अहकामात को समझने का इस्लामी तरीक़ा



वो काम जो जमात या हिज़्ब इक़ामते दीन के लिए अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर की ज़िम्मेदारी के तहत करती है उसकाम की बुनियाद उसके शरई इल्म पर होनी चाहिए, क्योंकि जैसा कि हमने पहले अर्ज़ किया है कि इल्म से पहले कोई भी अमल नहीं किया जा सकता और इल्म के बग़ैर इख़्लास के साथ अल्लाह की इबादत नहीं हो सकती। चुनांचे दीन के क़ियाम के लिए मतलूब जमात (required group) जिसका पहले ज़िक्र हुआ है इस जमात और इसके अफ़राद के लिए दरकार शरई इल्म की हदूद क्या हैं यानी उनको किन किन अहकाम और उनसे मुताल्लिक़ कितनी गहराई के साथ इल्म और जानकारी होना लाज़िम है? इसके इलावा अहम मुआमला ये है कि इसकाम के लिए मतलूब सक़ाफ़त (required culture) कैसी हो जिसको तामीर करना और परवान चढ़ाना जमात पर लाज़िम है और जिसकी बुनियाद पर (सक़ाफ़्ती मवाद और माहौल के मुताबिक़) इस जमात के शबाब की तर्बीयत और तैयारी होगी और उम्मत को भी इस बुनियाद पर तैयार किया जायेगा?

इस जमात पर उसके काम के लिए दरकार शरई इल्म पर पाबंदी करना लाज़िमी है यूं इसे अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर उसी के मुताबिक़ किया जाता है, जमात या हिज़्ब अगर कभी इन दरकार शरई अहकाम की ख़िलाफ़वरज़ी करे तो उसको नसीहत की जाएगी और अगर इससे भटक जाये तो इसकी इस्लाह की जाएगी जो हुक्म जमात पर फ़र्ज़ है वही फ़र्ज़ दीगर लोगों पर भी आइद होता है। अस्ल मुआमला शरअ की मुकम्मल इत्तिबा और पाबंदी है, जिसमें किसी किस्म की ख़िलाफ़वरज़ी और इन्हिराफ़ जायज़ नहीं है । ये नसीहत करना हर किसी पर ज़रूरी है और ये नसीहत हर किसी ने करना चाहिये ।

इस मुक़ाम पर पहुंच कर अब इस बात को बयान करना ज़्यादा मुनासिब है बल्कि ज़रूरी हो जाता है कि हम जान लें कि तमाम शरई अहकामात को हासिल करने (इस्तिंबात) के लिए एक मुतय्यन साबित शुदा तरीक़ा अमल है, ख़्वाहाँ अहकामात का ताल्लुक़ ज़िंदगी के किसी भी पहलू से हो चाहे दावत से हो या इबादत, मुआमलात (transactions), उक़ूबात (punishments), मतऊमात (foodstuffs), मलबूसात (clothing) या अख़्लाक़ (morals) से। 

इस तरीक़े का ताय्युन भी इस्लाम ने किया है और इस्लाम की फ़ितरत का मुतालिबा भी ये है कि इन्सान अपनी मर्ज़ी इस्लाम के सपुर्द कर दे इस तरह मुसलमानों की ज़हानतो-ज़कावत (genius or intelligence) से ये तरीक़ा हासिल नहीं किया जाता है। इस्लामी अक़ीदा मुसलमान पर लाज़िम क़रार देता है कि वो शरअ के दायरे के बाहर से किसी एक हुक्म को भी ना इख़्तियार करे, चुनांचे हुक्म को हासिल करने (इस्तिंबात) के लिए मुसलमान पर लाज़िम है कि वो शरई हदूद की पाबंदी करे जिन पर शरई नुसूस दलालत करते हैं । इसलिए इस्लाम की जानिब से हुक्म हासिल करने के लिए ऐसा तरीक़ा अमल मुहय्या कराना ज़रूरी है कि जिसके तहत यक़ीनी (निश्चित) हो जाये कि रहनुमाई सिर्फ़ इस्लाम की हिदायात से ली जाती रहेगी और इस्लाम की समझ की निगरानी व हिफ़ाज़त होती रहेगी और इस तरह रहनुमाई लेना और पाबंदी करना हमेशा ख़ालिस वह्यी के ज़रीये नाज़िल हुए नुसूस तक सीमित रहे। यूं फ़िक़्ही नुक़्ता-ए-नज़र और इस्लामी अक़ीदा के नुक़्ता-ए-नज़र में कोई फ़र्क़ ना पैदा हो और इसकी शरअइत पूरी तरह क़ायम होती रहीं । 

