मारूफ़ का हुक्म देना और बुराई के ख़ात्मे से संबधित ग़ौर व फ़िक्र हमें मारूफ़ और मुनकर
की पहचान करवाता है और किसी भी मारूफ़ अमल का हुक्म देने या किसी मुनकर अमल को रोकने
से पहले उसकी मालूमात (knowledge) का जान लेना ज़रूरी है उसको पहचानना ज़रूरी है, चुनांचे मारूफ़ और मुनकर की मालूमात हासिल किए बगै़र मारूफ़ का
हुक्म दिया नहीं जा सकता और ना ही बुराई का ख़ात्मा भी किया जा सकता है यहां ये सवाल
उभर आता है कि एक मुस्लिम से शरअ के तहत कम अज़ कम किस हद तक इल्म हासिल करना
अवश्यक है?
ये बात स्वत:सिद्ध (self-evident) है कि किसी भी अमल से पहले उसकी मालूमात और जानकारी का जानना ज़रुरी होता
है और अमल पर यक़ीनन लाज़िमी है कि वो शरई मालूमात के मुताबिक़ हो वरना ऐसा अमल इबादत
में नहीं गिना जाएगा चुनांचे जब अल्लाह (سبحانه
وتعالى) ने तमाम मुसलमानों को मारूफ़ात की अंजाम देही का हुक्म दिया है तो
हर एक मुस्लिम फ़र्द पर लाज़िम आता है कि वो इन मारूफ़ात का इल्म हासिल करे ताकि उन्हें
अंजाम दे सके इसी तरह चूँकि अल्लाह (سبحانه
وتعالى) ने मुनकिरात से बाज़ रहने का हुक्म दिया है चुनांचे हर एक मुस्लिम
पर ये लाज़िम आता है कि वो इन मुनकिरात का इल्म हासिल करे ताकि उनसे बच सके।
इस तरह इबादत, इताअत और पाबंदी, मब्दा (origin) हैं
और इल्म इनके लिए दरकार ज़रूरत है और इन तीनों का हुसूल ही हुसूल-ए-इल्म का मक़सद और
उसका मुद्दआ हैं । हुसूल-ए-इल्म का मक़सद मालूमात का ज़ख़ीरा जमा करना नहीं है बल्कि इसका
मक़सद ऐन इबादत और इताअत है चुनांचे अल्लाह (الحکیم) इरशाद फ़रमाते हैं :
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا
مِن رَّسُولٍ إِلَّا لِيُطَاعَ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ
“और हमने कभी कोई रसूल नहीं भेजा मगर इसी वास्ते कि अल्लाह
के हुक्म से उसकी ताबेअदारी की जाए” {4:64}
जैसा कि अबदुल्लाह इब्ने मुबारक (رحمة اللہ
علیہم) फ़रमाते हैं “हम मालूमात की ख़ातिर इल्म हासिल करते
थे लेकिन सिवाए इस इल्म के जो अल्लाह की ख़ातिर हासिल किया गया था कोई इल्म नहीं ठहरता
दरहक़ीक़त इल्म से मक़सूद अल्लाह की इबादत और इताअत हैं। इन दोनों की मालूमात,
हुसूल-ए-इल्म के
कमतरीन दर्जे यानी तक़्लीद और उसका आला तरीन दर्जा यानी इज्तिहाद दोनों के ज़रीये हासिल
हो जाती है । ये दोनों ही तरीक़े अच्छे हैं अगर पाबंदी पाई जाती हो और फ़रमांबर्दारी
हासिल होती हो। चुनांचे जब कोई इस तरह इबादत करता है कि उसकी शराइत और अरकान की निगरानी
करता है और इबादत को बातिल कर देने वाली चीज़ों से बाज़ रहता है तो उसने ऐन वो कुछ अंजाम
दिया जिसका अल्लाह (سبحانه
وتعالى) ने उसे हुक्म दिया है और यही इससे मतलूब है। अलबत्ता ये
हक़ीक़त कि उसने इज्तिहाद के ज़रीये इबादत नहीं की तो वो उसके ख़ैर कसीर से महरूम रहा, ख़ैर से मुराद ऐसा इल्म है जिसके ज़रीये अल्लाह (سبحانه
