मुस्लिम पर लाज़िम है कि वो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) पर ईमान लाए अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के तमाम अंबिया और रसूलों पर ईमान लाए और तमाम इस्लामी
अक़ाइद पर ईमान लाए यानी अल्लाह पर, अल्लाह के फ़रिश्तों पर,
अल्लाह की किताबों पर,
अल्लाह के अंबिया और रसूलों पर, क़यामत पर, क़ज़ा और क़दर पर इस तरह कि तक़दीर में ख़ैर और शर दोनों अल्लाह की
तरफ से हैं और किताबुलल्लाह (क़ुरआन) और सुन्नत में जो कुछ नाज़िल हुआ है इस पर असन्देह
और मुदल्लिल (decisive) ईमान
लाए इस तरह ईमान हर मुस्लिम पर फ़र्ज़े ऐन है और उमूमी तौर पर हर मुस्लिम पर ज़रूरी है
कि वो ईमान पर यक़ीन रखे और अपने ईमान के लिए अपने यक़ीन की बुनियाद रखे चुनांचे उस
पर ज़रूरी है कि वो अल्लाह के वजूद पर यक़ीन रखे,
जो हर शय का ख़ालिक़ है और उसकी मिस्ल और उसकी बराबरी का कोई नहीं।
वो तन्हा सिफ़ात कामला रखता है और उस ज़ात में नुक़्स ग़ैर-मौजूद है और ये कि इसकायनात
में जो भी चीज़े हैं और जिन पर वजूद की तख़्लीक़ (creation) हुई है और जो भी इंसानी ज़रूरीयात हैं चाहे वो वस्तुएं
नई ईजादात हो या पुराने ज़माने से क़ुदरती तौर पर मौजूद हो वो तमाम ही अल्लाह अल-क़दीर
की तरफ़ से इंसानों के लिए मुहैया की गई हैं । इस ज़मीन और आसमान की कोई चीज़ इस ख़ालिक़
से पोशीदा नहीं हो सकती और उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ और उसके इल्म में आए बगै़र नहीं रह
सकती । वो तन्हा ही हक़ीक़ी माबूद है और वही तन्हा ही पनाह दे सकता है वही हिफ़ाज़त कर
सकता है और वही तन्हा ख़ुद सुपुर्दगी के लायक़ है और तन्हा अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की रज़ामंदी ही सुकून की वजह बन सकती है। जब मुसलमान इस
बात को आधार बनाता है तब वो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) में ईमान को हासिल कर लेता है। उस पर ये भी ज़रूरी है कि
वो यक़ीन हासिल कर ले कि मुहम्मद अल-अमीन (صلى الله عليه وسلم) अल्लाह के रसूल हैं और दीन बरहक़ लाए
हैं जो उनकी ज़हानत और अक़्लमंदी की रचना बिलकुल नहीं है बल्कि अल्लाह अल-आलीम की तरफ़
से इंसानों के लिए वह्यी के ज़रीये नाज़िल करदा दीनी हक़ है और ये कि रब के इस पैग़ाम
को पहुंचाने में आप मासूम अनिल ख़ता है यानी आपकी तरफ से इसमें कोई कसर बाक़ी नहीं रही
और कोई ख़ता नहीं हुई है। मुस्लिम पर ज़रूरी है कि वो बाक़ी तमाम अंबिया पर भी ईमान लाए
और पिछली तमाम किताबों को अल्लाह की नाज़िल करदा तस्लीम करे, फ़रिश्तों पर, यौम आख़िरत पर और क़ज़ा और क़दर पर ईमान लाए। ये ईमान की बुनियादें
हैं जो भी इनका इक़रार करे वो मोमिन है चाहे उसकी बाअज़ तफ़सीलात को वो ना जानता हो।
ये शख़्स तब तक मोमिन है जब तक वो ऐसा कुछ इख्तियार ना कर ले या ऐसा अक़ीदा ना बना बैठे
