खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 1

खिलाफत के क़याम के गैर-शरई तरीक़े - 1

1. सिर्फ़ हुक्मरानों और उनके हममशरबों (entourage) को दावत देने से खिलाफत का क़याम 

कुछ मुसलमानों का ये ख़्याल है कि ख़िलाफ़त के क़याम के काम को सिर्फ़ हुक्मरानों और उनके हममशरबों (entourage) को दावत देने तक सीमित रखना ज़रूरी है

अल-मलाइया यानी हुक्मरानों के हममशरब लोगों में असरो रसूख़ रखने वाले अहम लोग होते हैं, मामलात के फ़ैसले अक्सर उनके हाथों में होते हैं और या लोग आम तौर पर हुक्मरानों के आस पास नज़र आते हैं । उनके साथ दावत अगर कामयाब हो जाती है तो समाज आसानी से इस्लाम के मुताबिक़ तब्दीली होगा वरना तब्दीली ना मुम्किन होगी। जिस मामले की वजह से ऐसी सोच क़ायम होती है कि इस दावत को सिर्फ़ हुक्मरानों और सरदारों तक सीमित कर दिया जाये, वो मामला ये है कि ख़िलाफ़त के काम में आम मुसलमानों को दावत देने की सूरत में मुसलमानों को हुक्मरानों की तरफ़ से ज़िल्लत का निशाना बनना पड़ेगा और उन पर इस हद तक दबाव और बोझ पड़ जायेगा जिसको वो शायद बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे यानी इसके नतीजे में उनको नाक़ाबिले-बर्दाश्त मुसीबतों में डाला जाएगा, और मुसलमान को इससे मना किया गया है जब रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ये इरशाद फ़रमाया था:

((لا ينبغي لمسلم أن يذل نفسه))
((يتعرض من البلاء لما لا يطيق))

“किसी मुसलमान के लिए जायज़ नहीं कि वो अपने आप को ज़लील करे। कहा गया कि कोई किस तरह ख़ुद को ज़लील करेगा? फ़रमाया: अपने आप को ऐसी आज़माईश में ना डाले जिसको बर्दाश्त करने की ताक़त नहीं रखता।” (अहमद व तिर्मीज़ी व माजा)

इसका जवाब देने के लिए इंशाअल्लाह (سبحانه وتعالى) हम दावत के ताल्लुक़ से अल्लाह (سبحانه وتعالى) की सुन्नत और उसके  मुख़ालिफ़ या मुवाफ़िक़त में अल-मलाइया का किरदार और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की दावत में उनसे संबधित आप (صلى الله عليه وسلم) के लिए गए इक़दाम (कार्यवाहीयों) को समझेंगे, जो भी व्यक्ति ऐसे उन हालात और परिस्थितियों का अध्ययन करता है जिनमें तब्दीली की सदाएं बुलंद होती हैं तो उसे मालूम होता है कि जहां ज़ुल्म और ना इंसाफ़ी, अख़्लाक़ी बिगाड़, तबाही और बर्बादी और तक्लीफें और परेशानकुन हालात फैले हुए हों, उन समाजों में तब्दीली की गूंज सुनाई देती हैं चूँकि ये तमाम समस्याएँ अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ईमान ना होने और अल्लाह (سبحانه وتعالى) को हाकिम (अल्लाह के पूरे हुक्मों को) ना मानने के नतीजे में पैदा होते हैं । यही वजह थी कि पहले तमाम अंबिया-ए-किराम और हमारे आक़ा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) पहले लोगों को ईमान लाने और अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत करने की तरफ़ बुलाया करते थे।

समाज चाहे वो आज का समाज हों या प्राचीन, उनकी क़ियादत हुक्मरानों और अहम अफ़राद (अल-मलाई) के पास होती है जो समाज के तमाम फ़ैसलें करते हैं और उनको किसी एक रास्ता पर डालते हैं । अक़ाइद के झूटे तसव्वुरात (false creedal concepts) और उनसे निकलने वाले क़वानीन हुक्मरानों के फ़ायदे के लिए बनते हैं । वो अपने फ़ायदे और अपनी कुर्सी की हिफ़ाज़त के लिए इन झूटे अक़ाइद की हिफ़ाज़त करते हैं और इन ग़लत अक़ाइद को पालने और सँभालने की ज़िम्मेदारी ख़ुद अपने ज़िम्मे ले लेते हैं । चुनांचे इस बात को जानने वाले एक आराबी (देहाती अरब) ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की दावत को पहली दफ़ा सुनते ही ये क़ाबिले-ग़ौर और सच्चा जुमला कहा था कि:

(ھذا امرتکم لا المملوک ۔)
“ये बात बादशाहों को पसंद ना होगी।”

समाजों में रहने वाले लोग हुक्मरानों और अहम रहनुमाओं (अल-मलाई) के फ़रमान के अधीन होते हैं क्योंकि यही लोग असरो रसूख़ और क़ुव्वत रखते हैं, चुनांचे समाज के आम लोग समाज को प्रभावित करने की बजाय इससे प्रभावित हो जाते हैं और ये निज़ाम से नफ़रत करने के बावजूद बेबस होकर ख़ुद को इसके सपुर्द कर देते हैं । क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि इन हुक्मरानों से छुटकारा पाने के लिए उन्हें बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। अंबिया और रसूलों को जब अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने भेजा तो उनको उनके लोगों ही की तरफ़ भेजा ताकि वो उन लोगों को हक़ बतलाएं और सीधे रास्ता की तरफ़ रहनुमाई करें । ऐसे में उन लोगों में से जिन अफ़राद ने अंबिया को जवाब देने और उनका विरोध करने की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाई वो अफ़राद उस क़ौम के हुक्मरान और उसके सरदार उन क़ौम (अल-मलाई) थे।

सरदाराने क़ौम (अल-मलाई) हुक्मरानों की मदद करने वाले लोग होते हैं इसके अलावा ये मफ़ादपरस्त, मालदार और शानो शौकत वाले लोग होते हैं । ये लोगों के सरबराह और सरदार होते हैं, यही लोग हुक्मरानों का राजनैतिक और वैचारिक सहारा और ज़रीया बनते हैं और हुक्मरान उन्ही पर भरोसा करता है और उनसे मदद चाहता है। उन्ही लोगों के बारे में अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने फ़रमाया कि अंबिया के विरोध में खड़े होने वालों में सबसे पहले लोग यही होते हैं, ऐसा इसलिए होता है कि उनके दिलों में माल और रुत्बे की चाहत भर गई होती है, समाज में उनके मुक़ाम व मर्तबे से उनके फ़ायदे व नुक़सानात जुड़े रहते हैं । फिर जब अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ़ से दावत सामने आती है तो उन्हें ये दावत उनके मफ़ादात और मुक़ाम और रुत्बे की दुश्मन मालूम होती है क्योंकि दावत के फैलने से पैदा होने वाले समाज में उन्हें अपना मुक़ाम और उसका फ़ायदा ख़तरे में मालूम होता है चुनांचे वही इस दावत का पहले सामना करते हैं और हुक्मरानों को इस दावत के ख़िलाफ़ लड़ने, उसको ख़त्म करने के लिए उकसाते हैं, और फिर हुक्मरान उन लोगों के मश्वरों के मुताबिक़ क़दम उठाते हैं क्योंकि गुनाह और बुराईयों में इनका भी हिस्सा होता है जो सबसे ज़्यादा होता है ।

यूं अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नबियों का हुक्मरानों और उनके साथी यानी मशरबों (अल-मलाई) के साथ सख़्त मुक़ाबला शुरू हो जाता है, और फिर लोगों को अपनी जानिब जीतने की ख़ातिर एक वैचारिक और राजनैतिक कश्मकश शुरू होती है जिसमें अल्लाह (سبحانه وتعالى) का नबी एक जानिब तो दूसरी जानिब हुक्मरान और उसके साथी (अल-मलाई) होते हैं । अन्बिया सच्चाई के साथ हक़ की तरफ़ दावत देते हैं जबकि इनका कोई दिफ़ा (defence) नहीं होता, वो दुनियावी एतबार से कमज़ोर और सिर्फ़ सच्चाई और हक़ के सहारे होते हैं जिसका लोगों के दिमागो और दिलों पर असर होता है। हुक्मरान और उसके साथी (अल-मलाई) शुरूआत में उनके ख़िलाफ़ झूट फैला कर मुक़ाबला करते हैं जैसे कि ये बात जादू है या ये पुराने लोगों के क़िस्से हैं, या ये दावत वाले किसी चीज़ के असर में हैं या ये झूटे हैं और उनकी बात पर यक़ीन करने वाले कमअक़्ल और हम में निचले लोग ही हैं वग़ैरा वग़ैरा। फिर जब इन बातों से काम बनता नज़र नहीं आता तो फिर ये लोग अज़ाब देने, बेघर और निकाल बाहर करने, पकड़धकड़ और क़त्ल करने पर उतर आते हैं, यूं अंबिया और उनके मानने वालों और हुक्मरानों और उनके हम नवाओं (अल-मलाई) और जो लोग बादशाह के दीन पर ईमान रखते हैं उनके बीच हर स्तर पर लड़ाई शुरू हो जाती है। ये है इस दावत में अल्लाह (سبحانه وتعالى) की वो सुन्नत जिसको क़ुरआन ने बार बार बतलाया है।

