मारूफ़ (भलाई) का हुक्म और मुनकिर (बुराई) को रोकना दावत के पहुंचाने का हिस्सा है

इस्लाम उन तमाम मारूफ़ात पर आधारित है जिन्हें अल्लाह ने क़ायम करने का हुक्म दिया है साथ ही इन मुनकिरात पर भी आधारित है जिन्हें अल्लाह ने मिटा देने का हुक्म दिया है और उनसे बाज़ रहने के मुताल्लिक़ फ़रमाया है।

तमाम मारूफ़ात की जड़ और अव्वलीन और अज़ीमुल मरतबत मारूफ़ अल्लाह पर ईमान लाना और इस्लामी अक़ीदा के बाक़ी अरकान पर ईमान लाना है इसी तरह तमाम मुनकिरात की जड़ और अव्वलीन मुनकर मुनकिरात की शैतानी शक्ल कुफ्र और उसकी दीगर तमाम सूरतें हैं। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने मुसलमानों को हुक्म दिया है कि इस कुफ्र से ख़ुद बाज़ रहें, दूसरों को इससे ख़बरदार करें और लोगों को इसके जाल में फंसने से डराएं।

लिहाज़ा मारूफ़ात कि श्रेणी में ईमान के बाद तक़्वा सूची में आता है और ये तक़्वा अल्लाह (سبحانه وتعالى) और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इताअत के नतीजे में हासिल होता है। ईमान से हासिल होने वाला फल दरअसल तक़्वा होता है और इस तक़्वे को हासिल करना ईमान को मुकम्मल करता है और तक़्वे इख्तियार करना ईमान की बुनियादी शतो में से है। अल्लाह (سبحانه وتعالى) के तक़्वे को इख्तियार करने से तात्पर्य अल्लाह के ग़ैज़ और ग़ज़ब से पनाह इख्तियार करना है और ये पनाह उस वक़्त तक हासिल नहीं हो सकती जब तक अल्लाह (سبحانه وتعالى) के तमाम क़वानीन की पाबंदी व इताअत ना की जाये, ये पाबंदी और इताअत ईमान से जुड़ी होती है चुनांचे जब एक मुसलमान मज़बूत ईमान पर क़ायम होता है तो उसकी पाबंदी और इताअत पर स्थिरता और मज़बूत होती है । जब ये ईमान कमज़ोर होता है तो इसकी पाबंदी और इताअत भी कमज़ोर होती है । लिहाज़ा मुसलमानों को हुक्म दिया गया है कि वो अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ईमान लाएंगे और अल्लाह (سبحانه وتعالى) और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इताअत और फ़रमांबर्दारी बजा लाएंगे और कामयाब हो इसके अलावा उनके लिए कुफ्र और उसकी तमाम तर सूरतें हराम क़रार दी गईं इसके अलावा उनके लिए मआसी (गुनाहगारी) के तमाम कार्य और उसकी सूरतें हराम क़रार दी गईं ताकि वो उन्हें इख्तियार ना करें और अल्लाह के ग़ज़ब व नाकामी से बच सकें।