जो इस ईमान से विरुध व विपरीत हो। बहरहाल ये ईमान बढ़ता और घटता रहता है चुनांचे ज़रूरी
हो जाता है कि इताअत पर पाबंदी इख्तियार की जाये और तक़्वे का बरताव बरक़रार रखा जाये।
चुनांचे ज़िंदगी के इस मैदान में अल्लाह (سبحانه
وتعالى) पर ईमान उस वक़्त मज़बूत और ज़्यादा शक्तिशाली होता है जब
एक मोमिन आफ़ाक़ी निशानात व जमालात (universal signs and beauty) पर और अल्लाह
की नाज़िल करदा आयात पर बकसरत ग़ौर व फिक्र करता है। चुनांचे जब एक मुस्लिम बकसरत अल्लाह
की तख़्लीक़ (creation) पर और इस तख़्लीक़ के अज्ज़ा-ए-तर्कीबी (composition) के नाप तोल और उसके ख़ालिक़ की ताक़त और क़ुदरत,
अल्लाह के इल्म व हिकमत पर ग़ौर व फिक्र करता है तो नतीजतन इसका
ईमान भी बकसरत मज़बूत होता है और उसके नज़दीक इस अज़ीम ख़ालिक़ का एहतिराम-ओ-तक़द्दुस मज़ीद
बढ़ जाता है । जिस क़दर वो अपने ऊपर अल्लाह की इन नेअमतों पर ग़ौर करता है उनका शुमार
करने लगता है जो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) ने उसे बख़्शी हैं वो बकसरत उनकी क़द्रदानी करने लगता है
और फिर वो हर उस बात और चीज़ का एहसास करने लगता है जिससे वो ग़ाफ़िल हुआ करता था वो
अल्लाह (سبحانه وتعالى) की हमद व सना और अल्लाह (سبحانه
وتعالى) का शुक्र और अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की इताअत करते हुए इस अज़ीम ख़ालिक़ के ज़्यादा क़रीब होने लगता
है और उसका फ़रमांबरदार बन जाता है जिस क़द्र मुसलमान ख़ालिक़ के सिवाय हर शय में मौजूद
ऐब पर और अपने वजूद और ज़ात की आजिज़ी और कमज़ोरीयों पर ग़ौर करने लगता है वो बद्र ख़ालिक़
बरहक़ की इबादत और इताअत-ओ-सुपुर्दगी के लिए बरसर पैकार होता है और इसी के सामने आजिज़ी
का इज़हार करता है।
इस तरह मुम्किन है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान क़वी और कमज़ोर होता जाए, जब एक मुसलमान क़ुरआन को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से समझता है तो
उसे इस बात का पुख़्ता यक़ीन होता जाता है कि क़ुरआन अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के अलावा किसी ग़ैरुल्लाह का कलाम हरगिज़ नहीं है,
तो फिर इस यक़ीन के साथ इसका यक़ीन इस बात पर मज़बूत हो जाता
है कि मुहम्मद (صلى الله عليه
وسلم) हक़ीक़तन अल्लाह के रसूल हैं। इसी तरह जब वो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की सीरत, उनकी ज़िंदगी,
अल्लाह के रास्ते में उनको पहुंचने वाली तकलीफ़ात के बारे
में ग़ौर व फ़िक्र करता है तो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के साथ उसकी मुहब्बत और आप (صلى الله عليه وسلم) की शख़्सियत के साथ उसका रुहानी ताल्लुक़
बढ़ता है। यूं वो मुसलमान आप (صلى الله عليه
