मस्लिहत : हुक्मे शरई के लिये इल्लत नही हो सकती

मस्लिहत किसी नफ़े को हासिल करना या किसी नुक़्सान को दूर करना है, मस्लिहत का फ़ैसला अक़्ल करेगी या शरअ? अब अगर इस फ़ैसले को अक़्ल पर छोड़ दिया जाये कि मस्लिहत क्या है तो लोगों को बड़ी तक्लीफ़ और मुश्किल का सामना करना पड़ेगा कि हक़ीक़ी मस्लिहत मालूम कौन सी होगी क्योंकि अक़्ल महदूद (सीमित) है। इसलिए अक़्ल इन्सान और उसकी तमाम हक़ीक़तों का मुकम्मल इदराक नहीं कर सकती इसलिए अक़्ल ये फ़ैसला भी नहीं कर सकती कि उसके लिए मस्लिहत या नुक़्सान क्या है। इन्सान की हक़ीक़त तो सिर्फ इन्सान का ख़ालिक़ ही जानता है। कोई भी फ़ैसला नहीं कर सकता कि किसी मुआमले में इन्सान के हक़ में क्या बेहतर है सिवाए उसके ख़ालिक़ के जो अल्लाह (رب العز ت) है । जी हाँ इन्सान के लिए ये तो मुम्किन है कि ये गुमान करे कि कोई चीज़ उसकी मस्लिहत (मुफ़ाद) में है या ये चीज़ उसके लिए नुक़्सानदेह है लेकिन उसका यक़ीनी तौर पर क़तई ताय्युन वो नहीं कर सकता। पस मस्लिहत क्या है इस फ़ैसले को गुमान की बिना पर अक़्ल के हवाले करना ख़तरनाक होकर हलाकत में पड़ने का सबब बन सकता है। ये मुम्किन है कि उसे कोई चीज़ नुक़्सानदेह नज़र आए फिर उसे मालूम हो जाएगी कि उसमें मस्लिहत (मुफ़ाद) है यूं एक अच्छी चीज़ को वो ख़ुद से दूर करके महरूम होगा। कभी किसी चीज़ में उसे मस्लिहत नज़र आएगी बाद में मालूम होगा कि ये नुक़्सानदेह है जिससे वो ख़ुद ही अपने आप पर बड़ा नुक़्सान ला सकता है। आज अक़्ल किसी चीज़ पर नुक़्सानदेह होने का हुक्म लगा सकती है और कल मालूम होगा कि उसमें मस्लिहत (मुफ़ाद) है। या आज कोई शय नुक़्सानदेह मालूम हो और उस पर नुक़्सानदेह होने का हुक्म लगाया जाये फिर कल मालूम हो जाएगी कि इसमें तो मस्लिहत है, इस किस्म के मुख़ालिफ़ और बरअक्स हुक्म लगाना जायज़ नहीं है। ख़ुद-साख़्ता सेक्युलर निज़ाम इसी चीज़ के लिए तो मशहूर हैं, इसमें उनके क़ानून बनाने वाले इन्सान इसमें लोगों के लिए और ख़ुद के लिए भलाई लेकर आने की ख़ाहिश करते हैं ।

चुनांचे हम देखते हैं कि वो हमेशा क़वानीन में तब्दीली और रद्दो-बदल करते रहते हैं यहां तक कि इसकी वजह से मसाइल को हल करने के लिए निज़ाम और उसकी मिशनरी को मज़ीद तरक़्क़ी देना बे-हद ज़रूरी हो जाता है, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अस्ल में वो आज तक अशिया और अफ़आल (things and actions) के सही हुक्म तक नहीं पहुंच सके हैं जिन्हें फ़ैसलाकुन और हतमी व हक़ीक़ी तस्लीम किया गया हो। चूँकि उन्होंने इन्सानी कमज़ोरी को तस्लीम नहीं किया और ख़ालिक़े आला को हाकिम नहीं माना है इसलिए अब वो हर शय को ना-मुकम्मल और इर्तिक़ा पज़ीर समझते हैं जिन्हें थोड़े वक़्त के बाद फिर तब्दीली की ज़रूरत पेश आती है। 

चुनांचे उनके इस नुक़्ता-ए-नज़र के तहत वो दीगर ऐसे निज़ामों को नाक़िस समझते हैं जिस निज़ाम में इर्तिक़ा और तरक़्क़ी जारी नहीं होती और उन्हें ये कह कर बदनाम करने की कोशिश करते हैं कि जो निज़ाम तरक़्क़ी नहीं करता वो जामिद और साक़ित (rigid and static) है।
 
