दावती जमात की तस्क़ीफ (culturing) मे अक़ीदे की एहमीयत

अक़ीदा-ए-इस्लामी ही वो बुनियाद और धुरि (axis) है जो जमात या हिज़्ब को अमल के लिए उभारता है और इनमें रूह फूंक कर इनको तरो-ताज़ा करता है और चूँकि जमात का मक़सद अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत का क़याम है, इसलिए इस मक़सद के लिए ज़रूरी है कि जमाती सक़ाफ़्त जिसको जमात ने इस काम के लिए इख़्तियार किया है उसे अंदाज़ में इख़्तियार की जाये जो इस सक़ाफ़्त को अक़ीदे के साथ मज़बूती के साथ जोड़ता हो, इसके पीछे मक़सद काम करने वालों में ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा करना, उसकी फ़िक्र, संजीदगी, जोश और जज़्बा, और उन्हें क़ुर्बानी के लिए तैय्यार करना है क्योंकि ये सक़ाफ़्त होती है जो काम करने वालों के अंदर एहसास ज़िम्मेदारी, एहतिमाम, संजीदगी, जोश व जज़्बा और क़ुर्बानी पैदा करती है और मुसलमान को ऐसा बना देती है कि वो दावत के रास्ते की मुश्किलात और मशक़्क़तों को इस्तिक़ामत के साथ बर्दाश्त करता है, यही वो सक़ाफ़्त है जो दाअी को ऐसा बना देती है कि वो लोगों के शुक्रिया का इंतिज़ार करने वाला और तारीफ़ का मोहताज नहीं रहता, वो तो सिर्फ़ अपने रब से डरता है और क़यामत के दिन से ख़ौफ़ खाता है जिस दिन लोगों के चेहरे फ़िक्र और पछतावे में दहश्तज़दा होंगे, वो दुनियावी ज़िंदगी की तक्लीफ़ और मशक़्क़तों और उसके ऐशों आराम से महरूम होने पर राज़ी हो जाएगा ताकि अपने रब की रज़ा और ख़ुशनुदी हासिल करे और आख़िरत की नेअमतों और हमेशा की ख़ुशी व चैन को हासिल कर ले।

अक़ीदे को सक़ाफ़्त की बुनियाद में इख़्तियार करने (तबन्नी) का मक़सद ये है कि लोगों में तब्दीली की शुरूआत अक़ीदे की बुनियाद पर की जाये यानी लोगों में तब्दीली की ज़रूरत और ख़ाहिश और तब्दीली की शुरूआत उन पर होने वाले ज़ुल्म के विरोध में या जहालत से छुटकारा पाने की ख़ाहिश में या ख़ुशहाली और तरक़्क़ी के नारों की बुनियाद पर ना की जाये बल्कि इस्लामी अक़ीदे कि मांग के तहत तब्दीली की शुरूआत की जाये। जो चीज़ मुसलमान को दावत देने के लिए तैय्यार करती है और दूसरे मुसलमानों को दावत क़बूल करने के लिए तैय्यार करती है वो ईमानी अफ़्क़ार हैं, ये इस्लाम में तब्दीली के लिए असल रास्ता है।

मज़ीद इसी तरह ईमानी अफ़्क़ार जो तब्दीली के लिए सक़ाफ़्त की बुनियाद बनाए गए हैं इन अफ़्क़ार (विचारों) को सक़ाफ़्त के साथ लोगों में ऐसे अंदाज़ में फैलाएं कि इसके ज़रीये असल मक़सद को हासिल किया जा सकता हो।
  1. अक़ीदे को उनके सामने इस अंदाज़ में पेश किया जाये जो असल मक़सद को हासिल करने में मददगार बने।
  2. तबन्नी शुदा (इख़्तियार किए गए) शरई अहकामात इस अंदाज़ में पेश किए जाएं ताकि साफ़ तौर पर ज़ाहिर हो जाए कि असल मक़सद क्या है।
  3. इसी तरह हक़ीक़त की जानकारी इस अंदाज़ में दी जाये कि इस से मक़सद को प्राप्त करने में मदद हासिल हो।

आसान शब्दों में ये कि निहायत ज़रूरी है कि जमात की सक़ाफ़्त का इस्लामी अक़ीदे के साथ रिश्ता मुकम्मल और मज़बूत हो, जमात की सक़ाफ़्त ऐसी होनी चाहीए जिसके लिए शरई दलायल मौजूद हों, सक़ाफ़्त इसलिए तैय्यार की जाये और फैलाई जाये ताकि इस सक़ाफ़्त की मदद से शरई मक़सद को हासिल किया जा सके जो इस्लामी रियासत के क़याम के ज़रीये अमली तौर पर अल्लाह (سبحانه وتعالى) की बंदगी करना है, जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) की हाकिमीयत को हासिल करना है यानी हम तमाम पर हक़ीक़ी तौर पर हाकिम अल्लाह (سبحانه وتعالى) को बनाना है। चुनांचे ये लाज़िमी है कि जमात के शबाब की भी इसी समझ के साथ तर्बीयत और तैय्यारी की जाये।