وسلم) को राज़ी करने,
आप (صلى الله عليه
وسلم) की इताअत करने और इस बोझ को उठाने में मज़ीद लालची हो जाएगा
जिसको आप (صلى الله عليه وسلم) ने सारी ज़िंदगी उठाया।
यही हाल आख़िरत के दिन पर ईमान का है,
एक मुसलमान जब क़यामत के दिन की होलनाकियों पर ग़ौर करता है जिस
दिन जवान ख़ौफ़ से बूढ़े हो जाएंगे, हामिला औरतें डर के मारे इसक़ात-ए-हमल कर बैठेंगी,
दूध पिलाने वालियां दूध पिलाने से ग़ाफ़िल हो जाएंगी,
लोग इस होलनाक मंज़र को देख कर बेहोश हो जाएंगे,
इस किस्म के ग़ैबी मनाज़र (unseen scene) जिनके बारे में अल्लाह (سبحانه
وتعالى) ने ख़बर दी है उनका तसव्वुर करके उस दिन के अज़ाब से अपने
आप को बचाने की कोशिश करेगा। इसी तरह जब एक मोमिन उन आयात और अहादीस में ग़ौर व
फ़िक्र करेगा जिनमें आग और काफिरों व गुनाहगारों के लिए तैय्यार किए जाने वाले दाइमी
(permanent) अज़ाबों का ज़िक्र है तो उसका आख़िरत
का ख़ौफ़ बढ़ता जाएगा यूं वो उख़रवी ज़िंदगी के मुक़ाबिले मे दुनियावी ज़िंदगी में सज़ा और
अज़ाब की परिवाया नहीं करेगा, जबकि जहन्नुम की आग और अज़ाब से ख़ुद को बचाने की पूरी कोशिश
करेगा,
चाहे इसके लिए उसे अब क़ैद व बन्द और मुसीबतों का सामना करना
पड़े क्योंकि जब दिल में ईमान पक्का हो जाता है तो जिस्म के हिस्से अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की इताअत के लिए क़वी होते हैं। जब मोमिन की नज़र में आख़िरत
बड़ी बन जाती है तो दुनिया उसकी नज़रों में छोटी होती जाती है। चुनांचे जब मुस्लिम का
ईमान पुख़्ता हो जाता है तो वो मोमिन मुश्किलात और मशक़्क़तों में साबित क़दमी और
दृढ़ता का मुज़ाहिरा करता है जो अल्लाह की तरफ से नुसरत के लिए अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की शर्त है
अल्लाह पर ईमान के लिए लाज़िम आता है कि अल्लाह (سبحانه
وتعالى) पर यक़ीन के साथ साथ कुफ्र और हर एक बातिल व ताग़ूत का इनकार
किया जाये जो हक़ के बिलमुक़ाबिल खड़ा हो, जो किसी भी शक्ल में सामने आए हो चाहे वो बातिल अफ़्क़ार व नज़रियात
हो या पत्थर के बुत की सूरत में हो। क़ुरआन ने बुतपरस्ती और इस किस्म के तसव्वुरात का
ज़बरदस्त विरोध किया है :
﴿قَالَ أَتَعْبُدُونَ مَا
تَنْحِتُونَ * وَاللَّهُ خَلَقَكُمْ وَمَا
تَعْمَلُونَ﴾
“इसने फ़रमाया क्या तुम प्रसतिश करते हो उसकी जिसे तुम ख़ुद तराशते
हो? और अल्लाह ही है जिसने पैदा किया तुम्हें और तुम्हारी इन तराश
को” {96-37:95}
अल्लाह (رب العزت) का इरशाद है :
﴿أَفَرَأَيْتُمُ
اللَّاتَ وَالْعُزَّى ! وَمَنَاةَ
الثَّالِثَةَ الْأُخْرَى ! أَلَكُمُ
الذَّكَرُ وَلَهُ الْأُنثَى !
تِلْكَ
إِذاً قِسْمَةٌ ضِيزَى﴾
“फिर क्या तुमने ख़ुद पसंद कर लिए लात, उज़्ज़ा और मनात इस तीसरे को ?
क्या तुम्हारे
लिए नर हैं और उस (रब) के लिए सिर्फ़ मादा?
