अहकामात को समझने का इस्लामी तरीक़ा

वो काम जो जमात या हिज़्ब इक़ामते दीन के लिए अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर की ज़िम्मेदारी के तहत करती है उस काम की बुनियाद उसके शरई इल्म पर होनी चाहिए, क्योंकि कि इल्म से पहले कोई भी अमल नहीं किया जा सकता और इल्म के बग़ैर इख़्लास के साथ अल्लाह की इबादत नहीं हो सकती। चुनांचे दीन के क़ियाम के लिए मतलूब जमात (required group) इस जमात और इसके अफ़राद के लिए दरकार शरई इल्म की हदूद क्या हैं यानी उनको किन किन अहकाम और उनसे मुताल्लिक़ कितनी गहराई के साथ इल्म और जानकारी होना लाज़िम है.

तमाम शरई अहकामात को हासिल करने (इस्तिंबात) के लिए एक मुतय्यन साबित शुदा तरीक़ा अमल है, ख़्वाहाँ अहकामात का ताल्लुक़ ज़िंदगी के किसी भी पहलू से हो चाहे दावत से हो या इबादत, मुआमलात (transactions), उक़ूबात (punishments), मतऊमात (foodstuffs), मलबूसात (clothing) या अख़्लाक़ (morals) से।

इस तरीक़े का ताय्युन भी इस्लाम ने किया है और इस्लाम की फ़ितरत का मुतालिबा भी ये है कि इन्सान अपनी मर्ज़ी इस्लाम के सपुर्द कर दे इस तरह मुसलमानों की ज़हानतो-ज़कावत (genius or intelligence) से ये तरीक़ा हासिल नहीं किया जाता है। इस्लामी अक़ीदा मुसलमान पर लाज़िम क़रार देता है कि वो शरअ के दायरे के बाहर से किसी एक हुक्म को भी ना इख़्तियार करे, चुनांचे हुक्म को हासिल करने (इस्तिंबात) के लिए मुसलमान पर लाज़िम है कि वो शरई हदूद की पाबंदी करे जिन पर शरई नुसूस दलालत करते हैं । इसलिए इस्लाम की जानिब से हुक्म हासिल करने के लिए ऐसा तरीक़ा अमल मुहय्या कराना ज़रूरी है कि जिसके तहत यक़ीनी (निश्चित) हो जाये कि रहनुमाई सिर्फ़ इस्लाम की हिदायात से ली जाती रहेगी और इस्लाम की समझ की निगरानी व हिफ़ाज़त होती रहेगी और इस तरह रहनुमाई लेना और पाबंदी करना हमेशा ख़ालिस वह्यी के ज़रीये नाज़िल हुए नुसूस तक सीमित रहे। यूं फ़िक़्ही नुक़्ता-ए-नज़र और इस्लामी अक़ीदा के नुक़्ता-ए-नज़र में कोई फ़र्क़ ना पैदा हो और इसकी शरअइत पूरी तरह क़ायम होती रहीं ।

शरअ से मुतय्यन करदा (fixed) इज्तिहाद का तरीक़ा निहायत अहम और इस क़दर ज़रूरी है कि जमात या पार्टी की सक़ाफ़त (culture) में इसे निहायत आला और इम्तियाज़ी मुक़ाम हासिल कर लेना चाहिये जिससे पहली मर्तबा जमात या हिज़्ब की सक़ाफ़त वजूद में आती है। फिर इसी तरीक़े से अहकाम को हासिल (इस्तिंबात) किया जाएगा। अगर इस्तिंबात का तरीक़ा सही होगा तो ऐसे सही शरई अहकामात हासिल होंगे जिनमें शक और शुबा की गुंजाइश क़लील कम से कम तर होगी और इस अमल पर अज्र भी मिलेगा। वरना इस राय की कोई एहमीयत नहीं है जो शरई तौर पर मुतय्यन तरीक़ाए इस्तिंबात की बुनियाद पर नहीं होगी चाहे कोई बातिल तौर पर यह किसी ग़लत फ़हमी में रह कर उसे कितना ही शरई राय बतलाता रहे । क्योंकि एतबार नाम का नहीं किया जाता बल्कि हक़ीक़त का है चुनांचे इस्तिंबात के लिए तरीक़े की पाबंदी लाज़िम है।

आज हम पहले से ज़्यादा इस तरीक़े के ज़रूरतमंद हैं जो मुसलमानों को मग़रिबी फ़िक्र (western thought) से मुतास्सिर होने और हुक्म मालूम करने के लिए क़ानून बनाने के उनके तरीक़े (तरीक़ाए इस्तिंबात) की पैरवी करने से बचाता और रोकता है, ये इस ज़माने का ऐसा मर्ज़ है जिसमें बहुत सारे ऐसे अफ़राद मुब्तिला हैं जिन्हें उल्मा में शुमार किया जाता है। हम देखते हैं कि उनके इज्तिहादात और फतावा, उनके अख़ज़ करने के इस्लामी ज़वाबित व तरीक़े से बहुत दूर निकल गए हैं और वो आसमानी हिदायात की बजाय मग़रिबी तसव्वुरात और ख़ाम-ख़याली से रहनुमाई लेते नज़र आते हैं । यही वजह है कि शरअ के ताल्लुक़ से कि जिसका अपना ख़ुद का एक तय करदा इज्तिहाद का तरीक़ा है आज मुसलमानों पर ज़रूरी है कि वो उस पर इकट्ठे होकर जम जाएं चाहे उनके इज्तिहादात के नतीजे आपस में इख़्तिलाफ़ात करते हों, यहां हम इस तरीक़े को इजमाली तौर पर बयान करेंगे। बिलकुल इसी तरह जैसा ये तरीक़ा सलफ़ (अव्वलीन इब्तिदाई नस्लों/predecessors) का था इसी तरह तरीक़ा ख़लफ़ (बाद की नस्लों) का भी होना चाहिए और जो भी उनके बाद आएं बल्कि क़ियामत तक यही तरीक़ा है ।

(तहक़ीक़ अलमनात) हक़ीक़त की समझ/understanding the manaat (reality):

इस्लाम में अहकामात को मालूम करने के तरीक़े में शामिल बातें ये हैं, पहले मसले की गहरी समझ हासिल कर लेना, उसके बाद दलायल की तलाश, उनका मुताला (अध्ययन) और मसले के हल से मुताल्लिक़ तमाम शरई दलायल को समझना आख़िर में इन शरई दलायल से दरपेश मसले का हुक्म हासिल (इस्तिंबात) करना।

जमात का क़ियाम उस हक़ीक़त की तब्दीली के लिए होता है जिसमें वो वजूद में आती है, लिहाज़ा उसी हक़ीक़त के मुताबिक़ उसकी तब्दीली के लिए दरकार शरई अहकामात को इख़्तियार करना (तबन्नी) जमात पर लाज़िम है। हक़ीक़ते-हाल को समझने के लिए ज़रूरी होता है कि उसका ज़बरदस्त मुताला किया जाये जबकि शरअ को समझने के लिए ज़रूरी है शरई दलायल को हासिल करने के मब्दा को निर्धारित करना और उसूल के क़वाइद (सिद्धांतो) को मालूम करना यानी वो अहकाम हासिल करना जिन्हें इस्तिंबात के लिए इस्तिमाल किया जाता है। इस्तिंबात के अमल के लिए ऐसे मुज्तहिद की ज़रूरत होती है जो अहकामात को उनकी अपनी हक़ीक़तों पर मुंतबिक़ (apply) करने और अहकामात से जुड़ी इल्लतों के मुताबिक़ अहकाम जारी करने की लियाक़त-ओ-क़ाबिलीयत रखता हो। लिहाज़ा किसी भी जमात का क़ियाम उसकी इस हक़ीक़त से जुड़ा है जिसमें जमात वजूद में आई है, तो फिर वो इस हक़ीक़ते-हाल (मौजूदा चलन) को अपनी फ़िक्र और तब्दीली लाने के लिए मौज़ू बनाएगी। लिहाज़ा इसके लिए जमात या हिज़्ब (party) पर लाज़िम है कि वो सूरते-हाल का गहराई और बारीकबीनी से मुताला करे और फिर मसअलों को पहचाने जिन्हें हल करना ज़रूरी है, ये मसाइल आपस में गुथे हुए इजमाई (اجماعی) हैं यानी कुछ मसाइल दीगर मसाइल का नतीजा हैं जिनके दर्मियान फ़र्क़ करना ज़रूरी है, लिहाज़ा फ़र्द के लिए ज़रूरी है कि अस्ल मसाइल और उनकी वजह से पैदा होने वाले मसाइल में फ़र्क़ करे और इसके लिए ज़रूरी होता है कि अस्ल मसले को जाना जाये और इसकी ज़ाहिरी अलामात (लक्षणों) को समझा जाये, जिस तरह अस्ल बीमारी और उसकी अलामात में फ़र्क़ होता है। ऐसी समझ हासिल होने के बाद कोई भी बुनियादी मर्ज़ को पहचान लेगा और फिर उसकी अलामतों के दर्मियान फ़र्क़ कर सकेगा। अस्ल मर्ज़ मालूम करने के बाद मुसलमान पर ज़रूरी है कि वो फिर उसके ईलाज को मालूम करने की कोशिश करे।