इस मुआमले में मुसलमान भी कुफ़्फ़ार के इस झूठ से मुतास्सिर होते हुए नज़र आते हैं । ऐसे मुसलमान जो चूँकि इस्लाम की सही और हक़ीक़ी तबीयत की समझ से दूर हैं फिर वो अपने बचाव में और अपने दीन के दिफ़ा की ख़ातिर दुश्मन के सोचने के ढंग को इख़्तियार करके अपने दुश्मन की फ़िक्र (thought) को लेकर उस पर चलते हैं । अगर वो इस्लाम की फ़ितरत की सही समझ रखते तो जान लेते कि कमज़ोरी तो दुश्मन के निज़ाम की फ़ितरत में है कि जिसमें थोड़े ही वक़्त में तब्दीली की ज़रूरत पेश आती है और उनका दुश्मन उसकी कमज़ोरी पर पर्दा डाल कर दूसरों पर अपना रोब जमा रहा है।

बे-शक वो ख़ालिक़ ही है जो इन्सान के उमूर की तदबीर करता है और इन्सानी हाजात और जिबल्लतों से पैदा होने वाली सूरतों और मुश्किलात को सही तौर पर हल करता है और उन्हें फ़ितरी और सही तौर पर पूरी करने के काबिल करता है । हक़ीक़त को ज़रूरत भी इसी हल की है जो उसकी सूरते-हाल के मुताबिक़ हो। क्योंकि इन्सान की हक़ीक़त हमेशा एक जैसी है और कभी भी तब्दील नहीं होती तो उसका ईलाज (हल) भी ऐसा पायदार और मुस्तक़िल (fixed) होना चाहिए जिसमें तब्दीली की ज़रूरत पेश ना आए। मर्द को बहैसीयत नर फ़ितरी तौर पर औरत की ज़रूरत होती है ताकि वो औरत की ख़ातिर होने वाली उसकी कशिश को पूरा कर सके, अब चूँकि मर्द और औरत उनकी तिब्बी और फ़ितरी (biological and natural) हक़ीक़त में कभी भी तब्दील नहीं होते तो इसका मतलब हुआ कि उनके दर्मियान ताल्लुक़ की अस्ल हमेशा से बरक़रार और मुस्तक़िल है। इसलिए ये काबिले-क़बूल नहीं है कि हम ऐसा निज़ाम बनाने लगें जो पहले तो एक मर्द और एक औरत के दर्मियान ताल्लुक़ात को तय करे फिर कुछ अर्से बाद ज़माने और तरक़्क़ी को बहाना बना कर उस निज़ाम को बदल डाले जिसने पहले औरत और मर्द के ताल्लुक़ात को तय किया था जबकि इन दोनों की हक़ीक़त और फ़ितरत अब भी वही है और उनके ताल्लुक़ात की नौईयत भी बदली नहीं है ।

इसी तरह शराब की फ़ितरत है जो कभी तब्दील नहीं हुई है, फिर क्या वजह हुई कि हर वक़्त उसका हुक्म बदलता रहे?

इसी तरह जुएँ बाज़ी का मुआमला है उसकी हक़ीक़त हमेशा वही है और कभी तब्दील नहीं हुई है फिर क्या वजह है कि उसके हुक्म में हर वक़्त तब्दीली की जाती रहती है? इसी तरह ढेरों कई मिसालें हैं जहां हक़ीक़त तब्दील ना होने के बावजूद चीज़ों का हुक्म हमेशा तब्दील किया जाता है।