ये बड़ी ना इंसाफ़ी
तुम ने घड़ी है ।”
{22-53:19}
और अल्लाह (ربّ العزّت) का इरशाद है :
23﴿وَقَالُوا
مَا هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا نَمُوتُ وَنَحْيَا وَمَا يُهْلِكُنَا
إِلَّا الدَّهْرُ
وَمَا لَهُم بِذَلِكَ مِنْ
عِلْمٍ إِنْ هُمْ إِلَّا يَظُنُّونَ ! وَإِذَا
تُتْلَى عَلَيْهِمْ آيَاتُنَا
بَيِّنَاتٍ مَّا كَانَ
حُجَّتَهُمْ إِلَّا أَن قَالُوا ائْتُوا بِآبَائِنَا إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ !
قُلِ اللَّهُ يُحْيِيكُمْ ثُمَّ
يُمِيتُكُمْ ثُمَّ يَجْمَعُكُمْ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ لَا رَيبَ
فِيهِ وَلَكِنَّ أَكَثَرَ
النَّاسِ لَا يَعْلَمُونَ﴾
“और वो कहते
हैं : हमारी इस ज़िंदगी तो सिर्फ दुनिया ही की है के (यहीं) मरते और जीते हैं और
उनको इसका कुछ इल्म नहीं । सिर्फ ज़न से काम लेते हैं (24) और जब उनके सामने हमारी
खुली खुली आयतें पढ़ी जाती हैं तो उनकी यही हुज्जत होती है के अगर तुम सच्चे हो तो
हमारे बाप दादा को (ज़िन्दा कर) लाओ (25) कह दो के खुदा तुमको जान बख़्शता है फिर
(वही) तुमको मौत देता है फिर तुमको क़यामत के रोज़ जिस (के आने) में कुछ शक नहीं
तुमको जमा करेगा लेकिन बहुत से लोग नहीं जानते (26) ” {45:24-26}
चुनांचे अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के अलावा किसी ग़ैर पर ईमान लाना बातिल है ऐसे तमाम बातिल
को झटक कर उनका इनकार करना ज़रूरी है। हक़ीक़त है कि जिस तरह अल्लाह (سبحانه
وتعالى) पर ईमान इख्तियार करने के लिए फ़िक्र की मौजूदगी और इस पर
ग़ौर तफ़क्कुर ज़रूरी होता है इसी तरह कुफ्र क़बूल करने वाले को इसके लिए किसी फ़िक्र और
इस पर ग़ौर तफ़क्कुर की ज़रूरत होती है चुनांचे हम देखते हैं कि पिछली उल्लेखित आयात इंसानों
को फ़िक्र की ख़ातिर उभारती है और मांग करती हैं कि वो कुफ़्फ़ार के तमाम अक़ाइद की हक़ीक़त
पर गौर व तफ़क्कुर करें और पुख़्तगी के साथ यक़ीन जान लें कि ये तमाम कुफ़्रिया अक़ाइद
बातिल और झूटे हैं और इस तरह ही वो हक़ीक़ी तौर पर ताग़ूत का इनकार कर सकते हैं चुनांचे
अल्लाह (ربّ العزّت) का इरशाद है :
﴿فَمَنْ
يَكْفُرْ بِالطَّاغُوتِ وَيُؤمِن بِاللّهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ
الْوُثْقَىَ لاَ
انفِصَامَ لَهَا وَاللّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ﴾ {2:265}
“तो जो शख्स बुतो
से एतिक़ाद न रखे और खुदा पर ईमान लाए उसने ऐसी मज़बूत रस्सी हाथ मे पकड़ ली है जो
कभी टूटने वाली नही और खुदा (सब कुछ) सुनता और (सब कुछ) जानता है”
यूं वाज़ेह हुआ कह जस तरह फ़िक्र और इस पर गौरव तफ़क्कुर अल्लाह पर ईमान लाने का ज़रीया
बनते हैं इसी तरह वो ताग़ूत से इनकार करने का ज़रीया भी बनते हैं चुनांचे एक मुस्लिम
के लिए दोनों ही अफ़आल की ख़ातिर फ़िक्र का पैदा करना और इस पर गौर व तफ़क्कुर के ज़रीये
उन्हें इख्तियार करना आवश्यक है ताकि वो अक़ीदा के मुताल्लिक़ पुख़्ता फ़हमी इख्तियार कर
सके और हिदायत बरहक़ (correct
guidance) हासिल कर सके।
ईमान जो हर मुस्लिम से दरकार (required) है उसको इस्लाम पर पाबंद करता है, जो भी अल्लाह पर ईमान रखता है और हर बातिल शय को झटक देता है वो ख़ुद को इस
