जब हम नाज़िल करदा आसमानी फ़राइज़ की ध्यान से छान बीन करते हैं तो मालूम होता है
कि बिलाशुबा कुछ अहकामात व्यक्तिगत श्रेणी के हैं और कुछ अहकामात सामूहिक श्रेणी के
हैं फ़र्ज़ ऐनी वो फ़रीज़ा है जिसकी पाबंदी फ़र्दन फर्दन हर एक मुकल्लिफ़ (legally responsible person) शख़्स पर फ़र्ज़ हैं
यानी एक शख़्स अगर इस फ़र्ज़ को तर्क करदे और बाक़ी तमाम लोगों लोगों ने उसे अदा किया
भी हो तब भी उस शख़्स पर फ़र्ज़ के गुनाह का वबाल होगा और अगर उस शख़्स ने इस फ़र्ज़
ऐनी को अदा किया हो और बाक़ी तमाम लोगों ने उसे नज़रअंदाज किया हो तो वो शख़्स अल्लाह
(سبحانه وتعالى) की जनाब में उसके गुनाह और इल्ज़ाम से बरी होगा। चुनांचे हर मुस्लिम
पर लाज़िम हो जाता है कि वो तमाम फ़र्द ऐनी को तलाश करके उन्हें अंजाम दे और उनका पाबंद
बने ताकि ख़ालिक़ के सामने वो उसके इल्ज़ाम से बरी और तमाम फ़राइज़ को अदा करके एक पाक
और मुतमईन ज़मीर लेकर पहुंचे। ये बात इन फ़राइज़ के अलावा इन मुहर्रमात (prohibitions) पर भी लाज़िम आती है जो व्यक्तिगत
श्रेणी के हैं चुनांचे एक मुसलमान पर लाज़िम है कि वो नमाज़ अदा करे,
रमज़ान में रोज़े रखे, अगर इस्तिताअत रखता हो तो बैतुल्लाह का हज अदा करे, जब साहिब निसाब हो जाये तो ज़कात अदा करे,
वालदैन की देख भाल करे, अच्छी और हलाल ग़िज़ा खाए और बुरी और हराम ग़िज़ा से दूर रहे,
ज़िना व फ़हाशी से दूर रहे, झूठ और ग़ीबत से बाज़ रहे और इस किस्म के बुरे अफ़आल से बाज़ रहे
जिनके बारे में मुसलमान को मालूमात हासिल करनी ज़रूरी है चुनांचे मुसलमान हर वो अमल
अंजाम देगा जो मारूफ़ है और हर इस अमल से बाज़ रहेगा जो मुनकर है
फ़र्ज़ किफ़ाया (इज्तिमाई फ़र्ज़)
ये वो सामूहिक श्रेणी के फ़राइज़ हैं जिन्हें अंजाम दिया जाना ज़रूरी है उन पर ये
क़ैद नहीं कि उन्हें कौन अंजाम देगा बल्कि उनकी अंजामदेही की ज़िम्मेदारी अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की तरफ से तमाम मुसलमानों पर डाली गई है और उनका मुसलमानों
की तरफ से अंजाम दिया जाना लाज़िम किया गया है । मुसलमानों के हर एक व्यक्ति पर फ़र्दन
फ़र्दन उन्हें अदा करना वाजिब नहीं है बल्कि मुसलमानों की अक्सरीयत या अक़ल्लीयत में
से कोई भी उन्हें अंजाम दे सकता है लिहाज़ा मुसलमानों पर लाज़िम ये है कि इन फ़रीज़ों की
अंजामदेही हो जाए। अगर उन्हें अंजाम ना दिया गया हो तो तमाम मुसलमान इस गुनाह में शरीक
होंगे और गुनाह से सिर्फ़ वही अफ़राद बच पाएंगे जिन्होंने उसको अंजाम दिए जाने और उसके
क़याम के लिए जद्दो-जहद इख्तियार की और इस फे़अल में संजीदगी के साथ शामिल और सरगर्म
हुए। कोई ये गुमान ना कर बैठे कि फ़रीज़ा को अंजाम ना दीए जाने की सूरत में चूँकि तमाम
मुसलमान इस गुनाह में शरीक होंगे इसलिए इस पर गुनाह का बोझ कम हो जाएगा चुनांचे फ़र्ज़