शरअ से मुतय्यन करदा (fixed) इज्तिहाद का तरीक़ा निहायत अहम और इस क़दर ज़रूरी है कि जमात या पार्टी की सक़ाफ़त (culture) में इसे निहायत आला और इम्तियाज़ी मुक़ाम हासिल कर लेना चाहिये जिससे पहली मर्तबा जमात या हिज़्ब की सक़ाफ़त वजूद में आती है। फिर इसी तरीक़े से अहकाम को हासिल (इस्तिंबात) किया जाएगा। अगर इस्तिंबात का तरीक़ा सही होगा तो ऐसे सही शरई अहकामात हासिल होंगे जिनमें शुबा की गुंजाइश क़लील कम से कम तर होगी और इस अमल पर अज्र भी मिलेगा। वरना इस राय की कोई एहमीयत नहीं है जो शरई तौर पर मुतय्यन तरीक़ाए इस्तिंबात की बुनियाद पर नहीं होगी चाहे कोई बातिल तौर पर यह किसी ग़लत फ़हमी में रह कर उसे कितना ही शरई राय बतलाता रहे । क्योंकि एतबार नाम का नहीं किया जाता बल्कि हक़ीक़त का है चुनांचे इस्तिंबात के लिए तरीक़े की पाबंदी लाज़िम है। 

आज हम पहले से ज़्यादा इस तरीक़े के ज़रूरतमंद हैं जो मुसलमानों को मग़रिबी फ़िक्र (western thought) से मुतास्सिर होने और हुक्म मालूम करने के लिए क़ानून बनाने के उनके तरीक़े (तरीक़ाए इस्तिंबात) की पैरवी करने से बचाता और रोकता है, ये इस ज़माने का ऐसा मर्ज़ है जिसमें बहुत सारे ऐसे अफ़राद मुब्तिला हैं जिन्हें उल्मा में शुमार किया जाता है। हम देखते हैं कि उनके इज्तिहादात और फतावा, उनके अख़ज़ करने के इस्लामी ज़वाबित व तरीक़े से बहुत दूर निकल गए हैं और वो आसमानी हिदायात की बजाय मग़रिबी तसव्वुरात और ख़ाम-ख़याली से रहनुमाई लेते नज़र आते हैं । यही वजह है कि शरअ के ताल्लुक़ से कि जिसका अपना ख़ुद का एक तयकरदा इज्तिहाद का तरीक़ा है आज मुसलमानों पर ज़रूरी है कि वो उस पर इकट्ठे होकर जम जाएं चाहे उनके इज्तिहादात के नतीजे आपस में इख़्तिलाफ़ात करते हों, यहां हम इस तरीक़े को इजमाली तौर पर बयान करेंगे। बिलकुल इसी तरह जैसा ये तरीक़ा सलफ़ (अव्वलीन इब्तिदाई नस्लों/predecessors) का था इसी तरह तरीक़ा ख़लफ़ (बाद की नस्लों) का भी होना चाहिए और जो भी उनके बाद आएं बल्कि क़ियामत तक यही तरीक़ा है । 

इस्लाम में अहकामात को मालूम करने के तरीक़े में शामिल बातें ये हैं, पहले मसले की गहरी समझ हासिल कर लेना, उसके बाद दलायल की तलाश, उनका मुताला (अध्ययन) और मसले के हल से मुताल्लिक़ तमाम शरई दलायल को समझना आख़िर में इन शरई दलायल से दरपेश मसले का हुक्म हासिल (इस्तिंबात) करना।
इस पूरे तरीके को पांच नुक्तो मे बयान किया जा सकता है जो मुंदरजाज़ेल है:

1. (तहक़ीक़ अलमनात) हक़ीक़त की समझ/understanding the manaat (reality)

2. शरअ की समझ और दलायल के शरई मसादिर/ sources of the shar’a

3. शरअ को समझने के उसूल

4. मस्लिहत : हुक्मे शरई के लिये इल्लत नही बन सकती

 5. अक़्ली क़ियास / (the rational analogy)

(नोट: इन तमाम नुक्तों की वज़ाहत अलग-अलग मज़ामीन मे की गई है)

