शरअ की समझ और दलायल के शरई मसादिर

अक़्ल के ज़रीये तमाम हक़ीक़त को सही तरीक़े से समझने के बाद हक़ीक़त के उस शरई ईलाज की तरफ़ आना चाहिए जो हक़ीक़त से जुड़े हुए शरई दलायल से इस्तिंबात के ज़रीये हासिल किया गया हो। इस शरई ईलाज या हल को हासिल करने के लिए अक़्ल का इस्तिमाल हल को तय करने या सालिस (arbitrator) के तौर पर ना हो जो इस हल की तलाश के दौरान नफ़ा और नुक़्सान या अच्छे और बुरे को तय करे, बल्कि उसका इस्तिमाल सिर्फ़ शरई दलायल में मौजूद ईलाज को समझने के लिए हो। यहां अक़्ल का दायरा उस हल को समझने तक है जो शरअ में मौजूद है।

शरअ को समझने के लिए हमें दरकार होता है कि उन शरई मब्दा (मसदर /sources जिनसे दलायल हासिल होते हैं) की मालूमात हासिल की जाये जिनसे जमात शरअ लेती है और साथ ही उन उसूली क़वाइद (juristic principles) की मालूमात भी हासिल करना लाज़िमी है जमात जिन पर एतिमाद करते हुए शरअ को समझती है और फिर ये इस समझ के साथ बुरी हक़ीक़त को बदलने का फ़ैसला लेती है । चुनांचे इसी के मुताबिक़ जमात फ़िर उस बेहतरीन हक़ीक़त जहां पर जमात लोगों को ले जाना चाहती है, उस हक़ीक़त को बयान करेगी और इसके लिए जमात को इज्तिहाद के अमल के तरीक़े का इल्म होगा यानी तरीक़ाए इस्तिदलाल में वो कारबन्द रहेगी।