وتعالى) मुस्लिम के दरजात में इज़ाफ़ा करते हैं चूँकि उसने मुक़ल्लिद
की हैसियत में इबादात अंजाम दी हुक्म हासिल किया ऐसे आलिम से जिसको वो इल्म, तक़्वे व परहेज़गारी में बेहतरीन तस्लीम करता है लिहाज़ा उसे आलिम
के बतलाए हुक्म के बरहक़ और ऐन अल्लाह की इताअत होने पर ज़र्रा भर भी शुबा नहीं होता
। इसी तरह वो जो मुतब्बी की हैसियत से इबादात अंजाम देता है साथ ही नुसूस की मार्फ़त
भी रखता है वो शख़्स भी मुक़ल्लिद है अलबत्ता वो दरजात में मुक़ल्लिद आमी से बेहतर दर्जा
रखता है जो कि हुक्म को नुसूस की मार्फ़त के साथ हासिल नहीं करता है । दोनों ही किस्म
के अफ़राद किसी दूसरे शख़्स से हुक्म हासिल करते हैं और इबादात और इताअत इख्तियार करते
हैं। उनके बिलमुक़ाबिल मुज्तहिद मज़ीद बेहतर दर्जा रखता है,
ख़ैर कसीर का मुस्तहिक़
है, और आला दर्जा रखता है क्योंकि वो हुक्म ख़ुद इख्तियार करता है
और वो नुसूस को तलाश करता है और उन नुसूस से अपने लिए अल्लाह (سبحانه
وتعالى) का हुक्म अख़ज़ करता है ”
हर मुस्लिम पर फ़र्ज़ ऐन है कि वो अपने अफ़आल के मुताल्लिक़ अहकाम
की मार्फ़त हासिल करें
हर मुकल्लिफ़ (शरअ की रू से ज़िम्मेदार) के लिए शरअ का हुक्म
ये है कि हर फ़र्द जो पाग़ल न हो और शऊर की उम्र में हो उस पर फ़र्ज़ है कि वो अपनी ज़िंदगी
के ज़रूरी मसाइल में अमल की ख़ातिर दीन की मालूमात हासिल कर ले इसकी वजह ये है कि उस
पर ये हुक्म है कि वो अपने तमाम अफ़आल को अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के अहकामात और मुहर्रमात (ममनूआत/prohibitions) के मुताबिक़ अंजाम दे। और उन अफ़आल से संबधित शरई हुक्म की मालूमात के बगै़र
उन्हें अंजाम देना ना-मुमकिन है चुनांचे एक मुसलमान के लिए उसकी ज़िंदगी गुज़ारने से
संबधित लाज़िमी अहकामात की जानकारी हासिल करना फ़र्ज़े किफ़ाया नहीं बल्कि फ़र्ज़े ऐनी है।
और इससे अधिक मालूमात होना मुस्तहब है चुनांचे अगर वो इबादत करे तो उसका जानना लाज़िम
है कि इबादत किस तरह अंजाम देनी है, अगर उसकी पूंजी निसाब को पहुंच जाये और इस पर एक साल गुज़र जाये तो इस पर फ़र्ज़
है कि वो उसकी ज़कात अदा करे चुनांचे उस पर जान लेना लाज़िम है कि उसे उसकी पूंजी के
हिसाब से ज़कात कितनी मिक़दार में अदा करनी है । अगर उसकी दौलत सोने और चांदी में हो
तो उस पर जानना लाज़िम होगा कि सोने और चांदी की ज़कात कैसे और किसे अदा करनी है और अगर
वो फलों और मवेशी पर ज़कात अदा करने के हुक्म की मालूमात ना भी रखता हो तो इस पर कोई
पकड़ नहीं होगी अलबत्ता अगर वह उनसे संबधित ज़कात का हुक्म जानता हो तो उसके दरजात के
बुलंद होने और अज्र का बाइस है। अगर वो इस्लामी रियासत के क़याम के लिए कोशिश करता है
तब इस पर लाज़िम है कि वो ऐसी ज़रूरी मालूमात हासिल कर ले जो इस्लामी रियासत के क़याम
से संबधित है।
Thus, every obligation is linked to his responsibility, the knowledge of it is accordingly linked
with it.