इस तरह हम देखते हैं कि सय्यदना नूह (علیہ ا لسلام) जब अपनी क़ौम को दावत देते हैं तो सबसे पहले जो लोग आप के मुख़ालिफ़त (विरोध) में उतरे वो क़ौम के सरदार (अल-मलाई) थे, चुनांचे अल्लाह (سبحانه وتعالى) सूरह आराफ़ में बयान करते हुए फ़रमाते हैं: ((अल-आराफ़59-61)

لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَقَالَ يَـٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَـٰهٍ غَيۡرُهُ ۥۤ إِنِّىٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٍ۬ ( ٥٩ ) قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِهِۦۤ إِنَّا لَنَرَٮٰكَ فِى ضَلَـٰلٍ۬ مُّبِينٍ۬ ( ٦٠ ) قَالَ يَـٰقَوۡمِ لَيۡسَ بِى ضَلَـٰلَةٌ۬ وَلَـٰكِنِّى رَسُولٌ۬ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَـٰلَمِينَ 

“बेशक हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ भेजा । पस उसने कहा ऐ मेरी क़ौम अल्लाह की बन्दगी करो उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं, मैं तुम पर एक बड़े दिन के अज़ाब से डरता हूँ । उसकी क़ौम के सरदारों ने कहा हम तुझे सरीह गुमराही में देखते ” ((अल-आराफ़59-61)

इसी तरह हम देखते हैं कि सय्यदना हूद (علیہ ا لسلام) जब अपनी क़ौम आद को दावत देते हैं । तो सबसे पहले जिसने आप की मुख़ालिफ़त और झुटलाया वो आप की क़ौम के सरदार (अल-मलाई) थे। उसको भी अल्लाह (سبحانه وتعالى) सूरह आराफ़ में बयान करते हुए फ़रमाते हैं :

“और हम ने आद की तरफ़ उनके भाई हूद को भेजा जिन्होंने उनसे कहा कि उसे मेरी क़ौम अल्लाह (سبحانه وتعالى) इबादत करो इसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं क्या तुम डरते हो, आप की क़ौम के इन सरदारों (अल-मलाई) ने कहा जिन्होंने कुफ्र किया कि हम तुम्हें बेवक़ूफ़ समझते हैं और हम तुम्हें झूटे भी ख़्याल करते हैं ।” (अल-आराफ़65-66)

इसी तरह देखें कि जब सैयदना सालेह (علیہ ا لسلام) ने अपनी क़ौम समूद को दावत दी तो आप की दावत को सबसे पहले झुटलाने वालों में आप की क़ौम के सरदार (अल-मलाई) ही थे । सूरह अल-आराफ़ में इरशादे बारी ताला है:

﴿وَإِلَى ثَمُودَ أَخَاهُمْ صَالِحاً قَالَ يَا قَوْمِ اعْبُدُواْ اللّه مَا لَكُم مِّنْ إِلَـهٍ غَيْرُهُ ... ﴾ {7:73}
َ
“और हम ने समूद की तरफ़ उनके भाई सालेह (علیہ ا لسلام) को भेजा जिन्होंने उनसे कहा ए मेरी क़ौम अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत करो उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं ...” (अल-आराफ़ :73)

मज़ीद उनके वाक़िए को अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने यूं बयान फ़रमाया:

قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَڪۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لِلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِمَنۡ ءَامَنَ مِنۡہُمۡ أَتَعۡلَمُونَ أَنَّ صَـٰلِحً۬ا مُّرۡسَلٌ۬ مِّن رَّبِّهِۦۚ قَالُوٓاْ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلَ بِهِۦ 
  مُؤۡمِنُونَ ( ٧٥ ) قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَڪۡبَرُوٓاْ إِنَّا بِٱلَّذِىٓ ءَامَنتُم بِهِۦ كَـٰفِرُونَ