मुसलमान का ईमान-ओ-तक़्वा और कुफ्र-ओ-मआसी से ख़ुद उसका इज्तिनाब (परहेज़ या बचाव) महफ़ूज़ नहीं रह पाएगा और ना ही लोगों में आम होगा जब तक कि वो अपने इस ईमान-ओ-तक़्वे और कुफ्र-ओ-मआसी से इज्तिनाब को लोगों तक ना फैलाए और उनकी तरफ़ लोगों को दावत ना दे, और जब तक वो एसा धड़ा क़ायम ना कर ले जो मुसलमानों की जानों की हिफ़ाज़त करे साथ ही उनके अक़ाइद और उनके तक़्वे की भी हिफ़ाज़त करे और उनको कुफ्र और उसके जाल से दूर रखे और तमाम मुसलमानों और इंसानों को अल्लाह (سبحانه وتعالى) की नाफ़रमानी के दलदल में फंसने से बचाए । मुसलमानों के लिए ऐसे धड़े की ज़रूरत को स्पष्ट करते हुए इसी बात को हमारे नबी (صلى الله عليه وسلم) ने अपने ज़माने की हक़ीक़त को सामने रखकर अपने तर्ज़े-अमल (actions) के ज़रीये हमारी ख़ातिर वाज़ेह किया है ताकि हम भी इस्लाम और मुसलमानों की ख़ातिर इस बात को उसी अंदाज़ में समझें और आप (صلى الله عليه وسلم) की पैरवी करें। सीरते पाक में हम देखते हैं कि नबी करीम (صلى الله عليه وسلم) ने अपने साथीयों (رضی اللہ عنھم) को ना सिर्फ़ तक़्वे और ईमान लाने का हुक्म दिया बल्कि आप ख़ुद उन अस्हाब (رضی اللہ عنھم) के साथ मिल कर ऐसे धड़े को क़ायम करने और फिर इसके ज़रीए ईमान और तक़्वे का समाज और माहौल क़ायम करने की कोशिश करते रहे, लिहाज़ा वाज़ेह हुआ कि ऐसी इस्लामी रियासत का क़याम पूरे समाज को इस्लामी दिशा देता है फिर उसी दिशा में समाज और उसमें मौजूद हर व्यक्ति का ईमान-ओ-तक़्वा भी गामज़न होता है और फिर समाज और हर व्यक्ति इस माहौल में अपने ईमान-ओ-तक़्वे में तरक़्क़ी-ओ-इज़ाफ़ा हासिल करते हैं जिनके नतीजे में बंदे को अल्लाह (سبحانه وتعالى) की रज़ा हासिल होती है । ये वो मक़सद है जो रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने मदीना मुनव्वरा में इस्लामी रियासत क़ायम करने के बाद हासिल किया । लिहाज़ा मुसलमानों पर फ़र्ज़ हुआ है कि अम्र बिल मारुफ़ करें और नही अनिल मुनकर करें। भलाई का हुक्म देने से पहले वो ख़ुद इसकी पाबंदी करें और मुनकिरात से रोकने से पहले वो ख़ुद इससे बचें।

इस मामले में इमाम नववी शरह सही मुस्लिम में अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर के उनवान के तहत लिखते हैं : ये जान लें कि ये बाब यानी अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर का काम बहुत समय पहले लोगों में आम रहा लेकिन इस ज़माने में उसकी बहुत मामूली रस्म बाक़ी है वो भी सिर्फ़ इसके बाक़ी बचे थोड़े ही निशानात हैं ।

इस्लाम में ये उनवान अत्यधिक महत्वता है क्योंकि यही इस्लाम की असल बुनियाद और अल्लाह की नुसरत की शर्त है । जब मुनकिरात आम हो जाएं तो अल्लाह की सज़ा नेक व बद तमाम लोगो को अपनी भीड़ में ले लेगी और फिर जब वो ज़ालिमों को ज़ुल्म से ना रोकें तो अल्लाह (سبحانه وتعالى) फिर तमाम लोगों को अनक़रीब सज़ा देगा। इरशाद बारी ताला है :

 ﴿فَلْيَحْذَرِ الَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنْ أَمْرِهِ أَن تُصِيبَهُمْ فِتْنَةٌ أَوْ يُصِيبَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ﴾
“उन्हें ख़बरदार कर दो जो रसूल के हुक्म की मुख़ालिफ़त कर रहे हैं ऐसा ना हों कि उन पर मुसीबत आन पड़े या दर्दनाक अज़ाब उन पर टूट पड़े”  (सूरह नूर: 63)

जब तक इस रूए ज़मीन पर ज़िंदगी के वजूद की ज़रूरत है इसकी बक़ा और अमन की ज़रूरत है लिहाज़ा भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना एक लाज़िम और निरंतर क़ायम ज़रूरत है, जो इस वजूद की हिफ़ाज़त व फ़लाह बहबूदी के लिए अवश्यक और लाज़िम है। चुनांचे बिलाशुबा इस्लामी दावत का पहुंचाना दरहक़ीक़त इस रूए ज़मीन पर वजूद की हिफ़ाज़त व फ़लाह बहबूदी करना है। रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने उम्मत के लिए दरकार इस ज़रूरत का ख़ुलासा इस मिसाल के ज़रीये यूं किया है। उन्होंने इरशाद फ़रमाया :

((مثل القائم على حدود الله و الواقع فيها كمثل قوم استهموا على سفينة فاصاب بعضهم أعلاهاو بعضهم أسفلها. و كان الذين أسفلها إذا استقوا من الماء مروا على من فوقهم. فقالوا: لوأنا خرقنا في نصيبنا خرقا و لم نؤذ مَن فوقنا؟ إن تركهم الذين في الأعلى وما أرادوا هلكواجميعا, و ان أخذوا على أيديهم نجوا جميعا))