चुनांचे हर फ़र्ज़
का ताल्लुक़ मुस्लिम पर आइद ज़िम्मेदारीयों से है और इस फ़र्ज़ से संबधित मालूमात कि
प्राप्ति का लाज़िमी होना इसकी ज़िम्मेदारी के हिसाब से ही ताल्लुक़ रखता है ।
चुनांचे इस्तिताअत रखने वाला मुसलमान इस तर्ज़ पर फ़राइज़ को अंजाम दे कि फ़राइज़ के
हुक्म की मार्फ़त इसे हासिल हो तब वो अपने ईमान की दुरुस्तगी और मुकम्मल इताअत और हुक्म
के कामिल इल्तिज़ाम के बारे में मुतमइन हो सकता है ।
और अगर उसकी नीयत
ख़ालिस उसके रब की रज़ामंदी हो और उसे रास्त अमल (correct action) की हिदायत मिली हो तो जब वो अपने रब से मुलाक़ात
करेगा तो वो एक निहायत मेहरबान रब को पाएगा जो उसके तमाम आमाल को क़बूल करने वाला है
और जो रोज़े जज़ा उसे अपनी पनाह में लेने की क़ुदरत रखता है ।
मारूफ और मुंकर के इल्म की
एहमीयत:
ये बात रोज़ रोशन की तरह अयाँ और स्पष्ट है कि इस विषय से संबधित इल्म और उल्मा
की कितनी अज़ीमुश्शान एहमीयत और ज़रूरत है जिन्होंने मारूफ़ से संबधित मौजूद नज़रियात और फिक्रो फ़ेहम और मुनकर के मुताल्लिक़
मौजूद नज़रियात,
फ़िक्र-ओ-फ़ेहम को अपने अपने ज़माने में लोगों की राहनुमाई के लिए
वाज़ेह किया है और अवाम को तरग़ीब दिलाई कि वो मारूफ़ात को अंजाम दें और मुनकरात से बचे
।
उल्मा दरअसल वो अफ़राद हैं जिन्होंने वो इल्म हासिल किया जिसकी अवाम मालूमात हासिल
करना चाहती हैं यानी इस इल्म की ज़रूरत दूसरे लोगों को होती है यानी उल्मा वोह हैं जिन्होंने
अपने ज़ाती अफ़आल (own actions) से संबधित इल्म के अलावा मज़ीद इल्म हासिल किया है, ज़ाती अफ़आल से संबधित इल्म हासिल करना दूसरों की तरह उल्मा पर भी फ़र्ज़ ऐनी है लेकिन ऐसा इल्म जो दूसरों
की ज़रूरत है उसको हासिल करना उम्मत पर फ़र्ज़े किफ़ाया यानी उम्मत पर इज्तिमाई फ़र्ज़ है,
उल्मा ने उसकी भी ज़िम्मेदारी सँभाली और इस इज्तिमाई फ़र्ज़े किफ़ाया
को अंजाम दिया लिहाज़ा उनको इस इल्म को हासिल करने की जद्दो-जहद पर इसका अज्र मिलेगा।
इस इल्म के बावजूद आलिम ख़ुद पर आइद फ़राइज़ में से किसी फ़र्ज़ की अदायगी से बरी नहीं
है बल्कि जो फ़राइज़ अफराद पर आइद हैं उनकी ज़िम्मेदारी का हुक्म बहैसीयत फर्ज़ उल्मा
पर भी आइद है। इन ज़िम्मेदारीयों में एक ज़िम्मेदारी ख़िलाफ़त के क़याम के लिए कोशिशें
है। आप अगर विरसा से संबधित अहकामात बतलाने वाले आलिम हैं, दूसरा कोई आलिम क़ुरआने-करीम की तफ़सीर में माहिर है और तीसरा
कोई आलिम शरई क़ाज़ी है जो निकाह-ओ-तलाक़ वग़ैरा के मसाइल बतलाता है और कोई आलिम विभिन्न
किस्म के मामलात पर मामूर है तो आप तमाम और दीगर विभिन्न उल्मा अपने इन्फ़िरादी फ़राइज़
की ज़िम्मेदारीयों की अंजामदेही से आज़ाद नहीं हैं और ऐसे कफ़ाई फ़राइज़ से भी बरी नहीं
हैं जिनका ताल्लुक़ पूरी उम्मत से है। चूँकि उल्मा भी उम्मत के अफ़राद हैं लिहाज़ा जो
ज़िम्मेदारी अफराद तक पहुंचती है वही ज़िम्मेदारी उल्मा तक भी पहुंचती है। आजकल मुशाहिदा