“उनकी क़ौम के इन सरदारों (अल-मलाई) ने कहा जो मुतकब्बिर थे उनकी क़ौम के उन लोगों से जो कमज़ोर थे और आप पर ईमान लाए थे कि क्या तुम समझते हो कि सालेह को उनके रब ने भेजा है तो उन्होंने कहा कि हम तो उस चीज़ पर ईमान लाते हैं जिसके साथ उनको भेजा गया है, उनकी क़ौम के मुतकब्बिर सरदारों (अल-मलाई) ने कहा कि हम तो उस चीज़ का इनकार करते जिस पर तुम ईमान लाए हो ।” {7:75-16}

यही हाल शुऐब (علیہ ا لسلام) का है जब उन्होंने मदयन में अपनी क़ौम को दावत दी तो वहां के मुतकब्बिर सरदारों (अल-मलाई) ने आप का विरोध किया। सूर अल-आराफ़ में उसको अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने यूं बयान फ़रमाया है:

وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبً۬اۗ قَالَ يَـٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَڪُم مِّنۡ إِلَـٰهٍ غَيۡرُهُ
“और हम ने अहले-मदयन की तरफ़ उनके भाई शुएब को भेजा जिन्होंने उनसे कहा कि ऐ मेरी क़ौम, अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत करो इसके सिवा कोई तुम्हारा माबूद नहीं ... ”

मज़ीद उनके वाक़िए को अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने यूं बयान फ़रमाया है:

۞ قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لَنُخۡرِجَنَّكَ يَـٰشُعَيۡبُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَكَ مِن ۚ قَرۡيَتِنَآ أَوۡ لَتَعُودُنَّ فِى مِلَّتِنَا قَالَ أَوَلَوۡ كُنَّا كَـٰرِهِينَ
“उसकी क़ौम के मुतकब्बिर सरदारो (अल-मलाई) ने कहा कि ए शुएब हम तुझे और उन्हें जो तुझ पर ईमान लाए हैं अपने शहर से ज़रूर निकाल देंगे या यह कि तुम हमारे दीन में वापिस आ जाओ”  {7:88}

यही सब कुछ सैयदना मूसा (علیہ ا لسلام) के साथ भी हुआ, जब अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने आप को फ़िरऔन और उसके साथीयों की तरफ़ भेजा उनके सरदारों (अल-मलाई) ने आप को झुटलाया और उन लोगों डराया जो आप के साथ थे। आप (صلى الله عليه وسلم) के ख़िलाफ़ प्रोपेगंडा कर के फ़िरऔन को आप के क़त्ल पर उकसाया, उसको अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने यूं बयान फ़रमाया है:

ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِم مُّوسَىٰ بِـَٔايَـٰتِنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَظَلَمُواْ بِہَاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَـٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ
“फिर हम ने इसके बाद मूसा को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन के सरदारों (अल-मलाई) की तरफ़ भेजा उन्होंने हमारी निशानियों को झुटलया फिर देखो मुफ़्सीदीन का क्या अंजाम हुआ ।” {7:103}

मज़ीद उनके वाक़िए को अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने यूं बयान फ़रमाया है:

قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ إِنَّ هَـٰذَا لَسَـٰحِرٌ عَلِيمٌ۬
“फ़िरऔन की क़ौम के सरदारों (अल-मलाई) ने कहा बेशक ये (मूसा) बड़ा समझदार जादूगर है ।” {7:109}

और उसको मज़ीद अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने यूं बयान फ़रमाया है:

وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ أَتَذَرُ مُوسَىٰ وَقَوۡمَهُ ۥ لِيُفۡسِدُواْ فِى ٱلۡأَرۡضِ وَيَذَرَكَ وَءَالِهَتَكَ
 “और फ़िरऔन की क़ौम के सरदारों (अल-मलाई) ने कहा कि क्या तुम मूसा और उनकी क़ौम को ज़मीन में फ़साद बरपा करने देते हो ये तुम को और तुम्हारे माबूदों को छोड़ बैठेंगे ।” {7:127}

मज़ीद यूं बयान किया कि:

فَمَآ ءَامَنَ لِمُوسَىٰٓ إِلَّا ذُرِّيَّةٌ۬ مِّن قَوۡمِهِۦ عَلَىٰ خَوۡفٍ۬ مِّن فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِمۡ أَن يَفۡتِنَهُمۡۚ وَإِنَّ فِرۡعَوۡنَ لَعَالٍ۬ فِى ٱلۡأَرۡضِ وَإِنَّهُ ۥ لَمِنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ
“मूसा पर उनकी क़ौम के कुछ अफ़राद के सिवा कोई ईमान नहीं लाया वो भी फ़िरऔन और उसके सरदारों (अल-मलाई) के ख़ौफ़ से कि कहीं हमें मुसीबत में ना डालें, यक़ीनन फ़िरऔन ज़मीन पर तकब्बुर कर रहा है और बेशक वो हद से गुज़रने वालों में से है ।" {10:83}

सैयदना क़ाइदना मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की सीरत (ज़िंदगी और तरीक़ा) जिसका बयान पहले गुज़र चुका है, इन पिछले अंबिया से भिन्न नहीं थी जिनका बयान यहां किया गया है यानी मक्का में भी सरदारों (अल-मलाई) ने आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत के बारे में कुछ अलग रवैय्या नहीं अपनाया था, आप (صلى الله عليه وسلم) को भी पहले अंबिया की तरह आज़माईशों से गुज़रना पड़ा, रसूल (صلى الله عليه وسلم) की जीवनी हमें बतलाती है कि मक्का में दावत के धीमे हो जाने की वजह क्या थी जिसकी वजह से दावत मक्का में कामयाब नहीं हो पाई, वो क्या बात थी जिसने लोगों को रोक दिया था कि वो आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत सुनें और उस पर ईमान लाएंगे, उन सरदारों के ज़रीये आप (صلى الله عليه وسلم) पर ईमान लाने वालों को सख़्ततरीन अज़ाब में मुब्तिला किया गया और उन्हें मुख़्तलिफ़ आज़माईशों से दो चार होना पड़ा, चुनांचे मोमिन के लिए ये डर था कि कहीं उनकी क़ौम उन्हें और उनके साथ अहलो अयाल को ईमान की वजह से आज़माईश में ना डाले, और जो ईमान लाना चाहते थे वो इस बात से डरते थे कि उनका भी वही हश्र होगा जो मोमिनों के साथ हो रहा है। यूं मोमिनों और उनके विरोधियों बीच जंग शुरू हो गई जिसकी क़ियादत सरदाराने क़ौम (अल-मलाई) के हाथों में थी । लेकिन बिलआख़िर उन सरकश ताग़ूतों के पांव के नीचे से ज़मीन निकल गई, और इसके बाद हक़ की तरफ़ दावत देने वालों ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली।

बुख़ारी में इब्ने मसूद (رضي الله عنه) से रिवायत है कि:

 ((بينما النبي   ساجد وحوله ناس من قريش جاء عقبة
بن أبي معيط بسلا جزور، فقذفه على ظهر النبي   ، فلم
يرفع رأسه فجاءت فاطمة غليها السلام فأخذته من ظهره و
دغت غلى من صنع ذلك. فقال النبي   : ((اللهم عليك
الملاء من قريش : أبا جهل بن هشام و عتبة بن ربيعة و
أمية بن خلف،...)) قال ابن مسعود رضي الله عنه: فرأيتهم
قتلوا يوم بدر فألقوا في يئر ))

 “जब नबी मस्जिद में थे और क़ुरैश के कुछ लोग आप (صلى الله عليه وسلم) के आस पास थे इतने में उक़बा बिन अबी मईत ओजड़ी लेकर आया और उनको नबी (صلى الله عليه وسلم) के पुश्त पर डाल दी आप (صلى الله عليه وسلم) सर ना उठा पाए थे। फिर फ़ातिमा (رضي الله عنها) आ गईं और उनको हटाया और ये जसारत करने वालों को बद-दुआ दी। नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:ए अल्लाह (سبحانه وتعالى), क़ुरैश के (अल-मलाई) सरदारों अबु-जहल बिन हिशाम, अतबा बिन रबीया और उम्मया बिन ख़लफ़ का हाल देख लें ...अब मसूद (رضي الله عنه) कहते हैं, सब के साथ मैंने उन लोगों को बदर में देखा कि उनको क़त्ल करके कुँवें में डाल दिया गया है ।”  (अल-बुख़ारी)