ये बिलकुल इसी तरह है कि एक माहिर डॉक्टर को अस्ल बीमारी का पता लगाते वक़्त उसकी ज़ाहिरी अलामात को देखकर मर्ज़ के बारे में धोका नहीं खाना चाहिए। अगर किसी इन्सान के मादे (stomach) में कोई बीमारी हो और इसके रद्दे-अमल में उसे एलर्जी हो जाएगी, जिसके नतीजे में मरीज़ की जिल्द (skin/चमड़ी) फट जाये या ख़राशें ज़ाहिर हों और बदन में बुख़ार हो जाएगी, अब अगर डॉक्टर बीमार को सिर्फ जिल्द और बदन के बुख़ार की दवा तजवीज़ करेगा और पेट की बीमारी को नज़रअंदाज कर दे तो फिर ये उसका मुकम्मल ईलाज नहीं होगा क्योंकि अस्ल बीमारी फिर भी बाक़ी रहेगी। इस तरह ईलाज भी नाकाफ़ी होगा और डॉक्टर भी बीमारी का ईलाज करने में नाकाम होगा, चुनांचे डॉक्टर के लिए ज़रूरी है कि अस्ल मर्ज़ का ईलाज करे जो इस सूरते-हाल में मादे का ईलाज है। जब उसका ईलाज होगा तो अस्ल बीमारी और उसकी ज़ाहिरी अलामात दोनों ख़त्म हो जाएँगी । इसके बाद डॉक्टर फ़ैसला करेगा कि ज़ाहिरी अलामात के लिए मज़ीद ईलाज की ज़रूरत है या नहीं, हो सकता है कि अस्ल बीमारी के ईलाज होने से वो भी ख़त्म हो जाएं या अगर बाक़ी रहें तो फ़िर उनका भी ईलाज करना पड़े । मुआमला जो भी हो ईलाज अगर सिर्फ ज़ाहिरी अलामात का किया जाएगा तो ये जुज़वी और अधूरा ईलाज ही रहेगा और मसला जूं का तूं बरक़रार रहेगा।

आज हमें जिस सूरते-हाल का सामना है वो बिलकुल इसी मिसाल की तरह है। हम जानते है कि हक़ीक़त में कुछ बुनियादी मसाइल हैं जिनकी वजह से कई दूसरे जुज़वी मसाइल पैदा हुए हैं जो ज़ाहिर में नज़र आते हैं । अलबत्ता उम्मत आज जिन बुनियादी मसाइल में मुब्तिला हैं उनमें अहम तरीन मसला ये है कि मुसलमानों की ज़िंदगी में अल्लाह की हाकिमीयत का वुजूद ख़त्म हो चुका है दीगर अलफ़ाज़ में उनकी ज़िंदगीयों में अल्लाह को हाकिमीयत हासिल नहीं है । इसके नतीजे में बहुत सारे जुज़वी मसाइल पैदा हो चुके हैं जैसे ग़ुर्बत जो ज़ुल्म की वजह से पैदा होती है, जहालत, बदअख़्लाक़ आमाल का फैलते जाना और फ़ासिद ताल्लुक़ात का ग़ालिब होते जाना वग़ैराह, इस सूरते-हाल के मुताल्लिक़ अल्लाह सुब्हाना व ताला का इरशाद इस तरह है:

﴿وَمَنۡ أَعۡرَضَ عَن ذِڪۡرِى فَإِنَّ لَهُ ۥ مَعِيشَةً۬ ضَنكً۬ا [20:124]
“जो मेरे ज़िक्र से आराज़ करेगा तो उसकी ज़िंदगी तंग हो जाएगी। ”

इन तमाम जुज़वी मसाइल का वजूद बुनियादी मसला की मौजूदगी से है, मुस्तक़िल और क़ायम रहने वाला एक पायदार हल तब तक हासिल नहीं हो सकता जब तक बुनियादी मसले को हल नहीं कर लिया जाता, ग़ैरुल्लाह (इन्सानों की ख़ाहिशात के मुताबिक़ बनाए गए क़वानीन और निज़ाम) की हुकूमत की वजह से पैदा होने वाले ये असरात कभी भी कोई ख़त्म नहीं कर सकता जब तक अदल-ओ-रूहानियत से भरपूर इस्लामी ज़िंदगी की वापसी के लिए काम नहीं किया जाता, और इसकाम के लिए इस्लामी अक़ीदे को दुनिया में उसका अस्ल मुक़ाम देना होगा यानी रुहानी अक़ीदे के साथ साथ उसे सियासी अक़ीदा बनाना होगा, अक़ीदा जो तमाम मुसलमानों को उनकी ज़िंदगी के तमाम अफ़आल के लिए हिदायत देता है कि वो अपने आमाल को अल्लाह ताला के अवामिर व नवाही (हुक्म और मना) के मुताबिक़ अंजाम दें और उन्हें मजबूर करता है कि वो अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करें।

चुनांचे बुनियादी मसला तालीम का नहीं है और ना ही अख़लाक़ का या इक़्तिसाद का है, इसी तरह बुनियादी मसला ना ही मुसलमानों को उनके हुक़ूक़ को फ़राहम करवाना है और समाजी (social), मआशी और अस्करी (economic and military) तौर पर उन्हें मज़बूत बनाना है। बल्कि बुनियादी मसला हाकिमीयत (the sovereignty) का है जो मुसलमानों के अक़ीदा और अमली ज़िंदगी के अफ़आल के अंदर से ग़ायब हो चुकी है। ये हाकिमीयत सिर्फ़ अल्लाह अल-अज़ीज़ के लिए है। लिहाज़ा आज ज़माने की माद्दी तरक़्क़ी (materialistic progress) और नए हालात में दुबारा मुसलमानों में इस्लामी अहकामात पर भरोसा और इत्मीनान पैदा करने की ज़रूरत है, इसके लिए ज़रूरी है कि अक़ीदा का जो हिस्सा उनके दलों से ग़ायब और गुम हो चुका है उसे दुबारा बहाल किया जाये, उनके अपनाए हुए अक़ीदे से निकलने वाले निज़ाम को दुनिया में दुबारा क़ायम करने में उनकी दिलचस्पी को बहाल किया जाये, जन्नत की तलब, चाहत और फ़िक्र उन में भर दी जाये, जहन्नुम का डर और उससे बचाव की वो कोशिश करें और तमाम मुसलमानों के ताल्लुक़ से फ़िक्र करने वाले बन जाएं और साथ में वो इस अक़ीदे के तहत तमाम इन्सानों की फ़िक्र करने वाले बन जाएं ।

जमात जब ऐसी समझ के साथ बुनियादी मसले को तय कर ले और ये अच्छी तरह जान ले कि जूं ही अस्ल मर्ज़ का ईलाज किया जाएगा तमाम ज़ाहिरी अलामात ख़त्म हो जाएंगी। चुनांचे इस तरह सूरते-हाल का मुकम्मल एहसास और अच्छी समझ होना कितना अहम है हमें मालूम हो जाता है, इस मुआमले को उसूल के उल्मा के दर्मियान मनात (सूरते-हाल या हक़ीक़त) कहा जाता है। चुनांचे इस से पहले कि जमात शरअ से दलायल की तलाश शुरू करे उसको सूरते-हाल की अच्छी समझ हासिल कर लेना लाज़िमी है।