दलायल के शरई मसादिर/ sources of the shar’a:
हर हुक्म किसी ना किसी मसदर से सादिर होता है लिहाज़ा हर एक हुक्म उसके हक़ीक़ी मसदर से हासिल करना ज़रूरी है और इसके लिए मुकम्मल मुताला के बाद अच्छी तरह यक़ीन और इत्मीनान के बाद मसदर को निर्धारित करना ज़रूरी है। ये बात हम सब जानते हैं कि इस्लामी क़ानूनसाज़ी के लिए बुनियादी मसादिर क़ुरआन और सुन्नत है इसमें किसी के दर्मियान कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है, अलबत्ता इनमें से कई दीगर ऐसे मसादिर हासिल होते हैं जैसे इज्मा (consensus), क़ियास (analogy), इस्तिहसान (juristic preference), सहाबी (رضي الله عنه) का मज़हब (सहाबा رضی اللہ عنھم की राय) और शरअ मन क़बलना (पुराने अम्बियाओं की शरीअत) वग़ैरा ये सब मसादिर ऐसे हैं जिनके बारे में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। किसी भी जमात के नज़दीक कौन सी चीज़ दलील बन सकती है इस बात का जायज़ा लेने पर शरअ को इख़्तियार करने से मुताल्लिक़ जमात कैसा रुजहान रखती है हमें साफ़ नज़रा जाता है।
ये बात भी सब जानते हैं कि मसादिर के लिए दलायल क़तई हों तो ही उन पर भरोसा कर के उन्हें अपनाया जा सकता है यानी ज़रूरी ये है कि क़ुरआन व हदीस में उन पर एतिमाद करने के बारे में क़तई सबूत मिलें ताकि क़ानूनसाज़ी के मसदर (स्रोत) के तौर पर उनका इस्तिमाल किया जाए, दीगर अलफ़ाज़ में ये दोनों बुनियादी मसादिर इस तीसरे या दीगर मख़सूस मसदर को इख़्तियार करने की क़तई तौर पर दलील पेश करते हों । शरई मसादिर को इख़्तियार करने में किसी की तक़्लीद यानी नक़्ल से काम नहीं लिया जा सकता, ये मुआमला बुनियादी बातों (कुल्लियात) में से है लिहाज़ा उनका क़तई होना ज़रूरी है और हम जानते हैं कि तक़्लीद में ज़न (शुबा) शामिल होता है जो किसी भी मुआमला को क़तईयत तक नहीं पहुँचाता।
जब मसादिरे शरअ (sources of legislation) को तय कर लिया जाएगा तो हमें मालूम हो जाएगा कि वो कौन से चश्मे हैं जहां से जमात प्यास बुझाएगी और कौन से चश्मों से नहीं पीयेगी यानी किस मब्दा या मसदर से दलील लेगी और किस मसदर से दलील क़बूल नहीं करेगी। इन मसादिर (sources) को तय करने में इंतिहाई एहतियात करना लाज़िम है क्योंकि ग़लती से किसी एक ग़लत मसदर को इख़्तियार कर लिया जाएगा तो इस से हासिल होने वाले तमाम अहकामात ग़लती पर होंगे। इस से पहले कि जमात के काम से मुताल्लिक़ किसी भी अहकाम शरई को तय किया जाये पहले शरअ के मसादिर को तय करना निहायत ज़रूरी है, ये बात काबिले-क़बूल नहीं होगी कि एक जमात इस्लाम का पैग़ाम लेकर उठे और वो अपने ज़रीये इख़्तियार किए हुए इस्लामी शरई मसादिर को बयान ना कर दे।
इसके इलावा ये भी काबिले-क़बूल नहीं है कि क़ुरआनो-सुन्नत के अलावा दीगर तमाम के तमाम मसादिर इख़्तियार कर लिए जाएं ताकि ज़्यादा भलाई इकट्ठा हो और ज़्यादा से ज़्यादा अच्छी बातों को हासिल किया जा सके, बल्कि ऐसा करने का नतीजा ये होगा कि जमात भलाई और बुराई ख़ुद तय करने लगेगी और फिर इसके नतीजे में शरअ की इस तरह तोड़-मरोड़ होने लगेगी कि हक़ीक़त, अक़्ल, ख़ाहिशात, जज़्बात और फ़ायदे (मस्लिहत) के सामने शरअ घुटने टेक दे और उन के ताबे होकर रह जाएगी। और जब हालत ये होगे तो दलील का मक़सद सिर्फ ये होकर रह जाएगा कि किसी तरह उन ख़्वाहिशों और तमन्नाओं को सही साबित कर दे जब कि ये बात इस मक़सद से बिलकुल उलट है जो शरअ हमसे चाहती है, उस वक़्त ये दलील ख़िलाफ़े शरअ और मज़कूरा चीज़ों के लिए होगी जो कि नाजायज़ है।
पस जमात पर लाज़िम है कि अहकाम का सूरते हाल को तब्दील करने के लिए राय देने से पहले अपने मसादिर को तय कर ले, ज़माने की सोच और हक़ीक़त से मुतास्सिर होकर मसदर तय ना करे, बल्कि मसादिर को तय करने या रद्द करने के लिए शरई इबारतों और उनके लिए दलायल के क़तई होने पर ध्यान दे, मज़ीद ये एहसास ज़रूरी है कि जमात जिन मसादिर को अपनाएगी ये उसके अपने उसूल होंगे और उनको दूसरों पर लाज़िम क़रार नहीं देगी, हाँ इस राय को दूसरों के सामने पेश करेगी ताकि वो इत्मीनान और दलील की बुनियाद पर वो इस को इख़्तियार करें, ख़ुसूसन उन चीज़ों के बारे में जो उन के नज़दीक क़तई हैं, वरना जमात अगर उसके उसूलों को दूसरों के लिए लाज़िम क़रार देगी तो वो ख़ुद के लिए और दूसरों के लिए मुश्किलात खड़ी कर देगी।
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