वो जमात या हिज़्ब जो इस्लामी ज़िंदगी की वापसी के लिए काम करती है ये बुनियादी बातें जानना और उनकी अच्छी समझ रखना उस पर लाज़िम है । इस जमात की सक़ाफ़त में इन बातों की तर्बीयत नज़र आना चाहिए कि वो किस तरह हक़ीक़त को समझती है और लोगों के लिए उसे कैसे बयान करती है ताकि वो भी हक़ीक़त को जान सकें और समझ सकें, उसके अलावा जमात को ज़रूरी है कि वो शरई मसादिर और उसूली क़वाइद का ताय्युन करके उन्हें इख़्तियार (तबन्नी/adopt) करे और फिर उन्हीं की बुनियाद पर शबाब की तर्बीयत और तैयारी करवाई जाये, क्योंकि उनकी शख़्सियतों को इस्लामी शख़्सियत के साँचे में ढालने के लिए ज़रूरी है कि उनकी अक़्लिया (ज़हनीयत) को इस्लामी बनाया जाये ज़हन साज़ी की जाये और जब वो इन क़वाइद को क़बूल करेंगे तो उनकी अक़्लिया इस्लामी बुनियाद पर तैयार होने लगेगी यूं ये अमल भी जमात की सक़ाफ़त का हिस्सा होगा। इसके इलावा फ़िक्री और उसूली सक़ाफ़त को इख़्तियार (तबन्नी) किए बग़ैर और इस सक़ाफ़त को जमात में परवान चढ़ाए बग़ैर कोई दूसरा रास्ता नहीं है ताकि वह्यी को बग़ैर अक़्ली मिलावट से ख़ालिस रख सकें और इस्लामी अफ़्क़ारो-नज़रियात की सुथराई की हिफ़ाज़त की जा सके और वह्यी को उन तमाम दुनियावी-ओ-अक़्ली चीज़ों से अलग कर सकें जो साफ़ सुथरी वह्यीए इलाही को ग़ुबार आलूद कर देती हैं और उनको धुँदला बनाने लगती हैं, मिसाल के तौर पर ये क़ायदा कि:

(لا ینکر تغیرالا حکام بتغیر الزمان والمکان)
“ज़माने और जगह के बदलने से अहकामात को बदलने में इनकार (मना) नहीं है।”
या ये क़ायदा कि:              

(ضرولات تبیح المحظورات)

“ज़रूरत हराम को मुबाह कर देती है।”

या ये क़ायदा कि:

(الذین مرن ومنظور)

“दीन लचकदार और तरक़्क़ी-पसंद है।”


इसी तरह ये कहना कि:

(حیسما تکون المصلحة فم شرع اللہ۔)


जहां मस्लिहत होगी वहां अल्लाह की शरीयत होगी।” 

जी हाँ यही वो वजह है जिसकी वजह से जमात पर ज़रूरी है कि वो अपने लिए उसूल मुतय्यन और इख़्तियार करे जो जमात के नुक़्ता-ए-नज़र और शरई समझ की निगरानी और देख-भाल करे और ये काम जमात को अपनी कार्यवाहीयों और ज़िम्मेदारी के लिए अहकाम मुतय्यन करने और इख़्तियार करने से भी पहले करना होगा और उन पर इताअत और पाबंदी करना उसकी हिदायत और रोशनी होना चाहिये ताकि अल्लाह ताला को राज़ी कर के उसकी ख़ुशनुदी हासिल कर सके । 

एक ही मसले में हो सकता है कि कई इज्तिहादात हो चुके हों लिहाज़ा जमात के लिए लाज़िमी हो जाता है कि वो इन इख़्तिलाफ़ी मसाइल में क़व्वी दलील की बुनियाद पर शरई अहकामात को इख़्तियार (तबन्नी) कर ले और फिर वो उन पर पाबंद और जमी रहती है इसके बाद जमात लोगों के सामने अपने उसूल (फ़िक़्ही उसूल) और फ़ुरू (फ़ुरूई उसूल) को बयान करती है। इसी सक़ाफ़त के माहौल और उसकी तर्बीयत में जमात उसके शबाब की शख़्सियत की तामीर करती है फिर इसके साथ ज़िंदगी के मैदान में आगे बढ़ती है और उनकी बुनियाद पर लोगों में गुफ़्तगु और बेहस व मुबाहिसा करती है, फिर इस इत्मीनान और दलील की बुनियाद पर दावतो-तब्लीग़ के ज़रीये मज़ीद दीगर लोगों को जीत लेती है ताकि वो भी इस सक़ाफ़त को इख़्तियार करते जाएं जिस तरह उसने ख़ुद इख़्तियार किया था, वो इसी सक़ाफ़त के मुताबिक़ अपने मक़सद के हुसूल के लिए जद्दो-जहद करती है वरना वो ख़ुद को फ़िक्री तौर पर ज़ाया कर देगी और अपने तरीके-कार में लड़खड़ाने लगेगी और फिर भीड़ में कहीं गुम हो जाएगी। 