अज़ीम हस्ती (इलाह) ख़ालिक़ व क़दीर की तरफ़ माइल होता हुआ पाता है। चुनांचे वो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) से मुहब्बत करता है, अल्लाह (سبحانه
وتعالى) का ख़ौफ़ इख्तियार करता है,
अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की रहमत का तालिब होता है, अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की इबादत करता है और अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के हर अहकाम की इताअत करता है। और उसके नतीजा में ये होता
है कि एक मुस्लिम हर उस चीज़ से मुहब्बत करने लगता है जिससे अल्लाह (سبحانه
وتعالى) मुहब्बत करता है और वो नफ़रत करने लगता है जिस चीज़ से अल्लाह
(سبحانه وتعالى) नफ़रत करता है चुनांचे मुसलमान ख़ुद पर अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की अता करदा इनायात का शुक्र अदा करने वाला बन जाता है,
उसकी रहमत का शुक्र अदा करने वाला बन जाता है और वो ऐसा क्यों
ना करे जब उसे अपने नाक़िस और कमज़ोर होने का मुकम्मल एहसास हो और उसे एक ऐसी हस्ती
की ज़रूरत महसूस होती हो जो उसकी ज़िंदगी के हर मामलात का इंतिज़ाम करे और इसमें हक़
और बातिल के बारे में उसे हिदायत मिल सके? उसे एहसास होता है कि अगर अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की इस पर इनायत ना होती तो उसे ये हिदायत हासिल ना हुई
होती और वो सिराते मुस्तक़ीम पर गामज़न ना होता और उसके मामलात मुनज़्ज़म ना होते। इस
तरह वो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के अहकामात की पाबंदी करके एक अच्छ्াी ज़िंदगी
गुज़ारता है और अगर वो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के ज़िक्र से रुख़ मोड़ भी ले तो वो एक वीरान और उजाड़ ज़िंदगी
गुज़ारता है और अपनी दुनिया और आख़िरत को तबाह कर लेता है इस तरह ईमान ही बिलआख़िर उसे
अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इताअत पर पाबंदी और तक़्वे की तरफ़ ले जाता है और फ़िर यह ईमान हर
मुस्लिम को ख़ालिक़ की इबादत और उसकी इताअत की तरफ़ मोड़ देता है और वो हर ऐसी हर बात से
दूर रहने की कोशिश करता है जो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की नाराज़गी का सबब बनती हो और अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की रज़ा के हुसूल की ख़ातिर मारूफ़ आमाल की अंजामदेही के लिए
उसे बेचैन रखता है। वो क्या चीज़ है जो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की रज़ा का ज़रीया बनती है ?
वो अल्लाह की इताअत है,
अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के अहकामात पर इताअत ही बेशक अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की रज़ा का सबब बनती है इन अहकामात को अल्लाह (سبحانه
وتعالى) अल-हकम (क़ानूनसाज़) ने इंसानों के लिए मारूफ़ात के तौर पर
निर्धारित किए हैं और इंसानों को उनकी इताअत व पाबन्दी का हुक्म दिया है। अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की नाराज़गी का सबब क्या चीज़ बनती है?
वो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की नाफ़रमानी है जो मुनकिरात के ज़रीये वारिद होती है जिन्हें
अल्लाह अल-हकम (क़ानूनसाज़) ने इंसानों के लिए बुराई के तौर पर तय किए हैं और इंसानों
को उनसे बाज़ रहने का हुक्म दिया है।
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