“जो लोग अल्लाह की क़ायम करदा हदूद की निगरानी व लिहाज़ करते हैं और वह जो उनकी हदों से तजावुज़ करते हैं उनकी मिसाल ऐसी है कि वो दोनों गिरोह एक कश्ती में सवार हैं कुछ अफ़राद कश्ती में ऊपरी हिस्से में और कुछ अफ़राद निचले हिस्सा में सवार हैं निचले हिस्सा के सवार अफ़राद को पानी हासिल करने के लिए ऊपरी हिस्से से गुज़रना पड़ता है लिहाज़ा वो आपस में कहते हैं क्यों ना हम निचले हिस्सा में ही एक सूराख़ कर लें और यहीं से पानी हासिल किया करें ताकि ऊपरी हिस्सा वालों को कोई दिक्कत ना हो? अगर ऊपरी हिस्से के सवार उन्हें ऐसा करने दें तो कश्ती मा तमाम सवार पानी में ग़र्क़ हो जाएगी अलबत्ता अगर वह उन्हें ऐसा करने से रोक दें तो कश्ती (उम्मत) के तमाम सवार महफ़ूज़ हो जाऐंगे ।”

ये हदीस बतलाती है कि भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना किस तरह असल में समाज का अस्तितव और उसकी हिफ़ाज़त करने के समान है और सामाजिक ज़िंदगी और समाज की सलामती के लिए अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर समाज की सुरक्षा के लिए कितना अहम है ।

इस काम की अंजाम दही में कोताही का अंजाम समाज की इस कश्ती व इसके तमाम सवार के साथ समुंद्र की निचली तह तक पानी में डूब जाने के सिवाय कुछ नहीं कि इसमें मौजूद हर एक सवार डूब जाये, तबाह हो जाए ।

क़ुरआने-करीम ने कई आयात में दावत की एहमीयत और लोगों की ख़ातिर उसकी ज़रूरत को जतलाया है क़ुरआन ने इसके लिए सिर्फ़ दावत ही के लफ़्ज़ पर संतोष नहीं किया बल्कि इसके लिए कई अलफ़ाज़ और मआनी इस्तिमाल किए हैं जो दावत का ख़ुलासा करते हैं जो दावत के तमाम विषयों से संबधित हैं और इसी के गर्द घूमते हैं जो रसूल (صلى الله عليه وسلم) की अहादीस के अलावा हैं । इनमें से सिर्फ़ कुछ को मिसाल के तौर पर यहां पेश किया गया है
क़ुरआन ने दावत को इस तरह एक वाक्य में बयान किया भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना। अल्लाह (ربّ العزّت) का इरशाद है :

﴿كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَتُؤمِنُونَ بِاللّهِ﴾
“तुम वो बेहतरीन उम्मत हो जो लोगों की ख़ातिर बरपा की गई है, तुम नेकी का हुक्म देते हो बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो।” (आलेइमरान: 110)
अल्लाह (ربّ العزّت) का इरशाद है :

﴿وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ﴾
“और तुममें से एक उम्मत (गिरोह) ज़रूर निकल कर आए जो तमाम ख़ैर (इस्लाम) की दावत दे, भलाई का हुक्म दे और बुराई से रोके, और यही लोग फ़लाह पाने वाले हैं ।” (आले-इमरान:104)

रसूल (صلى الله عليه وسلم) का फ़रमान है :

(( و الذي نفسي بيده لتأمرن بالمعروف و تنهون عن المنكر أو ليوشكن الله أن يبعث عليكم عقاباً منه ثم تدعونه فلا يُستجاب لكم ))

“क़सम है उस ज़ात की जिसके क़ब्ज़े क़ुदरत में मेरी जान है हरगिज़ हरगिज़ तुम अमर बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर करते रहना वरना अल्लाह अनक़रीब तुम पर क्रोध नाज़िल करेगा और तुम दुआ मांगते रहोगे और वो सुनी ना जाएंगी ।” (रिवाया तिर्मीज़ी)
और रसूल (صلى الله عليه وسلم) का फ़रमान है :

(( من رأى منكم منكراً فليغيره بيده, فإن لم يستطع فبلسانه, فإن لم يستطع فبقلبه,  و ذلك أضغف الإيمان ))


“तुममें से जो कोई भी बुराई देखे उसे चाहिए कि ज़रूर उसको वो अपने हाथों से रो के और अगर ऐसा करने की इस्तिताअत ना रखता हो तो अपनी ज़बान से उसको रोके और इसके भी काबिल ना हो तो अपने क़लब में इससे नफ़रत करे, और ये सबसे कमज़ोर ईमान है ।” 
(रिवाया मुस्लिम)
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