मसादिर और उसूल का मुताला और ताय्युन, तब्दीली लाने के अमल से जुड़े अहकामात के मुताले और उनके ताय्युन से भी पहले मुक़द्दम हैं । जमात को उसके तरीके-कार पर चलते हुए सख़्त मुश्किलात और मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा चुनांचे अगर उसने उसूल को आला-तरीन मुक़ाम देकर बाज़ाब्ता तर्ज़ पर इख़्तियार नहीं किया और इसके लिए उन्हें दलील की क़ुव्वत की बुनियाद पर क़बूल नहीं किया होगा तो वो जमात तज़बज़ुब का शिकार होकर बहुत जल्द लड़खड़ाने लगेगी और वो अपने तरीके-कार और अपने उसूलों को बिला झिजक तब्दील करती हुई नज़र आएगी। हो सकता है कि बिलआख़िर वो चार-ओ-नाचार जम्हूरीयत (लोकतंत्र) के इस खेल में कूद पड़े और इसी मौजूदा नाक़िस निज़ामे बातिला में शामिल हो जाएगी जो ख़ुद ही एक बुनियादी मसला है और दावत के रास्ते की बड़ी रुकावट है, और अपनी इस हरकत को ऐसी सफ़ाई से करेंगे कि अपनी राय की ख़ातिर इस्लाम से वो एक उसूल ढूंढ लाएँगे फिर इस बहाना के तहत कि ये जम्हूरीयत इस्लाम के एक उसूल के मुताबिक़ बिलकुल सही है जिसको शूरा कहा जाता है और चूँकि इस्लाम में भी शूरा है जो जम्हूरीयत के ऐन मुशाबेह (समान) है। फिर तो ये भी हो सकता है कि वो पिछले दीगर अदयान (ईसाईयत, यहूदियत वग़ैरा) की भी बातें मानने लगीं और उनसे भी अहकामात लेने लगें और कहें कि (शरअ मन क़बलना) यानी हमसे पहले क़ौमों की शरअ हमारे लिए भी दलील है। जिस चीज़ ने उन्हें इस तब्दीली के लिए मजबूर किया है दरअस्ल वो दावते-हक़ के शरई तरीक़े की पैरवी के रास्ते में पेश आने वाली मुश्किलात और ख़तरात हैं यही वजह है कि सही शरई तरीक़े पर चलना मुश्किल है। ये भी हो सकता है कि कोई जमात ये राय रखे कि इस काम में मुख़्तलिफ़ जमीअतों के कामयाब उस्लूब अपनाए जाये और इस तरह वो सूरते-हाल को तब्दील करने के लिए मददगार होंगे यूं जमात फिर तरीक़े की जगह उसके उस्लूब आज़माने में मसरूफ़ हो जाती हैं । या फिर हो सकता है कि जमात हालात से तंग आकर हुक्मे शरई की बजाय मुसल्लह जद्दो-जहद (armed struggle) पर यक़ीन करना शुरू कर दे ।