किफ़ाया को नज़र अंदाज़ किया जा सकता है। हक़ीक़त-ए-हाल ये हरगिज़ नहीं है क्योंकि उस दिन
जब इंसाफ़ क़ायम होगा तो हर एक शख़्स अपना बोझा उठाने तन्हा ही होगा और वो अफ़राद जिन्होंने
दूसरे मुसलमानों को इन फ़रीज़ों की अंजामदेही से बाज़ रखा होगा वह ख़ुद अपने गुनाह के
बोझ के अलावा इन तमाम लोगों के गुनाह का भी बोझ उठाएंगे चुनांचे अल्लाह उल-अज़ीज़ इरशाद
फ़रमाते हैं :
﴿وَكُلُّهُمْ آتِيهِ يَوْمَ
الْقِيَامَةِ فَرْداً﴾ {19:95}
“और क़यामत के दिन
उसके सामने अकेले अकेले हाज़िर होगा”
और मुसलमानों की तरफ से फ़र्ज़ किफ़ाया की अंजामदेही नहीं होने पर इस फ़र्दे-वाहिद
के साथ साथ पूरी उम्मत इसके गुनाह में शरीक हो जाती है, हो सकता है कि ये हक़ीक़त एक शख़्स को दुनिया में तो राहत दिला
दे और इसके साथ अनेक लोग इस फ़र्ज़ के बारे में लापरिवाया हो जाएं लेकिन आख़िरत में इसका
बोझ हरगिज़ हल्का नहीं होगा चुनांचे हम तमाम मुसलमान जो भी इज्तिमाई फ़राइज़ की अंजाम
देही से अब तक कोताह रहे हैं आएं और
मिलकर इन तमाम इज्तिमाई फ़राइज़ को संजीदगी के साथ अंजाम देने की ख़ातिर जद्दो-जहद
करें ताकि अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के सामने ग़ैर मलामत ज़दा ज़मीर के साथ मुतमईन खड़े हो इससे
पहले के कि वो दिन आ जाए जिस दिन दिल दहल जाएंगे और आँखें पथराई हुई होंगी।
चुनांचे वो मुस्लिम जो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) और रोज़े जज़ा पर ईमान रखता है वो अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के डराने पर ख़बरदार हो जाएगा और अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के वाअदे का ख़्वाहिशमन्द होगा और अल्लाह (سبحانه
وتعالى) को राज़ी करने के लिए कोशां होगा और जन्नत को पाना चाहेगा
और दोज़ख़ से बचना चाहेगा। ऐसा मुस्लिम इज्तिमाई फ़राइज़ (फ़र्ज़ किफ़ाया) को फ़रीज़ा और ज़िम्मेदारी
गर्दानता है और जब तक फ़रीज़ा को अंजाम ना दिया गया हो और अगर वो उन्हें अंजाम देने
की कोशिश ना कर रहा हो तो ये गुनाह उस तक भी पहुंचेगा। गर फ़रीज़ा को अंजाम दिया जा
चुका हो तो उस पर किसी किस्म का इल्ज़ाम ना होगा बशर्तिके कुछ अफ़राद ने उसे क़ायम
कर लिया हो। चुनांचे हर वो मुस्लिम जो अपने रब के सामने मुतमईन ज़मीर के साथ पहुंचना
चाहता हो उसे चाहीए कि वो निजी तौर पर फ़र्ज़ किफ़ाया का भी वही एहतिमाम करे जैसा वो
फ़र्ज़ ऐनी का एहतिमाम करता रहा है।
मिसाल के तौर पर अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करना,
अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की राह में जिहाद करना, इज्तिहाद करना,
अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करना । ये तमाम ही फ़र्ज़ किफ़ाया
में गिने जाते हैं जिनका क़याम तमाम मुसलमानों पर इज्तिमाई तौर पर फ़र्ज़ है नही तो तमाम