हक़ीक़त का एहसास और उसको समझना यह उसके मुताल्लिक़ अहकाम को समझने से भी कहीं ज़्यादा मुश्किल है। इसकाम में बड़ी दिक़्क़त दरकार होता है क्योंकि ये एक नाज़ुक काम है जिसमें बारीकबीनी ज़रूरी है, चूँकि अगर हम हक़ीक़त को समझने में ग़लती का शिकार होंगे और हक़ीक़त के मुताल्लिक़ ग़लतफ़हमी ज़हन पर ग़ालिब हो और फिर उसके हल के लिए शरई दलायल की तरफ़ जाऐंगे तो हम ऐसे दलायल ढूंढ लाएँगे जो इस हक़ीक़त और मसले को हल नहीं करते होंगे क्योंकि हक़ीक़त ही हमारे ज़हन में ग़लत होगी और यूं हम दलायल को बेमौक़ा, ग़लत हक़ीक़त में इस्तिमाल कर बैठेंगे। हक़ीक़त की समझ हासिल करने के लिए अक़्ल के इस्तिमाल की ज़रूरत होती है। इसमें जायज़ नहीं है कि हम हक़ीक़त को ही अपनी सोच का महवर (axis) बनादें और हक़ीक़त-ओ-हालात से मुतास्सिर हो जाएं और फिर उन्हीं से तमाम फ़िकरों को हासिल करने लगीं बल्कि हक़ीक़त से कोई हल नहीं निकालें और हक़ीक़त को इसकी असली हालत में जूं का तूं समझें ।

शरअ की समझ:

अक़्ल के ज़रीये तमाम हक़ीक़त को सही तरीक़े से समझने के बाद हक़ीक़त के उस शरई ईलाज की तरफ़ आना चाहिए जो हक़ीक़त से जुड़े हुए शरई दलायल से इस्तिंबात के ज़रीये हासिल किया गया हो। इस शरई ईलाज या हल को हासिल करने के लिए अक़्ल का इस्तिमाल हल को तय करने या सालिस (arbitrator) के तौर पर ना हो जो इस हल की तलाश के दौरान नफ़ा और नुक़्सान या अच्छे और बुरे को तय करे, बल्कि उसका इस्तिमाल सिर्फ़ शरई दलायल में मौजूद ईलाज को समझने के लिए हो। यहां अक़्ल का दायरा उस हल को समझने तक है जो शरअ में मौजूद है।

शरअ को समझने के लिए हमें दरकार होता है कि उन शरई मब्दा (मसदर /sources जिनसे दलायल हासिल होते हैं) की मालूमात हासिल की जाये जिनसे जमात शरअ लेती है और साथ ही उन उसूली क़वाइद (juristic principles) की मालूमात भी हासिल करना लाज़िमी है जमात जिन पर एतिमाद करते हुए शरअ को समझती है और फिर ये इस समझ के साथ बुरी हक़ीक़त को बदलने का फ़ैसला लेती है । चुनांचे इसी के मुताबिक़ जमात फ़िर उस बेहतरीन हक़ीक़त जहां पर जमात लोगों को ले जाना चाहती है, उस हक़ीक़त को बयान करेगी और इसके लिए जमात को इज्तिहाद के अमल के तरीक़े का इल्म होगा यानी तरीक़ाए इस्तिदलाल में वो कारबन्द रहेगी।

दलायल के मब्दा शरई मसादिर/ sources of the shar’a:

हर हुक्म किसी ना किसी मसदर से सादिर होता है लिहाज़ा हर एक हुक्म उसके हक़ीक़ी मसदर से हासिल करना ज़रूरी है और इसके लिए मुकम्मल मुताला के बाद अच्छी तरह यक़ीन और इत्मीनान के बाद मसदर को निर्धारित करना ज़रूरी है। ये बात हम सब जानते हैं कि इस्लामी क़ानूनसाज़ी के लिए बुनियादी मसादिर क़ुरआन और सुन्नत है इसमें किसी के दर्मियान कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है, अलबत्ता इनमें से कई दीगर ऐसे मसादिर हासिल होते हैं जैसे इज्मा (consensus), क़ियास (analogy), इस्तिहसान (juristic preference), सहाबी (رضي الله عنه) का मज़हब (सहाबा رضی اللہ عنھم की राय) और शरअ मन क़बलना (हमसे पहले लोगों की शरअ) वग़ैरा ये सब मसादिर ऐसे हैं जिनके बारे में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। किसी भी जमात के नज़दीक कौन सी चीज़ दलील बन सकती है इस बात का जायज़ा लेने पर शरअ को इख़्तियार करने से मुताल्लिक़ जमात कैसा रुजहान रखती है हमें साफ़ नज़रा जाता है।

ये बात भी सब जानते हैं कि मसादिर के लिए दलायल क़तई हों तो ही उन पर भरोसा कर के उन्हें अपनाया जा सकता है यानी ज़रूरी ये है कि क़ुरआन व हदीस में उन पर एतिमाद करने के बारे में क़तई सबूत मिलें ताकि क़ानूनसाज़ी के मसदर (स्रोत) के तौर पर उनका इस्तिमाल किया जाए, दीगर अलफ़ाज़ में ये दोनों बुनियादी मसादिर इस तीसरे या दीगर मख़सूस मसदर को इख़्तियार करने की क़तई तौर पर दलील पेश करते हों । शरई मसादिर को इख़्तियार करने में किसी की तक़्लीद यानी नक़्ल से काम नहीं लिया जा सकता, ये मुआमला बुनियादी बातों (कुल्लियात) में से है लिहाज़ा उनका क़तई होना ज़रूरी है और हम जानते हैं कि तक़्लीद में ज़न (शुबा) शामिल होता है जो किसी भी मुआमला को क़तईयत तक नहीं पहुँचाता।

जब मसादिरे शरअ (sources of legislation) को तय कर लिया जाएगा तो हमें मालूम हो जाएगा कि वो कौन से चश्मे हैं जहां से जमात प्यास बुझाएगी और कौन से चश्मों से नहीं पीयेगी यानी किस मब्दा या मसदर से दलील लेगी और किस मसदर से दलील क़बूल नहीं करेगी। इन मसादिर (sources) को तय करने में इंतिहाई एहतियात करना लाज़िम है क्योंकि ग़लती से किसी एक ग़लत मसदर को इख़्तियार कर लिया जाएगा तो इस से हासिल होने वाले तमाम अहकामात ग़लती पर होंगे। इस से पहले कि जमात के काम से मुताल्लिक़ किसी भी अहकाम शरई को तय किया जाये पहले शरअ के मसादिर को तय करना निहायत ज़रूरी है, ये बात काबिले-क़बूल नहीं होगी कि एक जमात इस्लाम का पैग़ाम लेकर उठे और वो अपने ज़रीये इख़्तियार किए हुए इस्लामी शरई मसादिर को बयान ना कर दे।

इसके इलावा ये भी काबिले-क़बूल नहीं है कि क़ुरआनो-सुन्नत के अलावा दीगर तमाम के तमाम मसादिर इख़्तियार कर लिए जाएं ताकि ज़्यादा भलाई इकट्ठा हो और ज़्यादा से ज़्यादा अच्छी बातों को हासिल किया जा सके, बल्कि ऐसा करने का नतीजा ये होगा कि जमात भलाई और बुराई ख़ुद तय करने लगेगी और फिर इसके नतीजे में शरअ की इस तरह तोड़-मरोड़ होने लगेगी कि हक़ीक़त, अक़्ल, ख़ाहिशात, जज़्बात और फ़ायदे (मस्लिहत) के सामने शरअ घुटने टेक दे और उन के ताबे होकर रह जाएगी। और जब हालत ये होगे तो दलील का मक़सद सिर्फ ये होकर रह जाएगा कि किसी तरह उन ख़्वाहिशों और तमन्नाओं को सही साबित कर दे जब कि ये बात इस मक़सद से बिलकुल उलट है जो शरअ हमसे चाहती है, उस वक़्त ये दलील ख़िलाफ़े शरअ और मज़कूरा चीज़ों के लिए होगी जो कि नाजायज़ है।

पस जमात पर लाज़िम है कि अहकाम का सूरते हाल को तब्दील करने के लिए राय देने से पहले अपने मसादिर को तय कर ले, ज़माने की सोच और हक़ीक़त से मुतास्सिर होकर मसदर तय ना करे, बल्कि मसादिर को तय करने या रद्द करने के लिए शरई इबारतों और उनके लिए दलायल के क़तई होने पर ध्यान दे, मज़ीद ये एहसास ज़रूरी है कि जमात जिन मसादिर को अपनाएगी ये उसके अपने उसूल होंगे और उनको दूसरों पर लाज़िम क़रार नहीं देगी, हाँ इस राय को दूसरों के सामने पेश करेगी ताकि वो इत्मीनान और दलील की बुनियाद पर वो इस को इख़्तियार करें, ख़ुसूसन उन चीज़ों के बारे में जो उन के नज़दीक क़तई हैं, वरना जमात अगर उसके उसूलों को दूसरों के लिए लाज़िम क़रार देगी तो वो ख़ुद के लिए और दूसरों के लिए मुश्किलात खड़ी कर देगी।