चूँकि इस्लामी अक़ीदा इतना ही अहम है जितना कि एक धड़ के लिए उसका सर या जिस तरह जिस्म के हिस्सों के लिए उसमें मौजूद दिल, बिलकुल इसी तरह अक़ीदा इस्लाम का बुनियादी हिस्सा है, यही वो बुनियाद है कि हर एक मामला जिस पर खड़ा होता है कि अगर ये ना हो तो फिर आमाल की कोई एहमीयत नहीं है और कोई इनाम नहीं है, चुनांचे जब अक़ीदा बतलाया जाये तो इसके ज़रीये नीचे दी गई तमाम बातें साफ़ तौर पर मालूम हो जाएं और उन पर पाबंदी हासिल की जाये।

2. इसके नतीजे में इबादत और बंदगी सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की जाये और क़ानून बनाने वाला हाकिम भी सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) को ही माना जाये। अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अलावा किसी का हक़ नहीं कि वो क़ानून बनाता फिरे । वही अकेला रब है, वही ख़ालिक़ है, वही हर शय का इल्म रखने वाला अल-आलीम और हर एक बात से बाख़बर अल-ख़बीर क़ानून बनाने वाला अल-हाकिम है, वही तमाम कामों की तदबीर करने वाला है। इंसान फ़ितरती तौर पर अपनी कमज़ोरी को महसूस करता है, उसको ये एहसास है कि कि वो नाक़िस, मोहताज और महदूद है चुनांचे वो अपने माबूद की तरफ़ पलटता है ताकि वो उसको सीधा रास्ता बताए, उसको अंधेरों की गहराईयों से नूर की तरफ़ निकाले। अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने अपने तमाम बंदों में से एक रसूल भेजा और इस रसूल को चुना ताकि वो इसके पैग़ाम को पहुंचा दें जिसके ज़रीये अल्लाह (سبحانه وتعالى) सलामती की राह में अपनी ख़ुशनुदी और रज़ा तलाश करने वालों की रहनुमाई करता है।
अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हमें हुक्म दिया है कि जो कुछ रसूल अपने रब की तरफ़ से लाए हैं हम अल्लाह (سبحانه وتعالى) के इस पैग़ाम में आपकी पैरवी करें । रसूल मासूम हैं, अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने क़ुरआन को पूरी इंसानियत के लिए उतारा है और हिदायत, नूर, रहमत और दिलों के लिए शिफ़ा बना कर आप पर नाज़िल किया, अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इंसानों से हमेशा हमेशा की स्थायी (permanent) नेअमतों और आसाइशों का वाअदा फ़रमाया है अगर वो ईमान लाएंगे और इताअत करने वालों में शामिल हों और जहन्नुम से धमकाया है अगर वो इसका इनकार करें । इस तरह इंसान को पैदा किया ताकि वो सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत करे ऐसी जैसा कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) के रसूल ने हमें बताया है। मुसलमानों को ये बात ख़ूब अच्छी तरह मालूम होनी चाहिए कि इस्लाम ने इंसान की हक़ीक़त को ज़िंदगी माक़ब्ल (before) पर ईमान यानी अल्लाह (سبحانه وتعالى) ख़ालिक़े मुदब्बिर पर ईमान के साथ जोड़ देता है, इसी तरह ज़िंदगी के माबाद (after) पर ईमान यानी बाअस (दुबारा ज़िंदा किए जाने), नुशूर (इकट्ठा किए जाने) हिसाब (हिसाब व किताब) और सवाब व अक़ाब (जज़ा और सज़ा) से जोड़ दिया है। अक़ीदे को इस अंदाज़ से बतलाएं कि मुसलमानों को ये रिश्ता स्पष्ट तौर पर नज़र आना चाहिए और वो उसको महसूस करने लगें । जो इस ताल्लुक़ को तोड़े या जुदा कर देगा उसकी बात हक़ीक़त से दूर बे-बुनियाद और ग़ैर यक़ीनी होगी बल्कि उसकी बात कुफ्रिया कलिमात होंगे।