में ये बात सामने आ रही है कि दीगर उल्मा मुख़्तलिफ़ किस्म के तख़्लियाती और भोंडे दलायल
देकर इस अहम फ़रीज़े से अपनी जान छुड़ाने की कोशिश करते हैं ये उज़्र बहाने के सिवा कुछ
नहीं हैं,
और यह दलायल शरअन हरगिज़ मक़बूल नहीं हैं,
उनके मुताल्लिक़ अल्लाह (سبحانه
وتعالى) इनसे जवाबतलबी ज़रूर करेगा और उम्मत को भी चाहिए कि वो लोगों
के बीच ऐसे उल्मा का मुहासिबा (जवाबतलबी) करे।
पस इल्म का मक़सद इताअत और इबादत है, इल्म वो है जो तक़वा पैदा करे और तक़वा ख़ौफ़े ख़ुदा है ।
इरशादे बारी है:
﴿إِنَّمَا
يَخْشَى اللَّهَ مِنْ عِبَادِهِ الْعُلَمَاء {35:28}
“यक़ीनन अल्लाह से तो उनके बंदों में से उल्मा ही डरते हैं
।"
इस इरशाद बारी ताअला के मुताबिक़ उल्मा वोह मुजाहिद होते हैं जो हर जगह पहली सफ़
में होते हैं ख़्वाह नमाज़ में हो या जिहाद में, ख़्वाह दावत का मौक़ा हो या हुक्मरानों को नसीहत का या कुफ्र व
इलहाद (नास्तिकता) के अफ़्क़ार व मफ़ाहीम (thoughts and concepts) के मुक़ाबले का। तुम उन्हें हमेशा पेश क़दम
पाओगे ताकि वो लोगों को सही इल्म और अमल की तालीम दें और राहे-हक़ में उनकी रहनुमाई
करें।
लिहाज़ा कोई ये गुमान ना करे कि इस्लाम में उल्मा का मंसब किसी दफ़्तर शाही ओहदादार
के ओहदा का है,
या पुरोहितों की तरह इस्लाम में उनका कोई मज़हबी रुतबा है या
उनकी कोई अलग से व्यक्तिगत पहचान है। ना ही ये समझना चाहिए कि उल्मा तो अपने इल्म की
बिना पर सिर्फ़ लोगों को हुक्म करेंगे जबकि उनके अहकामात को अमली जामा पहनाना बाक़ी
लोगों का काम है, बल्कि जिस तरह एक उम्मत के आम फ़र्द पर फ़र्ज़ है कि वो इन शरई
अहकामात पर अमल करे बिलकुल इसी तरह उल्मा पर भी फ़र्ज़ है कि वो शरई अहकामात पर अमल
करें, अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के अवामिर और नवाही के मुख़ातिब ये भी हैं जिस तरह कि रसूलुल्लाह
(صلى الله عليه وسلم) और सहाबा किराम (رضی اللہ عنھم) कभी मुख़ातिब हुआ करते थे ।
शरअ ने हक़ की मार्फ़त और उसके क़याम के लिए इल्म और उल्मा की मौजूदगी को फ़र्ज़ क़रार
दिया है,
उल्मा हक़ को समझने का ज़रीया हैं, एक मुसलमान उनके ज़रीये अपने रब के हुक़ूक़ को समझता है। उल्मा
की मौजूदगी या उम्मत में उन्हें पैदा करना फ़र्ज़े किफ़ाया है,
अगर उल्मा मौजूद नहीं होंगे तो पूरी उम्मत गुनहगार हो जाएगी,
क्योंकि उम्मत फिर अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के अहकामात को अपने ज़माने के लिहाज़ से समझ नहीं पाएगी।
यही वजह है कि इज्तिहाद फ़र्ज़े किफ़ाया है और ऐसा कोई दौर ना गुज़रे जब उम्मत के बीच मुज्तहिदीन
अनुपस्थित हो चुनांचे हमेशा उम्मत के अंदर मुज्तहिदीन की मौजूदगी फ़र्ज़ है वरना पूरी
उम्मत गुनाहों का शिकार हो जाएगी ।
चूँकि लोग क़ुदरती तौर पर उल्मा की तरफ़ माइल होते हैं और उनसे इल्म हासिल करने के
ख़्वाहिशमंद होते हैं जो उल्मा के लिए एक आज़माईश बनती है चुनांचे एक आलिम को अपने इल्म