शरअ को समझने के उसूल:

जब एक दफ़ा जमात ने उन मसादिर को निर्धारित कर लिया हो जिनसे वो शरअ हासिल करेगी तो उसके लिए ज़रूरी होता है कि अब ये समझे कि किस तरह उन मसादिर को इस्तिमाल करते हुए उनसे दलायल को इख़्तियार किया जाए दीगर अलफ़ाज़ में अब उसे इन क़वाइद को तय करने की तरफ़ बढ़ना होगा यानी उन क़वाइद की मार्फ़त हासिल करना होगा जिनके ज़रीये उनके मसादिर से अहकाम का इस्तिंबात (deduction) किया जा सकता है । इसमें शक नहीं कि फ़क़ीह जब कोई हुक्मे शरई अख़ज़ करना चाहता है तो उसके ज़हन में उसूल के वो क़वाइद होते हैं जिनकी बुनियाद पर वो उस हुक्म को इख़्तियार करता है। दुनिया में ऐसा कोई इल्म नहीं है जिसके कुछ तयशुदा उसूल ना हों और उसके उसूलों के इल्म के बग़ैर कोई भी इल्म अच्छी तरह हासिल नहीं किया जा सकता, हाँ कभी ये हो सकता है कि उसूल लोगों के ज़हन में मौजूद होते हों लिखे ना गए हों या फिर किसी ने उसूलों को लिख कर तर्तीब दिया हो ।

शरई इबारतों में (आम/general) आम अहकाम भी है, (ख़ास/specific) ख़ास अहकाम भी हैं । (मुजमल/unelaborated) मुख़्तसर में भी और (मुफ़स्सिल/elaborated) तफ़्सीली भी हैं, (मुतलक़/absolute) भी और (मुक़य्यद/restricted) हद बंद भी हैं, इसमें (अवामिर/orders) फे़अल का हुक्म भी और (नवाही/prohibitions) फे़अल से मना भी हैं, (नासिख़/abrogator) रद्द करने वाले और (मंसूख़/abrogated) रद्द हुए भी हैं, उनमें (मफ़्हूम मुवाफ़िक़/conformable meaning) ताईद करते माअनी भी और (मफ़्हूम मुख़ालिफ़/opposite meaning) मुख़ालिफ़ माअनी भी हैं, उनमें इबारत से (मंतूक़/wording) अलफ़ाज़ का उस्लूब, (मफ़्हूम/implicit meaning) बिल रास्त माअनी और (माक़ूल/rationale) भी हैं, उनमें (ख़बरे वाहिद/solitary report) अहद हदीस भी है जो कहीं दलील होती है और कहीं नहीं है इसके इलावा दीगर कई सारी चीज़ें हैं । जमात पर लाज़िम है कि अपने फ़िक़्ही क़वाइद को निर्धारित करे, उनको अच्छी तरह समझे और इख़्तियार करे और उनको दूसरों के सामने पेश करे। इन उसूली क़वाइद में से ज़्यादा-तर में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। ये बात हम सब जानते हैं कि हर एक क़ायदे से कई फ़ुरू (राय/branches) सामने आते हैं । चूँकि अक्सर उन फ़ुरू में इख़्तिलाफ़ात हैं इसलिए उनमें से मुतनाज़ा फ़ुरू को हटाना ज़रूरी है, ये काम जमात करती है ताकि वो उनमें से सही राय को मुईन करके इख़्तियार करे । उसूल के क़वाइद को इख़्तियार कर लेने के बाद ही इन मुख़्तलिफ़ राय को (फ़ुरू को) इन क़वाइद की रोशनी में समझा जा सकता है।

उसूल का इल्म और उसूली क़वाइद की जानकारी होने के बाद जमात इसकाबिल हो जाती है कि शरअ को उनके दीगर मसादिर से समझ कर मालूम कर सके, उसके बाद जमात के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं होता कि तय करदा तरीक़ा इज्तिहाद की पैरवी करे। इसी ख़ासीयत की वजह से जमात दूसरों से अलग नज़र आना चाहिये। ये वो चीज़ें है जिन्हें लोगों तक पहुंचाना ज़रूरी है और इसकी ख़ातिर पहले अपने शबाब को इस पर तर्बीयत दे तैयार करे और फिर उनके ज़रीये इसको लोगों तक पहुंचाए, ये वो पहली चीज़ है जिसकी बुनियाद पर जमात की तामीर व तैयारी करना ज़रूरी है।

हाँ मुज्तहिद का काम डॉक्टर की तरह है। एक डॉक्टर सबसे पहले मरीज़ को सुनता है और उसका हाल मालूम करता है। फिर वो बीमारी की ज़ाहिरी अलामात से ख़ुद को अलैहदा कर के उनसे मुतास्सिर हुए बग़ैर हक़ीक़ी बुनियादी बीमारी का पता लगाता है मरीज़ को जिसकी शिकायत है। फिर उस मालूमात की तरफ़ रुजू करता है जो उसने सीखी है। वो उन किताबों की तरफ़ रुजू करेगा जो इस मर्ज़ का ईलाज बतलाने में मददगार हैं, फिर आख़िर कार उसका ईलाज पेश करेगा यानी इस मिसाल में वो दवाई देगा, दूसरे अलफ़ाज़ में वो किताबों की तरफ़ वापिस पलटता है ताकि इस मर्ज़ का ईलाज दे सके।

जी हाँ वो जमात जो तब्दीली चाहती है और तब्दीली के लिए काम करती है अगर वो इस्लामी जमात है तो उस पर लाज़िम है कि वो तब्दीली भी इस्लामी ही लाए, तब्दीली के लिए काम भी इस्लाम से ही हो। तब्दीली शरई दलील की बुनियाद पर हो ना कि शख़्सी राय पर या ख़ाहिश या अक़्ल से मालूम होने वाली मस्लिहत पर और ना ही हालात व औक़ात का असर लेकर तब्दीली हो । बल्कि हक़ सिर्फ़ शरअ को देना चाहिये कि वो जमात पर हुक्म शरई सादिर करे । इस्लाम की मुहब्बत या मुसलमानों के हालात से फ़िक्रमंद होना अपने आप में जमात के सामने कोई हुक्म पेश नहीं कर देते। मुसलमानों की मस्लिहत क्या है इसका फ़ैसला शरअ ही करेगी क्योंकि मुसलमानों की मस्लिहत (मुफ़ाद) शरअ ही में मौजूद है, यहां थोड़ा ज़रूरी हो जाता है कि उन तफ़्सीलात में जाएं जो साफ़ साफ़ बयान करती हों कि इस्लाम की नज़र में मस्लिहत क्या है ? और मस्लिहत कब और किन हालात में शरअन मोतबर होगी?

मस्लिहत:

मस्लिहत किसी नफ़े को हासिल करना या किसी नुक़्सान को दूर करना है, मस्लिहत का फ़ैसला अक़्ल करेगी या शरअ? अब अगर इस फ़ैसले को अक़्ल पर छोड़ दिया जाये कि मस्लिहत क्या है तो लोगों को बड़ी तक्लीफ़ और मुश्किल का सामना करना पड़ेगा कि हक़ीक़ी मस्लिहत मालूम कौन सी होगी क्योंकि अक़्ल महिदूद (सीमित) है। इसलिए अक़्ल इन्सान और उसकी तमाम हक़ीक़तों का मुकम्मल इदराक नहीं कर सकती इसलिए अक़्ल ये फ़ैसला भी नहीं कर सकती कि उसके लिए मस्लिहत या नुक़्सान क्या है। इन्सान की हक़ीक़त तो सिर्फ इन्सान का ख़ालिक़ ही जानता है। कोई भी फ़ैसला नहीं कर सकता कि किसी मुआमले में इन्सान के हक़ में क्या बेहतर है सिवाए उसके ख़ालिक़ के जो अल्लाह (رب العز ت) है । जी हाँ इन्सान के लिए ये तो मुम्किन है कि ये गुमान करे कि कोई चीज़ उसकी मस्लिहत (मुफ़ाद) में है या ये चीज़ उसके लिए नुक़्सानदेह है लेकिन उसका यक़ीनी तौर पर क़तई ताय्युन वो नहीं कर सकता। पस मस्लिहत क्या है इस फ़ैसले को गुमान की बिना पर अक़्ल के हवाले करना ख़तरनाक होकर हलाकत में पड़ने का सबब बन सकता है। ये मुम्किन है कि उसे कोई चीज़ नुक़्सानदेह नज़र आए फिर उसे मालूम हो जाएगी कि उसमें मस्लिहत (मुफ़ाद) है यूं एक अच्छी चीज़ को वो ख़ुद से दूर करके महरूम होगा। कभी किसी चीज़ में उसे मस्लिहत नज़र आएगी बाद में मालूम होगा कि ये नुक़्सानदेह है जिससे वो ख़ुद ही अपने आप पर बड़ा नुक़्सान ला सकता है। आज अक़्ल किसी चीज़ पर नुक़्सानदेह होने का हुक्म लगा सकती है और कल मालूम होगा कि उसमें मस्लिहत (मुफ़ाद) है। या आज कोई शय नुक़्सानदेह मालूम हो और उस पर नुक़्सानदेह होने का हुक्म लगाया जाये फिर कल मालूम हो जाएगी कि इसमें तो मस्लिहत है, इस किस्म के मुख़ालिफ़ और बरअक्स हुक्म लगाना जायज़ नहीं है। ख़ुद-साख़्ता सेक्युलर निज़ाम इसी चीज़ के लिए तो मशहूर हैं, इसमें उनके क़ानून बनाने वाले इन्सान इसमें लोगों के लिए और ख़ुद के लिए भलाई लेकर आने की ख़ाहिश करते हैं । चुनांचे हम देखते हैं कि वो हमेशा क़वानीन में तब्दीली और रद्दो-बदल करते रहते हैं यहां तक कि इसकी वजह से मसाइल को हल करने के लिए निज़ाम और उसकी मिशनरी को मज़ीद तरक़्क़ी देना बे-हद ज़रूरी हो जाता है, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अस्ल में वो आज तक अशिया और अफ़आल (things and actions) के सही हुक्म तक नहीं पहुंच सके हैं जिन्हें फ़ैसलाकुन और हतमी व हक़ीक़ी तस्लीम किया गया हो। चूँकि उन्होंने इन्सानी कमज़ोरी को तस्लीम नहीं किया और ख़ालिक़े आला को हाकिम नहीं माना है इसलिए अब वो हर शय को ना-मुकम्मल और इर्तिक़ा पज़ीर समझते हैं जिन्हें थोड़े वक़्त के बाद फिर तब्दीली की ज़रूरत पेश आती है। चुनांचे उनके इस नुक़्ता-ए-नज़र के तहत वो दीगर ऐसे निज़ामों को नाक़िस समझते हैं जिस निज़ाम में इर्तिक़ा और तरक़्क़ी जारी नहीं होती और उन्हें ये कह कर बदनाम करने की कोशिश करते हैं कि जो निज़ाम तरक़्क़ी नहीं करता वो जामिद और साक़ित (rigid and static) है। इस मुआमले में मुसलमान भी कुफ़्फ़ार के इस झूठ से मुतास्सिर होते हुए नज़र आते हैं । ऐसे मुसलमान जो चूँकि इस्लाम की सही और हक़ीक़ी तबीयत की समझ से दूर हैं फिर वो अपने बचाव में और अपने दीन के दिफ़ा की ख़ातिर दुश्मन के सोचने के ढंग को इख़्तियार करके अपने दुश्मन की फ़िक्र (thought) को लेकर उस पर चलते हैं । अगर वो इस्लाम की फ़ितरत की सही समझ रखते तो जान लेते कि कमज़ोरी तो दुश्मन के निज़ाम की फ़ितरत में है कि जिसमें थोड़े ही वक़्त में तब्दीली की ज़रूरत पेश आती है और उनका दुश्मन उसकी कमज़ोरी पर पर्दा डाल कर दूसरों पर अपना रोब जमा रहा है।

बे-शक वो ख़ालिक़ ही है जो इन्सान के उमूर की तदबीर करता है और इन्सानी हाजात और जिबल्लतों से पैदा होने वाली सूरतों और मुश्किलात को सही तौर पर हल करता है और उन्हें फ़ितरी और सही तौर पर पूरी करने के काबिल करता है । हक़ीक़त को ज़रूरत भी इसी हल की है जो उसकी सूरते-हाल के मुताबिक़ हो। क्योंकि इन्सान की हक़ीक़त हमेशा एक जैसी है और कभी भी तब्दील नहीं होती तो उसका ईलाज (हल) भी ऐसा पायदार और मुस्तक़िल (fixed) होना चाहिए जिसमें तब्दीली की ज़रूरत पेश ना आए। मर्द को बहैसीयत नर फ़ितरी तौर पर औरत की ज़रूरत होती है ताकि वो औरत की ख़ातिर होने वाली उसकी कशिश को पूरा कर सके, अब चूँकि मर्द और औरत उनकी तिब्बी और फ़ितरी (biological and natural) हक़ीक़त में कभी भी तब्दील नहीं होते तो इसका मतलब हुआ कि उनके दर्मियान ताल्लुक़ की अस्ल हमेशा से बरक़रार और मुस्तक़िल है। इसलिए ये काबिले-क़बूल नहीं है कि हम ऐसा निज़ाम बनाने लगें जो पहले तो एक मर्द और एक औरत के दर्मियान ताल्लुक़ात को तय करे फिर कुछ अर्से बाद ज़माने और तरक़्क़ी को बहाना बना कर उस निज़ाम को बदल डाले जिसने पहले औरत और मर्द के ताल्लुक़ात को तय किया था जबकि इन दोनों की हक़ीक़त और फ़ितरत अब भी वही है और उनके ताल्लुक़ात की नौईयत भी बदली नहीं है ।
इसी तरह शराब की फ़ितरत है जो कभी तब्दील नहीं हुई है, फिर क्या वजह हुई कि हर वक़्त उसका हुक्म बदलता रहे?

इसी तरह जुएँ बाज़ी का मुआमला है उसकी हक़ीक़त हमेशा वही है और कभी तब्दील नहीं हुई है फिर क्या वजह है कि उसके हुक्म में हर वक़्त तब्दीली की जाती रहती है? इसी तरह ढेरों कई मिसालें हैं जहां हक़ीक़त तब्दील ना होने के बावजूद चीज़ों का हुक्म हमेशा तब्दील किया जाता है।

यही वजह है कि ये बातें जैसे तरक़्क़ी या लचकीला पन और ज़माने के साथ नयापन इख़्तियार करना यानी जदीदीयत (आधुनिकता) ये इन्सानों के बनाए हुए मौजूदा ख़ुदसाख़्ता निज़ामों की खासियतें है जो हमें सच्चाई और हक़ की तरफ़ नहीं ले जाते हैं, और ये निज़ाम हमेशा तब्दीली का शिकार रहते हैं । तब्दीली फिर उसका तजुर्बा, चुनांचे फिर तब्दीली, इस तरह तब्दीली का कभी ख़त्म ना होने वाला ये सिलसिला इन्सान के नुक़्स को साफ़ ज़ाहिर कर देता है कि वो ख़ुद से हक़ीक़ी हिदायत हासिल कर के निज़ाम को सही बनाने की क़ाबिलीयत नहीं रखते । अलबत्ता इस कमज़ोरी और नुक़्स को लफ़्ज़ी हेर-फेर के ज़रीये छुपाते हैं और अपनी कमज़ोरी यानी उनके नापायदार तब्दीली के अमल को निहायत ख़ुशनुमा अलफ़ाज़ जैसे तरक़्क़ी और इन्सानी इर्तिक़ा का नाम देते हैं । ऐसे में मुसलमान पर लाज़िम है कि इन्सानी कमज़ोरी के इस मुआमले को जान कर इस मन घड़त क़ाअदे का इनकार कर दें चाहे लोग उसके शरई होने का ढंडोरा करें वो मन घड़ंत क़ायदा ये है,

(لاینکر تغیرا لاحکام بتغیرالازمان و المکان۔)
“ज़माने और जगह के बदलने से अहकामात को बदलने में इनकार नहीं है।”

इस क़ायदे के इनकार के अलावा इसको रद्द कर देना भी ज़रूरी है क्योंकि ये क़ायदा मर्दूद और मुनकिर है। एक मुआमले में अल्लाह का हुक्म भी एक ही है जो कभी इस मुआमला में एक से अधिक नहीं हो सकते हाँ अगर इस मुआमले की अस्ल हक़ीक़त बदल जाये तो ज़ाहिर है मुआमले के बदलने के साथ उसका हुक्म भी बदल जाएगा। मिसाल के तौर पर अंगूर का हुक्म ये है कि वो मुबाह है, लेकिन जब उसकी हक़ीक़त बदल जाये यानी वो ख़मीर के अमल के ज़रीये शराब बन जायेगा तो उसका हुक्म बदल जाएगा और अब इस पर शराब का हुक्म लगेगा जो कि हराम होगी, फिर अगर ये शराब सिरका बन जाये उसका हुक्म फिर तब्दील होगा जो कि फिर मुबाह है, इसमें ज़मान और मकान का कोई एतबार नहीं यानी वक़्त और जगह बदलने पर हुक्म में कोई तब्दीली वाक़ेअ नहीं हुई बल्कि उसकी हर हक़ीक़त का एक अलग हुक्म है, इस तरह ऐसी कोई चीज़ नहीं जो एक जगह हराम हो और दूसरी जगह हलाल हो, इसी तरह ऐसी कोई चीज़ नहीं जो एक ज़माने में हराम और किसी दूसरे ज़माने में हलाल हो सकती है, चुनांचे हुक्म शरई पर वक़्त और जगह का कोई असर नहीं होता है।