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के दौर में मक्का में शासक कोई एक शख़्स नहीं था कि जिसके कई साथी हों बल्कि वहां कई सारे सरदार (अल-मलाई) थे, और उन्हीं लोगों ने रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की दावत की मुख़ालिफ़त की और लोगों को इस दावत से दूर भगाने और रोकने की कोशिशें कीं ।

ये बात काबिले-ग़ौर है कि दीगर तमाम अंबिया को सिर्फ़ उनकी क़ौम की तरफ़ भेजा गया था जबकि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को उनकी दावत के साथ तमाम इंसानों (क़ौमों) की तरफ़ रसूल बनाकर भेजा गया है। क़ुरैश के सरदारों ने अगर शिद्दत से झुटलाया और बड़ी रुकावटें खड़ी कीं तो इसके मानी ये नहीं हैं कि दावत सिर्फ़ उन सरदारों को ही दी जा रही थी और उन तक ही सीमित थी बल्कि मक्का के समाज में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने बिना किसी भेदभाव के सब को दावत दी, आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत ने किसी अमीर और ग़रीब के बीच, मालिक और ग़ुलाम के बीच फ़र्क़ नहीं किया था। यहाँ तक कि नबी (صلى الله عليه وسلم) ने जब सिर्फ़ इब्ने मकतूम की बात से अपना ध्यान हटाया था तो आप (صلى الله عليه وسلم) के रब ने सूरह अबस के ज़रीये नरमी के साथ तंबीह की, इब्ने मकतूम एक नाबीना और ग़रीब मोमिन थे, जिन सरदारों से आप (صلى الله عليه وسلم) की मुलाक़ात होती थी रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) उन सरदारों या उनके आस-पास मौजूद पैरोकारों के ईमान ले आने की उम्मीद में फ़िक्रमंद होकर उनसे गुफ़्तगु कर रहे थे और इब्ने मकतूम की तरफ़ मुतवज्जो नहीं हुए । इस तंबीह का मतलब ये नहीं था कि क़ौम के सरदारों को दावत देने की ज़रूरत ख़त्म हो गई थी या इससे मना किया या बल्कि तन्बीह, दावत में किसी भी किस्म का फर्क़ ना बरतने के लिए थी। क्योंकि तलब के एतबार से दावत का आम हुक्म सरदारों और आम लोगों के लिए एक जैसा है इसलिए सरदारों को दावत देना आम लोगों को दावत देने की तरह है। चुनांचे सीरत में इस बात का खास तौर पर ज़िक्र किया गया है कि रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) जब सरदारों और लीडरों को दावत देते थे तो ये दावत सिर्फ़ उन सरदारों को दावत नहीं होती थी बल्कि आप (صلى الله عليه وسلم) की नीयत होती थी कि उन सरदारों की पैरवी करने वाले आम लोग ईमान ले आएं । यही वजह थी कि इस दावत में सब लोग संबोधित और शामिल हुआ करते थे।

यही वजह है कि कई ऐसे लोगों ने इस दावत को क़बूल किया जो अपनी क़ौम के सरदार नहीं माने जाते थे जैसे हज़रत बिलाल (رضي الله عنه), अम्मार (رضي الله عنه), उनकी माँ और बाप। इस तरह दीगर अफ़राद जैसे सुहैब और सलमान (رضي الله عنه) ये भी क़ुरैश के सरदार ना थे और इसी तरह आमिर बिन फ़हीरह (رضي الله عنه), उम्मे अबीस (رضي الله عنه), ज़नीर (رضي الله عنه), नहदीह (رضي الله عنه) और उनकी बेटी, और बनी मूमल की बांदी ये सब ग़ुलाम थे जिन्हें अबू-बक्र (رضي الله عنه) ने आज़ाद कराया था, ये तमाम शुरूआती दौर के मोमिनीन में से थे। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) शुरु में हर उस शख़्स को दावत देते थे जिसके अंदर भलाई महसूस करते थे, बाद में आपने तमाम लोगों को दावत दी। इसलिए आप (صلى الله عليه وسلم) की क़ौम के छोटे बड़े, रईस और आम लोग सब आप पर ईमान लाते थे। दावत के विषय में किसी किस्म की हदबंदी नहीं है बल्कि इसमें तमाम लोग शामिल हैं दावत उस तरीक़े पर की जाएगी जो रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने इख़्तियार किया चुनांचे फिर इंशाअल्लाह (سبحانه وتعالى) हमें भी वो कामयाबियां मिलेगी जो दारुल-इस्लाम को क़ायम करने में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को मिली थीं ।

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