यही वजह है कि ये बातें जैसे तरक़्क़ी या लचकीला पन और ज़माने के साथ नयापन इख़्तियार करना यानी जदीदीयत (आधुनिकता) ये इन्सानों के बनाए हुए मौजूदा ख़ुदसाख़्ता निज़ामों की खासियतें है जो हमें सच्चाई और हक़ की तरफ़ नहीं ले जाते हैं, और ये निज़ाम हमेशा तब्दीली का शिकार रहते हैं । तब्दीली फिर उसका तजुर्बा, चुनांचे फिर तब्दीली, इस तरह तब्दीली का कभी ख़त्म ना होने वाला ये सिलसिला इन्सान के नुक़्स को साफ़ ज़ाहिर कर देता है कि वो ख़ुद से हक़ीक़ी हिदायत हासिल कर के निज़ाम को सही बनाने की क़ाबिलीयत नहीं रखते । अलबत्ता इस कमज़ोरी और नुक़्स को लफ़्ज़ी हेर-फेर के ज़रीये छुपाते हैं और अपनी कमज़ोरी यानी उनके नापायदार तब्दीली के अमल को निहायत ख़ुशनुमा अलफ़ाज़ जैसे तरक़्क़ी और इन्सानी इर्तिक़ा का नाम देते हैं । ऐसे में मुसलमान पर लाज़िम है कि इन्सानी कमज़ोरी के इस मुआमले को जान कर इस मन घड़त क़ाअदे का इनकार कर दें चाहे लोग उसके शरई होने का ढंडोरा करें वो मन घड़ंत क़ायदा ये है,

(لاینکر تغیرا لاحکام بتغیرالازمان و المکان۔)
“ज़माने और जगह के बदलने से अहकामात को बदलने में इनकार नहीं है।”

इस क़ायदे के इनकार के अलावा इसको रद्द कर देना भी ज़रूरी है क्योंकि ये क़ायदा मर्दूद और मुनकिर है। एक मुआमले में अल्लाह का हुक्म भी एक ही है जो कभी इस मुआमला में एक से अधिक नहीं हो सकते हाँ अगर इस मुआमले की अस्ल हक़ीक़त बदल जाये तो ज़ाहिर है मुआमले के बदलने के साथ उसका हुक्म भी बदल जाएगा। मिसाल के तौर पर अंगूर का हुक्म ये है कि वो मुबाह है, लेकिन जब उसकी हक़ीक़त बदल जाये यानी वो ख़मीर के अमल के ज़रीये शराब बन जायेगा तो उसका हुक्म बदल जाएगा और अब इस पर शराब का हुक्म लगेगा जो कि हराम होगी, फिर अगर ये शराब सिरका बन जाये उसका हुक्म फिर तब्दील होगा जो कि फिर मुबाह है, इसमें ज़मान और मकान का कोई एतबार नहीं यानी वक़्त और जगह बदलने पर हुक्म में कोई तब्दीली वाक़ेअ नहीं हुई बल्कि उसकी हर हक़ीक़त का एक अलग हुक्म है, इस तरह ऐसी कोई चीज़ नहीं जो एक जगह हराम हो और दूसरी जगह हलाल हो, इसी तरह ऐसी कोई चीज़ नहीं जो एक ज़माने में हराम और किसी दूसरे ज़माने में हलाल हो सकती है, चुनांचे हुक्म शरई पर वक़्त और जगह का कोई असर नहीं होता है।

शरीयते इस्लामी पिछले तमाम गुज़रे वाक़िआत पर अपने पास अहकाम रखती है इसी तरह मौजूदा तमाम मसाइल और पेश आने वाले आइन्दा तमाम हालात-ओ-वाक़िआत के लिए अहकामात भी अपने पास रखती है। कोई ऐसा वाक़िआ, मसला और हादिसा पेश नहीं आता जिस पर इस्लाम की जानिब से कोई हुक्म मौजूद नहीं हो। इस्लामी शरीयत इन्सान के तमाम अफ़आल का मुकम्मल और जामेअ तौर पर अहाता करती है। चुनांचे इरशाद बारी तआला है:

"और हमने आप पर ऐसी किताब नाज़िल कर दी जो हर एक चीज़ को खोल कर बयान करती है।" {16:89}

लिहाज़ा शरीयत इन्सान के हर एक फे़अल और शय के बारे में क़ुरआन या हदीस में दलील पेश करती है या फिर उसके हुक्म के लिए आसमानी इल्लत (divine reason)बयान करती है, और इस इल्लत की बिना पर फे़अल का हुक्म निकाला जा सकता है, लेकिन इसके लिए शरई इबारत से इल्लत का ज़ाहिर होना ज़रूरी है यानी इल्लत शरई जिस पर कोई नस दलालत करती हो और ये इल्लत अक़्ली तावीलों से हासिल होने वाली इल्लत अक्ली नहीं होगी। यहां ज़रूरत है कि अक़्ली क़ियास (Rational Analogy) और शरई क़ियास (Sharai Analogy) के दर्मियान क्या फ़र्क़ है इसकी वज़ाहत कर दी जाये।

Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.