शरीयते इस्लामी पिछले तमाम गुज़रे वाक़िआत पर अपने पास अहकाम रखती है इसी तरह मौजूदा तमाम मसाइल और पेश आने वाले आइन्दा तमाम हालात-ओ-वाक़िआत के लिए अहकामात भी अपने पास रखती है। कोई ऐसा वाक़िआ, मसला और हादिसा एसापीश नहीं आता जिस पर इस्लाम की जानिब से कोई हुक्म मौजूद नहीं हो। इस्लामी शरीयत इन्सान के तमाम अफ़आल का मुकम्मल और जामेअ तौर पर अहाता करती है। चुनांचे इरशाद बारी तआला है,

             {16:89}
और हमने आप पर ऐसी किताब नाज़िल कर दी जो हर एक चीज़ को खोल कर बयान करती है।

लिहाज़ा शरीयत इन्सान के हर एक फे़अल और शय के बारे में क़ुरआन या हदीस में दलील पेश करती है या फिर उसके हुक्म के लिए आसमानी इल्लत (divine reason)बयान करती है, और इस इल्लत की बिना पर फे़अल का हुक्म निकाला जा सकता है, लेकिन इसके लिए शरई इबारत से इल्लत का ज़ाहिर होना ज़रूरी है यानी इल्लत शरई जिस पर कोई नस दलालत करती हो और ये इल्लत अक़्ली तावीलों से हासिल होने वाली इल्लत अक्ली नहीं होगी। यहां ज़रूरत है कि अक़्ली क़ियास (Rational Analogy) और शरई क़ियास (Sharai Analogy) के दर्मियान क्या फ़र्क़ है इसकी वज़ाहत कर दी जाये।

अक़्ली क़ियास / (the rational analogy):

जब दो एक जैसी या दो मुतशाबेह (समान) चीज़ों के मुताल्लिक़ अक़्ल कभी फ़ैसला करती है तो वो दोनों चीज़ों के लिए एक ही हुक्म-जारी करती है, लिहाज़ा यही वजह है कि दो चीज़ों में क़ियास (analogy) किया जाता है जिनमें एक ही तरह की मुशाबहत होती है। इस तरह फ़ैसला करते वक़्त वो दो मुख़्तलिफ़ चीज़ों में अक़्ल फ़र्क़ करती है इस तरह दो मुख़्तलिफ़ चीज़ों पर मुख़्तलिफ़ हुक्म लगाती है। इसको क़ियासे अक़्ली कहते हैं ।

ये तर्ज़-ए-अमल शरई क़ियास के बरख़िलाफ़ है क्योंकि शरअ अक्सर एक जैसी चीज़ों के दर्मियान फ़र्क़ करती है और उन्हें मुख़्तलिफ़ हुक्म अता करती है और अक्सर शरअ मुख़्तलिफ़ चीज़ों को इकट्ठा करके एक ही हुक्म अता करती है। चुनांचे हम देखें कि शरअ ने एक ही चीज़ मैं किस तरह फ़र्क़ किया मिसाल के तौर पर शरअ औक़ात के दर्मियान में फ़र्क़ करती है और इस तरह लैलतुल क़द्र को दूसरी रातों पर फ़ज़ीलत दी, निफ़्ल नमाज़ों के लिए रात के वक़्त को तर्जीह दी । इसी तरह शरअ जगहों में फ़र्क़ करती है जैसे मक्का को मदीना पर फ़ज़ीलत दी, या मदीना को दूसरे शहरों पर फ़ज़ीलत दी, इसी तरह सफ़र के दौरान नमाज़े क़स्र के लिए चार रकातों वाली और तीन रकातों वाली नमाज़ के दर्मियान में फ़र्क़ किया यानी क़स्र नमाज़ में रकातों की तादाद दो रकात मुतय्यन (निर्धारित) नहीं की और इस तरह चार रकातों वाली रुबाई नमाज़ में क़स्र (नमाज़ छोटी करने) की इजाज़त दी और तीन रकातों वाली सलासी नमाज़ में इजाज़त नहीं दी और ना ही दो रकात वाली नमाज़ में कोई कमी गई। ये बात अक़्ल की गुंजाइश के बाहर है कि वो उनके दर्मियान में कोई मुवाज़ना (तुलना) भी कर सके। मज़ीद ये देखें कि मनी जो कि पाक होता है उसके निकलने की सूरत में सफ़ाई के लिए ग़ुस्ल को वाजिब क़रार दिया गया जबकि मज़ी जो कि नजिस यानी नापाक है और जो मनी के पहले ख़ारिज होता है इसके निकलने की सूरत में सफ़ाई के लिए सिर्फ वुज़ू का हुक्म दिया गया है हालाँकि दोनों एक ही जगह से ख़ारिज होते हैं । औरत जिसका तलाक़ हुआ हो उसकी इद्दत तीन माहवारी (हैज़) मुक़र्रर कर दी जबकि औरत जिसका शौहर मर गया हो तो उसकी इद्दत चार महीने दस दिन मुक़र्रर कर दी हालाँकि औरत के रहम (womb) की हालत दोनों सूरतों में एक है। इसी तरह शरअ ने ज़िना के जुर्म में सज़ा के लिए फ़र्क़ किया है यानी अगर ज़ानी आज़ाद हो या ग़ुलाम हो अगर शादीशुदा हो या ग़ैर शादीशुदा हो तो उनकी सज़ाएं मुख़्तलिफ़ रखें गईं हैं ।

इसके इलावा हम देखें कि किस तरह शरअ ने मुख़्तलिफ़ चीज़ों या फे़अल को इकट्ठा किया है और एक ही हुक्म दिया है, इस तरह शरअ ने तहारत के लिए पानी और मिट्टी को यकसाँ क़रार दिया है जो दोनों बिलकुल मुख़्तलिफ़ चीज़ें हैं, पानी साफ़ करता है और मिट्टी गंदा करती है या गर्द-आलूद करती है । इसी तरह शरअ ने शादीशुदा ज़ानी, क़ातिल और मुर्तद बन जाने वाले के लिए एक ही सज़ा मुक़र्रर की है जो कि क़त्ल है हालाँकि तीनों जराइम में फ़र्क़ है।

इस तरह शरअ ने कुछ ऐसे अहकामात को भी बयान किया है जिन पर अक़्ल ख़ामोश है । मिसाल के तौर पर सोने को सोने के बदले बेचने को हराम क़रार दिया अगर उनकी मिक़दार बराबर ना हो या क़र्ज़ का मुआमला ना हो, मर्दों के लिए सोना या रेशम पहनने को हराम क़रार दिया लेकिन औरतों के लिए मना नहीं किया। सूद को हराम क़रार दिया लेकिन तिजारत को हराम नहीं किया, वसीयत के मुआमले में काफ़िर की गवाही को काबिले क़बूल क़रार दिया जबकि ख़ुला के बाद रुजू में शर्त लगा दी कि गवाह सिर्फ़ मुसलमान हो। इसीलिए सय्यदना हज़रत अली करम अल्लाह वजहा-ओ-रज़ी अल्लाह अन्ना ने फ़रमाया:

(”لو کان الدین یوخذ بالرای لکان مسح باطن الخف اولی من الظاہرہ“)
“अगर दीन में (अक़्ली) राय की गुंजाइश होती तो मौज़े के निचले हिस्से पर मसहा करना ऊपर के हिस्से पर मसहा करने से बेहतर था।”