ही मुसलमान गुनाहगार होंगे जैसे अगर इज्तिहाद उम्मत में राइज ना हो तो हर एक शख़्स
गुनाहगार होगा सिवाए उन लोगों के जो उसको दुबारा राइज करने की कोशिश कर रहे हो। ऐसे
लोगों की मौजूदगी जो इज्तिहाद को उम्मत में दुबारा राइज करने में कोशां हो ये तमाम
लोगों से गुनाह को ज़ाइल नहीं करेगी जब तक उम्मत में इज्तिहाद क़ायम नहीं हो जाता। उम्मत
में अगर इज्तिहाद क़ायम हो जाए तो उसके बाद तमाम लोग इसके गुनाह से महफ़ूज़ हो जाएंगे
यही मामला इस्लामी रियासत के क़याम के फ़र्ज़ का है हर वो शख़्स जो इस फ़र्ज़ को अंजाम देने
से बाज़ रहता है अल्लाह (سبحانه
وتعالى) की अदालत में गुनाहगार होगा और इस फ़रीज़ा को अंजाम देने
की कोशिश करने वालों की मौजूदगी उस शख़्स पर से उसके गुनाह को ज़ाइल नहीं कर सकती जब
तक इस्लामी रियासत का क़याम अमल में नहीं आया हो। “अल–फ़िकरुल इस्लामी” (The Islamic Thought) इस किताब में इस उनवान,
“फ़र्ज़ किफ़ाया हर एक मुसलमान का फ़रीज़ा है” के तहत निम्न लिखित इबारत दर्ज है :
“फ़रीज़ा किसी भी सूरत में ज़ाइल नहीं होता जब तक हुक्म जिसे फ़र्ज़ किया गया है उसे
अंजाम ना दिया गया हो।वो जो फ़र्ज़ को नजरअंदाज़ करे वो उसे अंजाम ना दीए जाने की सज़ा
का मुस्तहिक़ है। वो तब तक गुनाहगार होगा जब तक वो उस फ़रीज़ा को अंजाम ना दे। फ़र्ज़
किफ़ाया के अंजाम ना हो पाने की सूरत में फ़र्ज़ किफ़ाया और फ़र्ज़ ऐन में कोई फ़र्क़ नहीं
है वो तमाम ही मुसलमानों पर यकसाँ तौर पर विद् फ़राइज़ हैं चुनांचे अल्लाह (ربّ
العزّت) इरशाद फ़रमाते हैं ”:
﴿انْفِرُواْ خِفَافاً وَثِقَالاً﴾ {9:41}
“निकल पड़ो, चाहे भारी रखते हो या हलका......”
अल्लाह (سبحانه وتعالى) का मुंदरजा बाला हुक्म एक फ़र्ज़ किफ़ाया है,
ऐसे तमाम फ़राइज़ किफ़ाया में फे़अल की तलबे जाज़िम पाई जाती है
चुनांचे किसी बंदे का फ़र्ज़ किफ़ाया और फ़र्ज़ ऐनी के बीच उसकी फ़र्ज़ीयत के बारे में अंतर
करना अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के नज़दीक गुनाह है और इस अंतर करने के अमल को अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के रास्ते से भटकने और अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के हुक्म की बजा आवरी में काहिली पैदा करने के कारण में
गिना जाएगा। वो शख़्स जिस पर फ़र्ज़ किफ़ाया की अंजामदेही वाजिब हुई हो उसकी ज़ात पर
से उसकी ज़िम्मेदारी के ख़त्म या साक़ित किए जाने के मामले में भी फ़र्ज़े किफ़ाया और
फ़र्ज़ ऐन में कोई अंतर पाया नहीं जाता है। ज़िम्मेदारी उस वक़्त तक ज़ाइल नहीं होती जब
तक फे़अल (action) से
संबधित शारेअ (क़ानूनसाज़/legislator) का हुक्म पूरा नहीं हो जाता
चाहे (उस) फे़अल की मांग यानी हुक्म हर एक मुस्लिम से हो जैसे पाँच वक़्तों की नमाज़ों
