शरअ को समझने के उसूल

एक दफ़ा शरीअत के मसादिर को निर्धारित कर लेने के बाद यह ज़रूरी होता है कि अब ये समझे कि किस तरह उन मसादिर को इस्तिमाल करते हुए उनसे दलायल को इख़्तियार किया जाए दीगर अलफ़ाज़ में अब उसे इन क़वाइद को तय करने की तरफ़ बढ़ना होगा यानी उन क़वाइद की मार्फ़त हासिल करना होगा जिनके ज़रीये उनके मसादिर से अहकाम का इस्तिंबात (deduction) किया जा सकता है । इसमें शक नहीं कि फ़क़ीह जब कोई हुक्मे शरई अख़ज़ करना चाहता है तो उसके ज़हन में उसूल के वो क़वाइद होते हैं जिनकी बुनियाद पर वो उस हुक्म को इख़्तियार करता है। दुनिया में ऐसा कोई इल्म नहीं है जिसके कुछ तयशुदा उसूल ना हों और उसके उसूलों के इल्म के बग़ैर कोई भी इल्म अच्छी तरह हासिल नहीं किया जा सकता, हाँ कभी ये हो सकता है कि उसूल लोगों के ज़हन में मौजूद होते हों लिखे ना गए हों या फिर किसी ने उसूलों को लिख कर तर्तीब दिया हो ।

शरई इबारतों में (आम/general) आम अहकाम भी है, (ख़ास/specific) ख़ास अहकाम भी हैं । (मुजमल/unelaborated) मुख़्तसर में भी और (मुफ़स्सिल/elaborated) तफ़्सीली भी हैं, (मुतलक़/absolute) भी और (मुक़य्यद/restricted) हद बंद भी हैं, इसमें (अवामिर/orders) फे़अल का हुक्म भी और (नवाही/prohibitions) फे़अल से मना भी हैं, (नासिख़/abrogator) रद्द करने वाले और (मंसूख़/abrogated) रद्द हुए भी हैं, उनमें (मफ़्हूम मुवाफ़िक़/conformable meaning) ताईद करते माअनी भी और (मफ़्हूम मुख़ालिफ़/opposite meaning) मुख़ालिफ़ माअनी भी हैं, उनमें इबारत से (मंतूक़/wording) अलफ़ाज़ का उस्लूब, (मफ़्हूम/implicit meaning) बिल रास्त माअनी और (माक़ूल/rationale) भी हैं, उनमें (ख़बरे वाहिद/solitary report) अहद हदीस भी है जो कहीं दलील होती है और कहीं नहीं है इसके इलावा दीगर कई सारी चीज़ें हैं । जमात पर लाज़िम है कि अपने फ़िक़्ही क़वाइद को निर्धारित करे, उनको अच्छी तरह समझे और इख़्तियार करे और उनको दूसरों के सामने पेश करे। इन उसूली क़वाइद में से ज़्यादा-तर में इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। ये बात हम सब जानते हैं कि हर एक क़ायदे से कई फ़ुरू (राय/branches) सामने आते हैं । चूँकि अक्सर उन फ़ुरू में इख़्तिलाफ़ात हैं इसलिए उनमें से मुतनाज़ा फ़ुरू को हटाना ज़रूरी है, ये काम जमात करती है ताकि वो उनमें से सही राय को मुईन करके इख़्तियार करे । उसूल के क़वाइद को इख़्तियार कर लेने के बाद ही इन मुख़्तलिफ़ राय को (फ़ुरू को) इन क़वाइद की रोशनी में समझा जा सकता है।

उसूल का इल्म और उसूली क़वाइद की जानकारी होने के बाद जमात इसकाबिल हो जाती है कि शरअ को उनके दीगर मसादिर से समझ कर मालूम कर सके, उसके बाद जमात के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं होता कि तय करदा तरीक़ा इज्तिहाद की पैरवी करे। इसी ख़ासीयत की वजह से जमात दूसरों से अलग नज़र आना चाहिये। ये वो चीज़ें है जिन्हें लोगों तक पहुंचाना ज़रूरी है और इसकी ख़ातिर पहले अपने शबाब को इस पर तर्बीयत दे तैयार करे और फिर उनके ज़रीये इसको लोगों तक पहुंचाए, ये वो पहली चीज़ है जिसकी बुनियाद पर जमात की तामीर व तैयारी करना ज़रूरी है।

हाँ मुज्तहिद का काम डॉक्टर की तरह है। एक डॉक्टर सबसे पहले मरीज़ को सुनता है और उसका हाल मालूम करता है। फिर वो बीमारी की ज़ाहिरी अलामात से ख़ुद को अलैहदा कर के उनसे मुतास्सिर हुए बग़ैर हक़ीक़ी बुनियादी बीमारी का पता लगाता है मरीज़ को जिसकी शिकायत है। फिर उस मालूमात की तरफ़ रुजू करता है जो उसने सीखी है। वो उन किताबों की तरफ़ रुजू करेगा जो इस मर्ज़ का ईलाज बतलाने में मददगार हैं, फिर आख़िर कार उसका ईलाज पेश करेगा यानी इस मिसाल में वो दवाई देगा, दूसरे अलफ़ाज़ में वो किताबों की तरफ़ वापिस पलटता है ताकि इस मर्ज़ का ईलाज दे सके।

जी हाँ वो जमात जो तब्दीली चाहती है और तब्दीली के लिए काम करती है अगर वो इस्लामी जमात है तो उस पर लाज़िम है कि वो तब्दीली भी इस्लामी ही लाए, तब्दीली के लिए काम भी इस्लाम से ही हो। तब्दीली शरई दलील की बुनियाद पर हो ना कि शख़्सी राय पर या ख़ाहिश या अक़्ल से मालूम होने वाली मस्लिहत पर और ना ही हालात व औक़ात का असर लेकर तब्दीली हो । बल्कि हक़ सिर्फ़ शरअ को देना चाहिये कि वो जमात पर हुक्म शरई सादिर करे । इस्लाम की मुहब्बत या मुसलमानों के हालात से फ़िक्रमंद होना अपने आप में जमात के सामने कोई हुक्म पेश नहीं कर देते। मुसलमानों की मस्लिहत क्या है इसका फ़ैसला शरअ ही करेगी क्योंकि मुसलमानों की मस्लिहत (मुफ़ाद) शरअ ही में मौजूद है, यहां उन तफ़्सीलात को जानना ज़रूरी हो जाता है जो साफ़ साफ़ बयान करती हों कि इस्लाम की नज़र में मस्लिहत क्या है ? और मस्लिहत कब और किन हालात में शरअन मोतबर होगी?

नोट: मस्लिहत के शरई नुक्ताए नज़र को समझने के लिये मज़मून "मस्लिहत" पढे.
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.