अक़्ली क़ियास (the rational analogy):

जब दो एक जैसी या दो मुतशाबेह (समान) चीज़ों के मुताल्लिक़ अक़्ल कभी फ़ैसला करती है तो वो दोनों चीज़ों के लिए एक ही हुक्म-जारी करती है, लिहाज़ा यही वजह है कि दो चीज़ों में क़ियास (analogy) किया जाता है जिनमें एक ही तरह की मुशाबहत होती है। इस तरह फ़ैसला करते वक़्त वो दो मुख़्तलिफ़ चीज़ों में अक़्ल फ़र्क़ करती है इस तरह दो मुख़्तलिफ़ चीज़ों पर मुख़्तलिफ़ हुक्म लगाती है। इसको क़ियासे अक़्ली कहते हैं ।

ये तर्ज़-ए-अमल शरई क़ियास के बरख़िलाफ़ है क्योंकि शरअ अक्सर एक जैसी चीज़ों के दर्मियान फ़र्क़ करती है और उन्हें मुख़्तलिफ़ हुक्म अता करती है और अक्सर शरअ मुख़्तलिफ़ चीज़ों को इकट्ठा करके एक ही हुक्म अता करती है। चुनांचे हम देखें कि शरअ ने एक ही चीज़ मैं किस तरह फ़र्क़ किया मिसाल के तौर पर शरअ औक़ात के दर्मियान में फ़र्क़ करती है और इस तरह लैलतुल क़द्र को दूसरी रातों पर फ़ज़ीलत दी, निफ़्ल नमाज़ों के लिए रात के वक़्त को तर्जीह दी । इसी तरह शरअ जगहों में फ़र्क़ करती है जैसे मक्का को मदीना पर फ़ज़ीलत दी, या मदीना को दूसरे शहरों पर फ़ज़ीलत दी, इसी तरह सफ़र के दौरान नमाज़े क़स्र के लिए चार रकातों वाली और तीन रकातों वाली नमाज़ के दर्मियान में फ़र्क़ किया यानी क़स्र नमाज़ में रकातों की तादाद दो रकात मुतय्यन (निर्धारित) नहीं की और इस तरह चार रकातों वाली रुबाई नमाज़ में क़स्र (नमाज़ छोटी करने) की इजाज़त दी और तीन रकातों वाली सलासी नमाज़ में इजाज़त नहीं दी और ना ही दो रकात वाली नमाज़ में कोई कमी गई। ये बात अक़्ल की गुंजाइश के बाहर है कि वो उनके दर्मियान में कोई मुवाज़ना (तुलना) भी कर सके। मज़ीद ये देखें कि मनी जो कि पाक होता है उसके निकलने की सूरत में सफ़ाई के लिए ग़ुस्ल को वाजिब क़रार दिया गया जबकि मज़ी जो कि नजिस यानी नापाक है और जो मनी के पहले ख़ारिज होता है इसके निकलने की सूरत में सफ़ाई के लिए सिर्फ वुज़ू का हुक्म दिया गया है हालाँकि दोनों एक ही जगह से ख़ारिज होते हैं । औरत जिसका तलाक़ हुआ हो उसकी इद्दत तीन माहवारी (हैज़) मुक़र्रर कर दी जबकि औरत जिसका शौहर मर गया हो तो उसकी इद्दत चार महीने दस दिन मुक़र्रर कर दी हालाँकि औरत के रहम (womb) की हालत दोनों सूरतों में एक है। इसी तरह शरअ ने ज़िना के जुर्म में सज़ा के लिए फ़र्क़ किया है यानी अगर ज़ानी आज़ाद हो या ग़ुलाम हो अगर शादीशुदा हो या ग़ैर शादीशुदा हो तो उनकी सज़ाएं मुख़्तलिफ़ रखें गईं हैं ।

इसके इलावा हम देखें कि किस तरह शरअ ने मुख़्तलिफ़ चीज़ों या फे़अल को इकट्ठा किया है और एक ही हुक्म दिया है, इस तरह शरअ ने तहारत के लिए पानी और मिट्टी को यकसाँ क़रार दिया है जो दोनों बिलकुल मुख़्तलिफ़ चीज़ें हैं, पानी साफ़ करता है और मिट्टी गंदा करती है या गर्द-आलूद करती है । इसी तरह शरअ ने शादीशुदा ज़ानी, क़ातिल और मुर्तद बन जाने वाले के लिए एक ही सज़ा मुक़र्रर की है जो कि क़त्ल है हालाँकि तीनों जराइम में फ़र्क़ है।

इस तरह शरअ ने कुछ ऐसे अहकामात को भी बयान किया है जिन पर अक़्ल ख़ामोश है । मिसाल के तौर पर सोने को सोने के बदले बेचने को हराम क़रार दिया अगर उनकी मिक़दार बराबर ना हो या क़र्ज़ का मुआमला ना हो, मर्दों के लिए सोना या रेशम पहनने को हराम क़रार दिया लेकिन औरतों के लिए मना नहीं किया। सूद को हराम क़रार दिया लेकिन तिजारत को हराम नहीं किया, वसीयत के मुआमले में काफ़िर की गवाही को काबिले क़बूल क़रार दिया जबकि ख़ुला के बाद रुजू में शर्त लगा दी कि गवाह सिर्फ़ मुसलमान हो। इसीलिए सय्यदना हज़रत अली करम अल्लाह वजहा-ओ-रज़ी अल्लाह अन्ना ने फ़रमाया:

(”لو کان الدین یوخذ بالرای لکان مسح باطن الخف اولی من الظاہرہ“)
“अगर दीन में (अक़्ली) राय की गुंजाइश होती तो मौज़े के निचले हिस्से पर मसहा करना ऊपर के हिस्से पर मसहा करने से बेहतर था।”

Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.