किया। हर एक तैयब और पाक वस्तु को हलाल किया और हर एक ख़बीस और नजस को हराम किया।
उम्मत से संबधित आयत बतलाती है कि :

﴿كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَتُؤمِنُونَ بِاللّهِ﴾
“तुम वो बेहतरीन उम्मत होजो लोगों की ख़ातिर बरपा की गई है, तुम नेकी का हुक्म देते हो बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो ।” (आले-इमरान: 110)

इस आयत में उम्मत से मुराद उसमें तमाम मुसलमान शामिल हैं जो अफ़राद हो या जमात की शक्ल में हो या साहिबे इक़्तिदार (people of authority), ग़रज़ किसी भी हैसियत में हो और ये आयत इन श्रेणीयों में शामिल हर एक फ़र्द को संबोधित है कि वो हर एक मारूफ़ का हुक्म करे और हर एक मुनकिर को रोके ।

उम्मत के फ़र्द से मुताल्लिक़ ये आयत जतलाती है :

﴿وَالْمُؤمِنُونَ وَالْمُؤمِنَاتُ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاء بَعْضٍ يَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَر﴾
“मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक दूसरे के औलिया (वली, मददगार, मुहाफ़िज़) हैं वो मारूफ़ का हुक्म देते हैं और मुनकिर से रोकते हैं ।” (सूरह तोबा: 71)

क़ुरुतबी (رحمت اللہ علیہ) फ़रमाते हैं कि : “अल्लाह ने एक मुसलमान और मुनाफ़िक़ के बीच का फ़र्क़ अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर को बनाया है । चुनांचे इससे ये ज़ाहिर होता है कि मोमिनों की ख़ासीयत और परिभाषा है अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर यानी भलाई का हुक्म और बुराई से रोकना (यानी मोमिन वो है जो भलाई का हुक्म दे और बुराई से रोके) और अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकरका आला दर्जा इस्लाम की दावत है ।” (तफ़सीर अल क़ुरुतबी 474)


जमात और गिरोह से संबधित आयत उनकी गतिविधियों के बारे में वज़ाहत करती है :
﴿وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ﴾

“और तुममें से एक उम्मत (गिरोह) ज़रूर निकल कर आए जो तमाम ख़ैर (इस्लाम) की दावत दे, भलाई को हुक्म दे और बुराई से रोके, और यही लोग फ़लाह पाने वाले  हैं ।” (आले इमरान:104)

साहिब इक़्तिदार या ऊलिल अम्र के मुताल्लिक़ आयत बतलाती है :

﴿الَّذِينَ إِن مَّكَّنَّاهُمْ فِي الْأَرْضِ أَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ وَأَمَرُوا بِالْمَعْرُوفِ وَنَهَوْا عَنِ الْمُنكَرِ وَلِلَّهِ عَاقِبَةُ الْأُمُورِ﴾

“वो (मुस्लिम हुक्मरान) जो, जिन्हें अगर ज़मीन में ग़लबा अता करें, तो उन्होंने नमाज़ को क़ायम किया, और ज़कात की अदायगी का हुक्म दिया और अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करते रहे । बिलआख़िर तमाम मामलात के अंजाम अल्लाह ही के सपुर्द हैं ।” (अल-हज्ज: 41)

क़ुरआन ने साफ़-साफ़ वाज़ेह किया है कि दावत सिर्फ़ इस्लाम की दी जा सकती है :

﴿وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُون﴾َ

“और तुममें से एक उम्मत (गिरोह) ज़रूर निकल कर आए जो तमाम ख़ैर (इस्लाम) की दावत दे, भलाई को हुक्म दे और बुराई से रोके, और यही लोग फ़लाह पाने वाले हैं।” (आले इमरान: 104)

﴿وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرَى عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ وَهُوَ يُدْعَى إِلَى الْإِسْلَامِ ... ﴾
“और उस शख़्स से बुरा कौन हो सकता है जो अल्लाह के मुक़ाबला में झूठ बांधे, जबकि इसे इस्लाम की तरफ़ दावत दी गई हो ।” (सूरह सफ़: 7)

﴿وَإِنَّكَ لَتَدْعُوهُمْ إِلَى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ﴾

“और यक़ीनन, आप (ऐ मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ) उनको सिराते मुस्तक़ीम की तरफ़ दावत दीजिए ।” (अल मोमीनून:73)

इसके अलावा क़ुरआन ने मज़ीद वाज़ेह किया कि दावत अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ होना चाहीए

﴿وَمَنْ أَحْسَنُ قَوْلاً مِّمَّن دَعَا إِلَى اللَّهِ وَعَمِلَ صَالِحاً وَقَالَ إِنَّنِي مِنَ الْمُسْلِمِينَ﴾
“और उस शख़्स से बेहतर किस का कलाम हो सकता है कि जो अल्लाह की तरफ़ दावत दे और नेक आमाल करे और कहे कि में मोमिनों में से हो ।” (सूरह फ़ुस्सिलात: 33)

﴿قُلْ هَـذِهِ سَبِيلِي أَدْعُو إِلَى اللّهِ عَلَى بَصِيرَةٍ أَنَاْ وَمَنِ اتَّبَعَنِي وَسُبْحَانَ اللّهِ وَمَا أَنَاْ مِنَ الْمُشْرِكِينَ﴾

“कह दीजीए (आए मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ), ये मेरा रास्ता है, में तुम्हें बसीरत के साथ अल्लाह की तरफ़ बुलाता हो, में और जो कोई मेरी इत्तिबा करिए ।” (यूसुफ़: 108)

क़ुरआन ने मज़ीद वज़ाहत की कि दावत अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करने की ख़ातिर दी जानी चाहीए