का क़याम या तलबे हुक्म (हुक्म की demand) तमाम मुसलमानों से हो
जैसे ख़लीफ़ा से बैअत। इनमें से किसी भी फ़राइज़ की ज़िम्मेदारी तब तक ज़ाइल नहीं होगी
जब तक वो फे़अल अंजाम तक ना पहुंच जाये यानी जब तक नमाज़ क़ायम ना की गई हो और ख़लीफ़ा
का चयन ना किया गया हो, बैअत ना दे दी गई हो
चुनांचे अगर कुछ अफ़राद फ़र्ज़ किफ़ाया को अंजाम देने की जद्दो-जहद में लगे हो तब
भी फ़र्ज़ किफ़ाया की ज़िम्मेदारी किसी भी मुस्लिम से तब तक ज़ाइल नहीं होती जब तक वो
फ़र्ज़ किफ़ाया पूरा ना हो जाए। चुनांचे हर एक मुसलमान उस वक़्त तक गुनाहगार होगा जब तक
फ़रीज़ा पाए तकमील (completion) को ना पहुंचे चुनांचे ये समझना ग़लत है कि फ़र्ज़ किफ़ाया ऐसा फ़र्ज़ है कि जिसे
कुछ लोगों का उनको अपने ज़िम्मे लेने से तमाम लोगों से उसकी ज़िम्मेदारी ज़ाइल हो जाती
है और गुनाह उन पर नहीं क़ायम नहीं होता बल्कि फ़र्ज़े किफ़ाया वो फ़र्ज़ है कि विभिन्न
दीगर अफ़राद के ज़रीए इन फ़राइज़ को पाए तकमील तक पहुंचाना या उनका क़याम हो जाना ही तमाम
लोगों से उसके गुनाह को ज़ाइल करता है लिहाज़ा सिर्फ़ उनके क़याम की सूरत में गुनाह का
ज़ाइल होना निश्चित होता है क्योंकि जिस चीज़ के बारे में हुक्म फ़र्ज़ किया गया था क़ायम
किया जा चुका होगा और वो शय भी मौजूद होगी, चुनांचे गुनाह की फिर कोई वजह बाक़ी नहीं रहती । इस तरह ये फ़र्ज़
किफ़ाया है वो फ़र्ज़ है जो किसी भी तरह फ़र्दे ऐनी से भिन्न नहीं है इसी तरह रियासते
इस्लामी का क़याम तमाम मुसलमानों पर फ़रीज़ा है यानी ये हर एक मुस्लिम पर फ़र्ज़ है ।
ये फ़रीज़ा किसी भी मुस्लिम के ज़िम्मे से नहीं हटता जब तक इस्लामी रियासत का क़याम नहीं
हो जाता । गर कुछ अफ़राद ने उसके क़याम की ठानी हो तब भी तमाम मुसलमानों पर उसकी फ़र्ज़ीयत
ख़त्म नहीं होती जब तक इस्लामी रियासत का क़याम नहीं हो जाता । रियासत के क़याम होने
तक उसकी फ़र्ज़ीयत की ज़िम्मेदारी और उसके गुनाह का वबाल बाक़ी तमाम मुसलमानों पर क़ायम
रहता है। किसी भी मुस्लिम पर से इसका गुनाह ख़त्म नहीं होता जब तक वो रियासत के क़याम
की ख़ातिर जद्दो-जहद ना करे और निरंतर तब तक करे जब तक उसका क़याम अमल में आ जाए।
चुनांचे हर फ़र्ज़ किफ़ाया हर एक मुसलमान फ़र्द पर फ़र्ज़ रहता है और उससे तब तक नहीं हटता
जब तक फे़अल की तलब यानी हुक्म को अंजाम ना दिया जा चुका हो।
इस तरह हम पर फ़र्ज़े ऐनी और फ़र्ज़ किफ़ाया की हक़ीक़त स्पष्ट होने के बाद ये भी स्पष्ट
हो जाता है कि हम अल्लाह अल-ख़ालिक़-ओ-माबूद की जनाब में मुजरिम की हैसियत से ना पहुंचें
इस बात के लिए ज़रूरी है कि हम फ़र्ज़ ऐनी को निजी तौर पर ख़ुद अंजाम दें और फ़र्ज़ किफ़ाया
को दीगर अफ़राद उम्मत के साथ मिल कर अंजाम दें
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