वो जमात या हिज़्ब जो इस्लामी ज़िंदगी की वापसी के लिए काम करती है ये बुनियादी बातें जानना और उनकी अच्छी समझ रखना उस पर लाज़िम है । इस जमात की सक़ाफ़त में इन बातों की तर्बीयत नज़र आना चाहिए कि वो किस तरह हक़ीक़त को समझती है और लोगों के लिए उसे कैसे बयान करती है ताकि वो भी हक़ीक़त को जान सकें और समझ सकें, उसके अलावा जमात को ज़रूरी है कि वो शरई मसादिर और उसूली क़वाइद का ताय्युन करके उन्हें इख़्तियार (तबन्नी/adopt) करे और फिर उन्हीं की बुनियाद पर शबाब की तर्बीयत और तैयारी करवाई जाये, क्योंकि उनकी शख़्सियतों को इस्लामी शख़्सियत के साँचे में ढालने के लिए ज़रूरी है कि उनकी अक़्लिया (ज़हनीयत) को इस्लामी बनाया जाये ज़हन साज़ी की जाये और जब वो इन क़वाइद को क़बूल करेंगे तो उनकी अक़्लिया इस्लामी बुनियाद पर तैयार होने लगेगी यूं ये अमल भी जमात की सक़ाफ़त का हिस्सा होगा। इसके इलावा फ़िक्री और उसूली सक़ाफ़त को इख़्तियार (तबन्नी) किए बग़ैर और इस सक़ाफ़त को जमात में परवान चढ़ाए बग़ैर कोई दूसरा रास्ता नहीं है ताकि वह्यी को बग़ैर अक़्ली मिलावट से ख़ालिस रख सकें और इस्लामी अफ़्क़ारो-नज़रियात की सुथराई की हिफ़ाज़त की जा सके और वह्यी को उन तमाम दुनियावी-ओ-अक़्ली चीज़ों से अलग कर सकें जो साफ़ सुथरी वह्यीए इलाही को ग़ुबार आलूद कर देती हैं और उनको धुँदला बनाने लगती हैं, मिसाल के तौर पर ये क़ायदा कि:

(لا ینکر تغیرالا حکام بتغیر الزمان والمکان)
“ज़माने और जगह के बदलने से अहकामात को बदलने में इनकार (मना) नहीं है।”
या ये क़ायदा कि:
(ضرولات تبیح المحظورات)
“ज़रूरत हराम को मुबाह कर देती है।”
या ये क़ायदा कि:
(الذین مرن ومنظور)
“दीन लचकदार और तरक़्क़ी-पसंद है।”
इसी तरह ये कहना कि:
(حیسما تکون المصلحة فم شرع اللہ۔)
“जहां मस्लिहत होगी वहां अल्लाह की शरीयत होगी।”

जी हाँ यही वो वजह है जिसकी वजह से जमात पर ज़रूरी है कि वो अपने लिए उसूल मुतय्यन और इख़्तियार करे जो जमात के नुक़्ता-ए-नज़र और शरई समझ की निगरानी और देख-भाल करे और ये काम जमात को अपनी कार्यवाहीयों और ज़िम्मेदारी के लिए अहकाम मुतय्यन करने और इख़्तियार करने से भी पहले करना होगा और उन पर इताअत और पाबंदी करना उसकी हिदायत और रोशनी होना चाहिये ताकि अल्लाह ताला को राज़ी कर के उसकी ख़ुशनुदी हासिल कर सके ।

एक ही मसले में हो सकता है कि कई इज्तिहादात हो चुके हों लिहाज़ा जमात के लिए लाज़िमी हो जाता है कि वो इन इख़्तिलाफ़ी मसाइल में क़व्वी दलील की बुनियाद पर शरई अहकामात को इख़्तियार (तबन्नी) कर ले और फिर वो उन पर पाबंद और जमी रहती है इसके बाद जमात लोगों के सामने अपने उसूल (फ़िक़्ही उसूल) और फ़ुरू (फ़ुरूई उसूल) को बयान करती है। इसी सक़ाफ़त के माहौल और उसकी तर्बीयत में जमात उसके शबाब की शख़्सियत की तामीर करती है फिर इसके साथ ज़िंदगी के मैदान में आगे बढ़ती है और उनकी बुनियाद पर लोगों में गुफ़्तगु और बेहस व मुबाहिसा करती है, फिर इस इत्मीनान और दलील की बुनियाद पर दावतो-तब्लीग़ के ज़रीये मज़ीद दीगर लोगों को जीत लेती है ताकि वो भी इस सक़ाफ़त को इख़्तियार करते जाएं जिस तरह उसने ख़ुद इख़्तियार किया था, वो इसी सक़ाफ़त के मुताबिक़ अपने मक़सद के हुसूल के लिए जद्दो-जहद करती है वरना वो ख़ुद को फ़िक्री तौर पर ज़ाया कर देगी और अपने तरीके-कार में लड़खड़ाने लगेगी और फिर भीड़ में कहीं गुम हो जाएगी।

मसादिर और उसूल का मुताला और ताय्युन, तब्दीली लाने के अमल से जुड़े अहकामात के मुताले और उनके ताय्युन से भी पहले मुक़द्दम हैं । जमात को उसके तरीके-कार पर चलते हुए सख़्त मुश्किलात और मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा चुनांचे अगर उसने उसूल को आला-तरीन मुक़ाम देकर बाज़ाब्ता तर्ज़ पर इख़्तियार नहीं किया और इसके लिए उन्हें दलील की क़ुव्वत की बुनियाद पर क़बूल नहीं किया होगा तो वो जमात तज़बज़ुब का शिकार होकर बहुत जल्द लड़खड़ाने लगेगी और वो अपने तरीके-कार और अपने उसूलों को बिला झिजक तब्दील करती हुई नज़र आएगी। हो सकता है कि बिलआख़िर वो चार-ओ-नाचार जम्हूरीयत (लोकतंत्र) के इस खेल में कूद पड़े और इसी मौजूदा नाक़िस निज़ामे बातिला में शामिल हो जाएगी जो ख़ुद ही एक बुनियादी मसला है और दावत के रास्ते की बड़ी रुकावट है, और अपनी इस हरकत को ऐसी सफ़ाई से करेंगे कि अपनी राय की ख़ातिर इस्लाम से वो एक उसूल ढूंढ लाएँगे फिर इस बहाना के तहत कि ये जम्हूरीयत इस्लाम के एक उसूल के मुताबिक़ बिलकुल सही है जिसको शूरा कहा जाता है और चूँकि इस्लाम में भी शूरा है जो जम्हूरीयत के ऐन मुशाबेह (समान) है। फिर तो ये भी हो सकता है कि वो पिछले दीगर अदयान (ईसाईयत, यहूदियत वग़ैरा) की भी बातें मानने लगीं और उनसे भी अहकामात लेने लगें और कहें कि (शरअ मन क़बलना) यानी हमसे पहले क़ौमों की शरअ हमारे लिए भी दलील है। जिस चीज़ ने उन्हें इस तब्दीली के लिए मजबूर किया है दरअस्ल वो दावते-हक़ के शरई तरीक़े की पैरवी के रास्ते में पेश आने वाली मुश्किलात और ख़तरात हैं यही वजह है कि सही शरई तरीक़े पर चलना मुश्किल है। ये भी हो सकता है कि कोई जमात ये राय रखे कि इस काम में मुख़्तलिफ़ जमीअतों के कामयाब उस्लूब अपनाए जाये और इस तरह वो सूरते-हाल को तब्दील करने के लिए मददगार होंगे यूं जमात फिर तरीक़े की जगह उसके उस्लूब आज़माने में मसरूफ़ हो जाती हैं । या फिर हो सकता है कि जमात हालात से तंग आकर हुक्मे शरई की बजाय मुसल्लह जद्दो-जहद (armed struggle) पर यक़ीन करना शुरू कर दे ।

चुनांचे जमात के लिए उसूल और मसादिर को तय करके इख़्तियार करना (तबन्नी) और फिर शरअ से मुतय्यन इज्तिहाद के तरीक़े की पाबंदी करना वो बुनियादी अफ़आल हैं जो तब्दीली के इस अमल में जमात को इन बातों पर पाबंद बनाएंगे जो अल्लाह का मुतालिबा है और जिनसे वो राज़ी होता है और उन बातों से मुतास्सिर होने से बचाएँगे जो मसाइबो-हालात का मुतालिबा नज़र आता होगा यह मस्लिहत को अक़्ल से तय करके उसके तक़ाज़े पूरे करने से रोकेंगे, इस तरह जमात जब सोचने के शरई (क़ानूनी) तरीक़े को तय कर ले तो उसके बाद वो तब्दीली के लिए काम करने के शरई तरीके-कार को तय करेगी वरना जब उसके सामने कई रास्ते होंगे तो वो नासमझी में हलाकत के रास्ते पर चल पड़ सकती है तो जमात के ये बुनियादी अफ़आल, शरई तरीक़ा फ़िक्र और शरई तरीक़ा इसे सिराते मुस्तक़ीम पर पाबंद करेंगे। फिर एक मर्तबा जब जमात उसकी सक़ाफ़त के मसादिर और इसकी हदों को तय करके इख़्तियार कर ले तो उसके बाद जमात पर ज़रूरी होगा कि वो अपनी जमाती सक़ाफ़त को भी उन मसादिर और उसूलों की हिदायात की रोशनी में तय करे जिन्हें उसने इख़्तियार किया है ।