के बारे में किसी फ़ित्ने में मुबतला नहीं होना चाहिए, कि कोई ख़ास मंसब या बदले का ख़्वाहिशमन्द बन
जाये और बगै़र इल्म के (बगै़र दलायल) लोगों की ख़्वाहिशात के मुताबिक़ फ़तवा देना शुरू
करदे या हुक्मरान को ख़ुश करने के लिए शरअ के तथ्यों (facts)
को छुपाए। शरई इल्म एक मारूफ़ है जबकि इसके बारे में रियाकारी (showing off),
हुब्ब जाह (love for leadership) और उसका अज्र तलब किया जाना ये तमाम मुनकिरात
हैं, पस उल्मा का हुक्मरानों के मफ़ादात के लिए काम करना ख़ास तौर पर मौजूदा ज़माने में
हुक्मरानों के सियासी मक़ासिद (political
objectives) के लिए इस्तिमाल होना,
उनका एजैंट बनना जिसकी वजह से हुक्मरान उन पर बे दरेग़ दौलत लुटाते
हैं और लोगों के सामने उनको बड़े मुअज़्ज़िज़ उल्मा के तौर पेश करते हैं और उनकी अवाम में
मक़बूलियत के लिए बड़ा प्रोपेगंडा करते हैं। इस वजह से ये उल्मा लोगों के लिए मरजआ (reference points) और मुफ़्ती बन जाते हैं और लोग
बड़े-बड़े मसाइल में उनकी तरफ़ रुजू करते हैं। फिर ये उल्मा से फ़तवे सादर करते हैं जिनसे
हुक्मरान ख़ुश होते हैं लेकिन अल्लाह (سبحانه
وتعالى) नाराज़ हो जाता है। ये उल्मा नुसूस को हुक्मरानों की ख़ाहिशात
के ताबे कर देते हैं और उन्हीं की मर्ज़ी के मुताबिक़ शरअ की तशरीअ करते हैं। ग़ौर करें
जब हुक्मरानों ने सूद को जायज़ क़रार दिया तो उन्होंने भी उसको हलाल क़रार दिया, उन्होंने इसके हक़ में दलायल पेश करने के लिए नुसूस को तोड़ मरोड़
कर मनघड़त तौर पर पेश किया। हुक्मरानों ने जब कुफ़्फ़ार देशों से मदद लेने का फ़ैसला किया
तो उन्हीं उल्मा ने इसकी मुवाफ़िक़त की और इत्तिफ़ाक़ किया और जब हुक्मरानों ने यहूद के
साथ सुलह करना चाहा तो उन उल्मा ने उसकी ज़बरदस्त हिमायत की और ग़ासिब यहूदीयों के साथ
अमन को फ़र्ज़ क़रार दिया । ये उल्मा ऐजेंट हैं ये उल्मा-ए-सू हैं ये वो शैतान लोग हैं
जिनको नसीहत करना फ़र्ज़ है। उम्मत पर फ़र्ज़ है कि वो उल्मा के इन कामों पर नज़र रखें
और उनके ऐसे अफ़आल के ख़िलाफ़ सख़्त रवैय्या अपनाए और उनसे बेरुख़ी इख्तियार करें शरअ
की इस तौहीन से उनको रोकें। हुक्मरानों के सामने मदद का हाथ फैलाकर शरअ की तज़लील करने
वाले इन उल्मा पर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का ये इरशाद सादिक़ आता है:
((إن أخوف
ما أخاف على أمتي كل منلفق عليم اللسان))
“मैं अपनी उम्मत के बारे में जिस चीज़ का सबसे ज़्यादा डर महसूस
करता हो वो मुनाफ़िक़ उल्मा हैं ।” (रिवाया अहमद बिन हबंल)
इन जैसे उल्मा की ख़ूब तशहीर होनी चाहिए और उनको अवाम के सामने बेनकाब करना चाहिए
ताकि लोग उनके फतावा के जाल में ना फंस जाएं, ये वो लोग हैं जिन्होंने आख़िरत के बदले दुनिया की ज़िंदगी को
इख्तियार किया ना मालूम किस चीज़ ने जहन्नुम के बारे में उनको इस क़दर लापरवाह कर दिया।
जी हाँ जब मुसलमान मारूफ़ पर अमल और उसका अम्र शुरू करेंगे और