चुनांचे जमात के लिए उसूल और मसादिर को तय करके इख़्तियार करना (तबन्नी) और फिर शरअ से मुतय्यन इज्तिहाद के तरीक़े की पाबंदी करना वो बुनियादी अफ़आल हैं जो तब्दीली के इस अमल में जमात को इन बातों पर पाबंद बनाएंगे जो अल्लाह का मुतालिबा है और जिनसे वो राज़ी होता है और उन बातों से मुतास्सिर होने से बचाएँगे जो मसाइबो-हालात का मुतालिबा नज़र आता होगा यह मस्लिहत को अक़्ल से तय करके उसके तक़ाज़े पूरे करने से रोकेंगे, इस तरह जमात जब सोचने के शरई (क़ानूनी) तरीक़े को तय कर ले तो उसके बाद वो तब्दीली के लिए काम करने के शरई तरीके-कार को तय करेगी वरना जब उसके सामने कई रास्ते होंगे तो वो नासमझी में हलाकत के रास्ते पर चल पड़ सकती है तो जमात के ये बुनियादी अफ़आल, शरई तरीक़ा फ़िक्र और शरई तरीक़ा इसे सिराते मुस्तक़ीम पर पाबंद करेंगे। फिर एक मर्तबा जब जमात उसकी सक़ाफ़त के मसादिर और इसकी हदों को तय करके इख़्तियार कर ले तो उसके बाद जमात पर ज़रूरी होगा कि वो अपनी जमाती सक़ाफ़त को भी उन मसादिर और उसूलों की हिदायात की रोशनी में तय करे जिन्हें उसने इख़्तियार किया है ।
इन मसादिर और उसूल के मुताले के दौरान जमात अच्छी तरह छान बीन से यक़ीनी बना ले कि उसकी शरअ की समझ में कोई मिलावट नहीं है और इस्लाम से बाहर की किसी दूसरी सोच और नज़रियात का उसकी शरई समझ पर कोई असर मौजूद नहीं है। साथ ही जमात जद्दो-जहद करे ताकि हर उस बाहरी मिलावट को दूर हटाया जाये जो वह्यी को साफ़ व शफ़्फ़ाफ़ और ख़ालिस रहने ना दे और जद्दो-जहद में रहे ताकि शरअ की समझ रखने में वो ख़ाहिशात और तमन्नाओं से मुतास्सिर ना हो और अक़्ल को इजाज़त ना दे कि वो क़ानूनसाज़ी के शरई अमल को अपने क़ाबू में कर ले। इन तमाम शरई मसादिर और उसूल पर बेहस और उन्हें तय किए बग़ैर जमात के लिए जमात की सक़ाफ़त को तैयार करना ना मुम्किन है जिन पर एक शरई जमात क़ायम होती है। 

जो कुछ हमने बयान किया है उस बिना पर इस जमात पर लाज़िम हो जाता है कि वो अब उस हक़ीक़त की तरफ़ रख करे जिसमें उम्मत ज़िंदगी गुज़ार रही है और उसका मुताला करे। जमात उम्मत में पाए जाने वाले अफ़्क़ार, जज़्बात व अहसासात और निज़ामों का मुताला करे, ताकि वो अंदाज़ा लगा सके कि उम्मत ने इन कुफ़रीया अफ़्क़ार और निज़ामों की किस हद तक मुज़ाहमत (निन्दा) करके उन्हें अपने अंदर दाख़िल होने से रोके रखा है और किस हद तक उनके अंदर कुफ़्र ये अफ़्क़ार सिरायत कर चुके हैं । इस्लाम के ख़िलाफ़ मुसलमानों पर फ़िक्री बरतरी हासिल करने के लिए उम्मत कुफ़्फ़ार के कुफ़रीया अफ़्क़ार के हमलों का मुसलसल शिकार बन रही है जिनको कुफ़्फ़ार ने मुसलमानों के लिए ऐसी दवा और ईलाज बना कर पेश किया है कि गोया कि उऩ्ही को इख़्तियार करने में उम्मत की भलाई और तरक़्क़ी है। सियासी बरतरी हासिल करने के लिए कुफ़्फ़ार ने उम्मत पर सियासी लिहाज़ से उन मोहरों और एजैंटों की हुकूमत बिठा दी है जिनको काफ़िर इस्तिमार (Kaafir colonialists)  ने मुसलमानों पर मुसल्लत किया है ताकि ये उनके ज़रीये उम्मत को अपनी मुट्ठी में करके उनकी दौलत और वसाइल पर क़ब्ज़ा कर सकें और हर उस संजीदा अमल को रोकें जो उम्मत के मुफ़ाद में हो जिससे उनके नाजायज़ मुफ़ादात को ख़तरा लाहक़ हो जाएगी या जो उनके इस्तिमार के लिए ख़तरा बन जाये। 