﴿وَإِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِه لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ إِذَا فَرِيقٌ مِّنْهُم مُّعْرِضُون﴾
“और जब उन्हें अल्लाह और अल्लाह के रसूल की तरफ़ बुलाया जाता है, ताकि उनके दरमयान  इंसाफ़  करें  तो  देखो  कैसे  एक  फ़रीक़   रुख़  फेर  लेता है ।”  (अल-नूर:48)


﴿إِنَّمَا كَانَ قَوْلَ الْمُؤمِنِينَ إِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ أَن يَقُولُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا﴾
“मोमिन तो बस एक बात कहते हैं जब भी उन्हें अल्लाह और अल्लाह के रसूल की तरफ़ बुलाया जाता है ताकि उनके दरमयान फ़ैसला करें वो कहते हैं हमने समाअत इख्तियार की और इताअत करते हैं ।”  (अल-नूर:51)

﴿يُدْعَوْنَ إِلَى كِتَابِ اللّهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ يَتَوَلَّى فَرِيقٌ مِّنْهُمْ وَهُم مُّعْرِضُون﴾
“.... उनके दरमयान फ़ैसला करने के लिए उन्हें अल्लाह की किताब की तरफ़ बुलाया जाता है, तब इनमें से एक फ़रीक़ रुख़ मोड़ लेता है ।” (आले इमरान: 23)

अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर फ़र्ज़े किफ़ाया है और उसकी अदायगी की फ़र्ज़ीयत कुछ अफ़राद के ज़िम्मे है और जो भी उसे अंजाम दे उसे उसकी जज़ा मिलेगी और जो उसे अंजाम ना दे तव उसकी माफ़ी नहीं होगी जब तक उम्मत के ज़रीये अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर का अमल अंजाम नहीं दे दिया जाता, क्योंकि अल्लाह ने साफ़ वाज़ेह कर दिया है कि उसके अंजाम पज़ीर होने पर निजात है और उसके अंजाम ना दिए जाने पर अज़ाब है चुनांचे अल्लाह (سبحانه وتعالى) का इरशाद है

﴿فَلَمَّا نَسُواْ مَا ذُكِّرُواْ بِهِ أَنجَيْنَا الَّذِينَ يَنْهَوْنَ عَنِ السُّوءِ وَأَخَذْنَا الَّذِينَ ظَلَمُواْ بِعَذَابٍ بَئِيسٍ بِمَا كَانُواْ يَفْسُقُونَ﴾

“जब उन्होंने भुला दिया जो उन्हें याद दिलाया गया था तो हमने उन लोगों को बचा लिया जिन्होंने बुराई को रोकने की कोशिश की लेकिन जिन्होंने बुराई इख्तियार की हमने एक आफ़त में उन्हें दबोच लिया क्योंकि वो ज़्यादतियां करने वाले थे ।” (अल आराफ़: 561)

चूँकि मारुफ़ात में अव्वलीन मारूफ़ ईमान है और यह हर मारूफ़ अमल की बुनियाद है और इसके विपरीत मुनकिरात में अव्वलीन मुनकिर कुफ्र है और यह हर मुनकिर फे़अल की बुनियाद है। अल्लाह की इताअत व फ़रमांबरदारी का मब्दा यहीं अव्वलीन मारूफ़ यानी ईमान है जिसमें से तमाम फ़रमांबर्दारी के आमाल प्राप्त होते हैं और इसके विपरीत नाफ़रमानी का मब्दा अव्वलीन मुनकिर यानी कुफ्र है जिससे तमाम नाफ़रमानी के बातिल आमाल अख़ज़ होते हैं ।

चूँकि अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करना इताअत गुज़ारी के अफ़आल की वो आली तरीन क़िस्म है जिसके ज़रीए ईमान और इताअत गुज़ारी के तमाम अफ़आल महफ़ूज़ और क़ायम रह पाते हैं, और उसके ज़रीये दावत को अंजाम दिया जाता है और इस्लाम की तब्लीग़ की जाती है इसके विरुध अल्लाह की नाज़िल करदा आयात के मुताबिक़ हुकूमत ना करना अल्लाह की नाफ़रमानी की वो बदतरीन क़िस्म है जिसके ज़रीये नफ़सानी ख़ाहिशात की पैरवी, गुमराही और ज़लालत इख्तियार की जाती है ।

चुनांचे उम्मत पर फ़र्ज़ हुआ है कि वो इस फ़रीज़े को क़ायम करने के लिए मुत्तहिद हो जाये और हर एक मुस्लिम जो अपने दीन की ख़ातिर फ़िक्रमंद हो या जान ले कि जब भी वो क़ुरआन की कोई आयत या हदीस पढ़े तो इस हिदायत का मुख़ातिब वो तन्हा नहीं है बल्कि ये ख़िताब तमाम इंसानियत को किया गया है। यहाँ तक कि कलाम रसूल से मुख़ातब है लेकिन ख़िताब रसूल के तवस्सुत से पूरी उम्मत से होता है जब तक रसूल के लिए ख़िताब की कोई तख़सीस मौजूद ना हो। लिहाज़ा जब अल्लाह (سبحانه وتعالى) मुस्लिम को ईमान के मुताल्लिक़ हुक्म देते हैं तो ये हुक्म इसके लिए और दूसरों के लिए अल्लाह (سبحانه وتعالى) का फ़रमान है, जब हुक्म इबादात के ताल्लुक़ से हो तो ये हुक्म इसके लिए और दूसरों के लिए अल्लाह (سبحانه وتعالى) का फ़रमान है, जब हुक्म अल्लाह की नाज़िल करदा आयात के मुताबिक़ हुकूमत करने के मुताल्लिक़ हो तो ये हुक्म इसके लिए और दूसरों के लिए भी अल्लाह का फ़रमान है


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