इन मसादिर और उसूल के मुताले के दौरान जमात अच्छी तरह छान बीन से यक़ीनी बना ले कि उसकी शरअ की समझ में कोई मिलावट नहीं है और इस्लाम से बाहर की किसी दूसरी सोच और नज़रियात का उसकी शरई समझ पर कोई असर मौजूद नहीं है। साथ ही जमात जद्दो-जहद करे ताकि हर उस बाहरी मिलावट को दूर हटाया जाये जो वह्यी को साफ़ व शफ़्फ़ाफ़ और ख़ालिस रहने ना दे और जद्दो-जहद में रहे ताकि शरअ की समझ रखने में वो ख़ाहिशात और तमन्नाओं से मुतास्सिर ना हो और अक़्ल को इजाज़त ना दे कि वो क़ानूनसाज़ी के शरई अमल को अपने क़ाबू में कर ले। इन तमाम शरई मसादिर और उसूल पर बेहस और उन्हें तय किए बग़ैर जमात के लिए जमात की सक़ाफ़त को तैयार करना ना मुम्किन है जिन पर एक शरई जमात क़ायम होती है।

जो कुछ हमने बयान किया है उस बिना पर इस जमात पर लाज़िम हो जाता है कि वो अब उस हक़ीक़त की तरफ़ रख करे जिसमें उम्मत ज़िंदगी गुज़ार रही है और उसका मुताला करे। जमात उम्मत में पाए जाने वाले अफ़्क़ार, जज़्बात व अहसासात और निज़ामों का मुताला करे, ताकि वो अंदाज़ा लगा सके कि उम्मत ने इन कुफ़रीया अफ़्क़ार और निज़ामों की किस हद तक मुज़ाहमत (निन्दा) करके उन्हें अपने अंदर दाख़िल होने से रोके रखा है और किस हद तक उनके अंदर कुफ़्र ये अफ़्क़ार सिरायत कर चुके हैं । इस्लाम के ख़िलाफ़ मुसलमानों पर फ़िक्री बरतरी हासिल करने के लिए उम्मत कुफ़्फ़ार के कुफ़रीया अफ़्क़ार के हमलों का मुसलसल शिकार बन रही है जिनको कुफ़्फ़ार ने मुसलमानों के लिए ऐसी दवा और ईलाज बना कर पेश किया है कि गोया कि उऩ्ही को इख़्तियार करने में उम्मत की भलाई और तरक़्क़ी है। सियासी बरतरी हासिल करने के लिए कुफ़्फ़ार ने उम्मत पर सियासी लिहाज़ से उन मोहरों और एजैंटों की हुकूमत बिठा दी है जिनको काफ़िर इस्तिमार (Kaafir colonialists)  ने मुसलमानों पर मुसल्लत किया है ताकि ये उनके ज़रीये उम्मत को अपनी मुट्ठी में करके उनकी दौलत और वसाइल पर क़ब्ज़ा कर सकें और हर उस संजीदा अमल को रोकें जो उम्मत के मुफ़ाद में हो जिससे उनके नाजायज़ मुफ़ादात को ख़तरा लाहक़ हो जाएगी या जो उनके इस्तिमार के लिए ख़तरा बन जाये।

चूँकि कुफ़्फ़ार मग़रिबी इस्तिमार को इसके ख़ुद के तजुर्बे से किसी भी मुनज़्ज़म इज्तिमाई काम के कारआमद और नतीजाकुन होने का एहसास है चुनांचे उम्मत में से इस किस्म का मुनज़्ज़म इज्तिमाई काम उसकी बक़ा और तसल्लुत ख़तरा है, इसीलिए उसने हमारे अंदर ऐसे अफ़्क़ार फैला दिये हैं जो मुसलमानों को इज्तिमाई या हिज़्बी अमल से दूर ले जाएं । इसकी बजाय इस मग़रिबी कुफ़्फ़ार ने जुज़वी इज्तिमाई अफ़आल (partial associative actions/अंजुमनों और ख़िदमाती इदारों के काम) की अदायगी में लोगों की हौसला-अफ़ज़ाई की है या ज़ाती आमाल, अख़्लाक़ी हालात को सुधारने जैसे इन्फ़िरादी कामों को इज्तिमाई तौर पर करने की हौसला-अफ़ज़ाई की है, यहाँ तक कि इक़्तिदार की जानिब से बराहे-रास्त कभी ऐसी किस्म की सरगर्मीयों के लिए ख़िदमात मुहय्या कराई गईं तो कभी इन कामों के लिए छूट दी गई, इस तरह उनकी हिम्मत अफ़्ज़ाई की जाती है और ये आमाल वो हैं जो कि फ़ुरूई मसाइल हैं जैसे ग़ुर्बत और अख़्लाक़ी गिरावट के ख़िलाफ़ काम वग़ैरा। मग़रिबी काफ़िर ने उनके दीन के बारे में मुसलमानों को तज़बज़ुब में मुब्तिला कर दिया और दीन पर उनके इस यक़ीन को हिला दिया कि सिर्फ उनके दीन में इन्सान की तमाम मुश्किलात का वाहिद सही हल मौजूद है, जब उसने मुसलमानों के अक़ीदे को उनकी ज़िंदगी से दूर कर दिया फिर उसके बाद उनकी ज़िंदगीयों से दीन की दूरी को ज़बरदस्ती उन पर मुसल्लत कर दिया और उनको रोका कि इस दूरी को ख़त्म करने के लिए काम ना करें। इस वजह से जमात या हिज़्ब के लिए ज़रूरी है कि वो सूरते-हाल की अस्ल हक़ीक़त, उसमें मौजूद अफ़्क़ार, जज़्बात और निज़ाम का ख़ूब गहिरी नज़र से अध्ययन करे और अच्छी समझ हासिल करे ताकि उसको मालूम हो कि वो किस ज़मीन पर खड़ी है, इस ज़मीन की हक़ीक़त क्या है, फिर जान ले कि उस पर किस तरह उसे चलना है, रुकावटों को हटाने के लिए क्या करना चाहिए कैसे कुल्हाड़े और किन औज़ारों की ज़रूरत है और किस किस्म की खाद और दूसरी चीज़ों को ज़मीन में डालने की ज़रूरत है जिससे बंजर ज़मीन वापिस दुबारा ज़रख़ेज़ होकर हरियाली ले आए । चुनांचे उनके लिए सबसे पहले हक़ीक़त और सूरते-हाल को समझने की ज़रूरत है। ये चीज़ ख़ुद में जमात की सक़ाफ़त का अहम हिस्सा बनती है क्योंकि ये हक़ीक़त जमात के सामने साफ़ वाज़ेह रहेगी और जमात पर भी लाज़िम है कि वो उसको अपने शबाब के लिए वाज़ेह करे और यूं आम लोगों के लिए वाज़ेह करे ताकि वो हक़ीक़त के मुताल्लिक़ किसी ग़फ़लत में ना रहें और फिर वो हक़ीक़त की संगीनी की मुनासबत से ईलाज की एहमीयत समझ सकेंगे और फिर उसी के मुताबिक़ उसके ईलाज के मौज़ूं व मनासिब और दुरुस्त होने की पहचान कर सकेंगे।


इस फ़िक्री, सियासी और समाजी सूरते-हाल जिसमें उम्मत ज़िंदगी गुज़ार रही है समस्या को तय करने के बाद जमात आगे बढ़ती है और अफ़्क़ार, राय और अहकाम शरीया को इन फ़िक़्ही उसूल, ज़वाबित और शरई मसादिर की रोशनी में इख़्तियार (तबन्नी) करती है जिनका तज़्किरा हमने किया है । जमात के लिए ज़रूरी है कि अपने शबाब और लोगों के लिए इस तरीक़े की वज़ाहत करे जिसके ज़रीये जमात उन अफ़्क़ार, राय और अहकाम शरीया तक पहुंची है, यही वो तमाम बातें हैं जो जमात के शबाब के अंदर यक़ीन और इत्मीनान, बेदारी, इस्लामी शख़्सियत पैदा करेगी, और उम्मत में आम बेदारी पैदा करेगी ।
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