मुनकर से इज्तिनाब करके दूसरों को भी इससे रोकेंगे तो उनकी इन्फ़िरादी ज़िंदगी में दीन
का मसला हल हो जाएगा अगर मुसलमान अपने घर में इसका पाबंद होगा और दूसरों को भी पाबंद
करेगा,
अपनी तिजारत और दूसरे लोगों के साथ अपने ताल्लुक़ात में भी इस
पर कारबन्द होगा तो उसके दीन का एक अहम हिस्सा ऐन हक़ पर क़ायम हो जाएगा। जैसा कि हमने
कहा कि दीन का मक़सद अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इताअत है, इसलिए पूरे का पूरा समाज मारूफ़ पर अमल करने वाला और मुनकर से
इज्तिनाब करने वाला होना चाहिए, इस समाज की ख़ासीयत
और पहचान अम्र बिल मारुफ़ व नही अनिलमनकर के ज़रीये होती हो, समाज का कोई भी हिस्सा या कोई भी पहलू अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के हुक्म के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए, चाहे ये पहलू इन्फ़िरादी ज़िंदगी का हो या इज्तिमाई ज़िंदगी का,
क्योंकि समाज सिर्फ़ अफ़राद का मिश्रण नहीं, बल्कि ऐसे अफ़राद का मिश्रण समाज है जिनको ऐसे अक़ीदा ने इकठ्ठा
किया हो जिसमें से ज़िंदगी के तमाम मामलात को व्यवस्थित करने की ख़ातिर एक व्यवस्था निकल
कर आती है। पस अगर समाज की ज़िंदगी का सिर्फ़ इन्फ़िरादी पहलू दरुस्त हो गया हो तो सिर्फ
एक पहलू दरुस्त हो गया जबकि इसके अभी कई और पहलू भी हैं जिनका अल्लाह (سبحانه
وتعالى) के हुक्म के मुताबिक़ होना फ़र्ज़ है। समाज के इन्हीं अफराद को ये भी
हुक्म दिया गया है कि अपने ऊपर एक ऐसा ख़लीफ़ा मुक़र्रर करें जो उनके समाज की हक़ीक़त
और ज़माने के मुताबिक़ उन पर इस्लाम नाफ़िज़ करे, क्योंकि जो चीज़ मुसलमानों के समाज की सामूहिक ज़िंदगी में मुस्लिम अफ़राद के अल्लाह
(سبحانه
وتعالى) के तक़्वे के ज़रीये वजूद में नहीं आ पाएगी वो मारूफ़ात व भलाई ख़लीफ़ा
की तलवार के ज़ोर पर समाज में पैदा की जाएगी। बिलाशुबा जो क़ुरआन के ज़रीये सीधा नहीं
हो सके उसको अल्लाह (سبحانه وتعالى) सुल्तान (ख़लीफ़ा) के ज़रीये सीधा कर देगा।
शरअ ने इस अक़ीदे को नाफ़िज़ करने, अक़ीदे की हिफ़ाज़त
करने और इस अक़ीदे को तमाम लोगों तक पहुंचाने का हुक्म दिया है और अक़ीदे का क़ायम किया
जाना,
अक़ीदे को महफ़ूज़ करना, अक़ीदे को लोगों तक पहुंचाना इन तमाम ज़िम्मेदारीयों को इस्लामी रियासत पर डाल दिया
गया है ताकि वो उन्हें अपनी निगरानी में अंजाम दे। चुनांचे जिहाद जो कि इस्लाम का सबसे
आला हिस्सा है शरअ ने उसको अंजाम देने का ज़िम्मेदार रियासत को बनाया है, लिहाज़ा रियासत दावत को फैलाने के तरीक़ा के तौर पर जिहाद को
अपनाती है। इमाम ग़ज़ाली (رحمت اللہ علیہ) ने क्या ख़ूब फ़रमाया:
“क़ुरआन और सुल्तान दो जुड़वां
भाई की तरह हैं क़ुरआन अगर इमारत की एक बुनियाद है तो सुल्तान इसका मुहाफ़िज़ है जिस
(इमारत) की बुनियाद नहीं होगी वो बाआसानी गिराई जा सकेगी और जिसका कोई मुहाफ़िज़ नहीं
होगा तो वो नष्ट हो जाएगी ।”
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