चूँकि कुफ़्फ़ार मग़रिबी इस्तिमार को इसके ख़ुद के तजुर्बे से किसी भी मुनज़्ज़म इज्तिमाई काम के कारआमद और नतीजाकुन होने का एहसास है चुनांचे उम्मत में से इस किस्म का मुनज़्ज़म इज्तिमाई काम उसकी बक़ा और तसल्लुत ख़तरा है, इसीलिए उसने हमारे अंदर ऐसे अफ़्क़ार फैला दिये हैं जो मुसलमानों को इज्तिमाई या हिज़्बी अमल से दूर ले जाएं । इसकी बजाय इस मग़रिबी कुफ़्फ़ार ने जुज़वी इज्तिमाई अफ़आल (partial associative actions/अंजुमनों और ख़िदमाती इदारों के काम) की अदायगी में लोगों की हौसला-अफ़ज़ाई की है या ज़ाती आमाल, अख़्लाक़ी हालात को सुधारने जैसे इन्फ़िरादी कामों को इज्तिमाई तौर पर करने की हौसला-अफ़ज़ाई की है, यहाँ तक कि इक़्तिदार की जानिब से बराहे-रास्त कभी ऐसी किस्म की सरगर्मीयों के लिए ख़िदमात मुहय्या कराई गईं तो कभी इन कामों के लिए छूट दी गई, इस तरह उनकी हिम्मत अफ़्ज़ाई की जाती है और ये आमाल वो हैं जो कि फ़ुरूई मसाइल हैं जैसे ग़ुर्बत और अख़्लाक़ी गिरावट के ख़िलाफ़ काम वग़ैरा। मग़रिबी काफ़िर ने उनके दीन के बारे में मुसलमानों को तज़बज़ुब में मुब्तिला कर दिया और दीन पर उनके इस यक़ीन को हिला दिया कि सिर्फ उनके दीन में इन्सान की तमाम मुश्किलात का वाहिद सही हल मौजूद है, जब उसने मुसलमानों के अक़ीदे को उनकी ज़िंदगी से दूर कर दिया फिर उसके बाद उनकी ज़िंदगीयों से दीन की दूरी को ज़बरदस्ती उन पर मुसल्लत कर दिया और उनको रोका कि इस दूरी को ख़त्म करने के लिए काम ना करें। इस वजह से जमात या हिज़्ब के लिए ज़रूरी है कि वो सूरते-हाल की अस्ल हक़ीक़त, उसमें मौजूद अफ़्क़ार, जज़्बात और निज़ाम का ख़ूब गहिरी नज़र से अध्ययन करे और अच्छी समझ हासिल करे ताकि उसको मालूम हो कि वो किस ज़मीन पर खड़ी है, इस ज़मीन की हक़ीक़त क्या है, फिर जान ले कि उस पर किस तरह उसे चलना है, रुकावटों को हटाने के लिए क्या करना चाहिए कैसे कुल्हाड़े और किन औज़ारों की ज़रूरत है और किस किस्म की खाद और दूसरी चीज़ों को ज़मीन में डालने की ज़रूरत है जिससे बंजर ज़मीन वापिस दुबारा ज़रख़ेज़ होकर हरियाली ले आए । चुनांचे उनके लिए सबसे पहले हक़ीक़त और सूरते-हाल को समझने की ज़रूरत है। ये चीज़ ख़ुद में जमात की सक़ाफ़त का अहम हिस्सा बनती है क्योंकि ये हक़ीक़त जमात के सामने साफ़ वाज़ेह रहेगी और जमात पर भी लाज़िम है कि वो उसको अपने शबाब के लिए वाज़ेह करे और यूं आम लोगों के लिए वाज़ेह करे ताकि वो हक़ीक़त के मुताल्लिक़ किसी ग़फ़लत में ना रहें और फिर वो हक़ीक़त की संगीनी की मुनासबत से ईलाज की एहमीयत समझ सकेंगे और फिर उसी के मुताबिक़ उसके ईलाज के मौज़ूं व मनासिब और दुरुस्त होने की पहचान कर सकेंगे। 

इस फ़िक्री, सियासी और समाजी सूरते-हाल जिसमें उम्मत ज़िंदगी गुज़ार रही है समस्या को तय करने के बाद जमात आगे बढ़ती है और अफ़्क़ार, राय और अहकाम शरीया को इन फ़िक़्ही उसूल, ज़वाबित और शरई मसादिर की रोशनी में इख़्तियार (तबन्नी) करती है जिनका तज़्किरा हमने किया है । जमात के लिए ज़रूरी है कि अपने शबाब और लोगों के लिए इस तरीक़े की वज़ाहत करे जिसके ज़रीये जमात उन अफ़्क़ार, राय और अहकाम शरीया तक पहुंची है, यही वो तमाम बातें हैं जो जमात के शबाब के अंदर यक़ीन और इत्मीनान, बेदारी, इस्लामी शख़्सियत पैदा करेगी, और उम्मत में आम बेदारी पैदा करेगी ।
 
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