3. अक़ीदे को इस तरह उम्मत के सामने पेश करना चाहिए जिसके नतीजे में उम्मत का पुनर्जीवन (revival) हो यानी वो दुबारा बुलंद फ़िक्र और मर्तबे को हासिल करे और इस्लाम को एक पैग़ाम की तरह दुनिया तक पहुंचाने के लिए उम्मत उठ खड़ी हो जाये।

4. मुसलमानों को चाहीए कि वो मौजूदा दौर के कुफ्रिया विचारों के मुक़ाबले के दौरान इस्लामी अक़ीदे की सच्चाई को समझें साथ ही उन पर ये भी लाज़िमी है कि वो इन कुफ्रिया विचारों का मुक़ाबला करते हुए इस अक़ीदे की सच्चाई को लोगों के सामने वाज़ेह करें और मौजूदा दौर के तमाम बातिल अफ़्क़ार जैसे पूंजीवाद, क़ौमीयत या वतनियत (nationalism or patriotism) की बुराईयों और ख़राबियों को बेनकाब करें । इसका तरीक़ा ये है कि लोगों के बीच इन बातिल अफ़्क़ार के मुक़ाबले में इस्लाम के अफ़्क़ार को लाकर खड़ा कर दिया जाये और इन दोनों में एक फ़िक्री मुवाज़ना (intellectual comparison/बौद्धिक तुलना) की जाये, जिसके नतीजे में दो चीज़ें हासिल होती हैं पहली चीज़ तो ये कि इस्लाम के अलावा हर एक बातिल फ़िक्र और उस पर क़ायम हर एक चीज़ ढहने लगती है और ऐसे नतीजे पर पहुंचते हैं जब ये सारे के सारे अफ़्क़ार ख़त्म हो जाएं, दूसरी चीज़ वो मौक़ा हाथ आता है जब आप साफ़ तौर पर बयान कर सकते हैं कि सिर्फ़ इस्लाम ही वो सच्चाई और हक़ है जो पूरी दुनिया की इस्लाह कर सकता है क्योंकि इंसानों के लिए उसका अक़ीदा और निज़ाम फ़ितरी और आलमी है लिहाज़ा ज़रूरी है कि इसके लिए ऐसी इस्लामी रियासत क़ायम की जाये जहां इस्लाम नज़र आए और फिर लोग इसे इख़्तियार करें । इसके लिए जमात को इस मैदान में काम करना होगा और उन झूटे चमकदार नारों, प्रोपेगेंडों और अफ़्वाहों को ख़त्म करना होगा जिनको साम्राज्यवादी काफ़िर ने मुसलमानों के ज़हनों में डाल दिया है, मिसाल के तौर पर तहज़ीब और फ़िक्र की आज़ादी (freedom of thought and culture) जो बादशाह के पास है उसके पास रहने दो और जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के पास है उसके पास रहने दो मेरा वतन हमेशा सच्चाई पर होता है अपने भाई की मदद करो चाहे वो ज़ालिम हो या मज़लूम हो ये और ऐसे नारे जो इस्लाम से पहले जाहिलियत के तसव्वुरात के मुताबिक़ हैं, इसी तरह जमात का यह काम है कि मुसलमानों के ज़हनों और ज़िंदगीयों से पश्चिमी विचारों के असरात को खरोंच कर ख़त्म करे, इस काम का तरीक़ा ये होगा कि ऐसे तमाम विचारों को झूटा साबित किया जाये जो ऐसे नज़रियात की बुनियाद पर क़ायम हों जैसे शरीयत को तरक़्क़ी देना, शरीयत को ज़माने के मुताबिक़ मॉडरन या आधुनिक बनाना, (पश्चिमी नज़रियात के मुताबिक़) मौजूदा ज़माने में असरी जरूरतों की पूर्ति के लिए शरीयत की लचक, दीन और सियासत को जुदा करना, दीन में कोई सियासत नहीं है, ज़माने और जगह के बदलने पर अहकामात के बदलने से इनकार नहीं, इन और ऐसे तमाम नारों को ख़त्म करने के अलावा जमात का काम ये भी है कि वो उनके मुक़ाबले में विकल्प के तौर पर तौहीद व रिसालत यानी  ’لاالہ الا اللہ محمد رسول اللہ ‘ (صلى الله عليه وسلم) की बुनियाद पर तैय्यार हुए और इस से फूटने वाले अफ़्क़ार को लोगों में आम करे।

शरीयत से हम ये जानते हैं कि ’لاالہ الا اللہ محمد رسول اللہ ‘ (صلى الله عليه وسلم) कलिमे का माअनी उसके इल्म और इस पर अमल के लिहाज़ से उस वक़्त तक दिल में ख़ालिस और हक़ीक़ी तौर पर नहीं बैठता जब तक इसके अलावा हर एक फ़िक्र और हर एक अक़ीदे को दिल से निकाल कर फेंक ना दिया जाये, चुनांचे इस्लामी अक़ीदा और इस पर ईमान का ख़ुलासा ये इरशाद बारी ताला करता है:

فَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلطَّـٰغُوتِ وَيُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱسۡتَمۡسَكَ بِٱلۡعُرۡوَةِ ٱلۡوُثۡقَىٰ
“जिसने ताग़ूत (ग़ैरुल्लाह) का इनकार किया और अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ईमान लाया, तो उस ने मज़बूत रस्सी थाम ली ।” (2:256)
ईमान लाने के लिए अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इस्लामी कलिमे में ताग़ूत के इनकार (لاالہ) को पहली शर्त बतलाया है ताकि ईमान का इक़रार करते वक़्त किसी किस्म के शिर्क के असरात या कुफ्र के दाग़ ज़हन में बाक़ी ना रहें और ज़हन को मेला ना कर सकें इस तरह दिल में इस सिलसिले में कोई तशवीश बाक़ी ना रहे यानी दिल में शिर्क की गंदगी या कुफ्र का शाइबा तक ना रहे फिर इसके बाद ईमान (’لاالہ الا اللہ محمد رسول اللہ ‘) (صلى الله عليه وسلم) का तज़्किरा किया गया, इसी कलिमे की तशरीह में ये आयत पहले ताग़ूत के इनकार का मुतालिबा बयान करती है और फिर इस इनकार के बाद अल्लाह (سبحانه وتعالى) पर ईमान लाने को बयान करती है जिसके नतीजे में शुद्ध ईमान दिल में हासिल होता है जिसमें ऐसा मुकम्मल और मज़बूत यक़ीन होता है जैसा कोई शख़्स जब किसी मुसीबत या तक्लीफ़ में मज़बूत रस्सी या सहारे को थाम लेता है इसका ये हाल होता है। चुनांचे अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने फ़रमाया:


﴿فَاعْلَمْ أَنَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ﴾ {47:19}
“तो जान लो (आए मुहम्मद) कि कोई इलाह (ख़ुदा) नहीं सिवाए अल्लाह के ।”
कोई इलाह नहीं तस्लीम करने का मतलब है कि जानकारी और ग़ौरो फ़िक्र के बाद ये मालूम होता है कि कोई ख़ुदा नहीं जो माबूद हो और इबादत के लायक़ है। फिर अगला इरशाद कि : ﴿إِلَّا اللَّهُ﴾ {47:19} “मगर सिवाए अल्लाह के”  ये अल्लाह के (وحدہ لاشریک) होने का इक़रार है। ये कलिमा दूसरे तमाम का इनकार और सिर्फ़ अल्लाह (ذولجلال) का इक़रार है। अरबी ज़बान में ऐसे क़रार को निहायत सख़्त किस्म का पुख़्ता इक़रार तस्लीम किया जाता है और इसमें हसर या महिदूद (इन्हिसार, तख़रीद) के मानी हैं जो इस इक़रार को ख़ालिस अल्लाह (سبحانه وتعالى) के लिए महदूद करता है । इसलिए इश्तिराकीयत (सोशलिज़्म), क़ौमीयत (नेशनलिज़्म) या वतनियत (हुब्बुल-वतनी/patriotism) के अफ़्क़ार हमें ना बचा सकते हैं और ना ही ये सही और सच्चे हैं बल्कि ये फ़ासिद और झूटे और बातिल हैं, ये इंसान की मुसीबतों और बदनसीबी में इज़ाफ़ा कर देते हैं और कभी मुकम्मल राहत नहीं दिला सकते । कहीं भी कोई हिदायत और रोशनी और शिफ़ा नहीं पा सकता, सिर्फ़ अल्लाह (سبحانه وتعالى) का दीन और उसकी शरीयत ही हिदायत नूर और शिफ़ा हे।

अब जमात अफ़राद साज़ी करे और अपने अफ़राद की इस्लामी शख़्सियत बनाए, इसके लिए उनको सही इस्लामी पैमाने दे उनके दिलों में शरअ पर पाबंदी से मुहब्बत और ख़िलाफ़े शरअ मामलात के लिए नफ़रत भर दे और इसी तरह फ़ैसलों के लिए वो शरअ के फ़ैसले को पसंद करें और ग़ैर शरई फ़ैसलों से नफ़रत करने लगें, जिसकी वजह से इनमें चीज़ों और मामलात की समझ अब शरअ के पैमाने और शरई अफ़्क़ार तय करेंगे यूं शरअ उनकी अक़्लों का पैमाना बन जाएगी, उनकी पसंद व रुज्हान इस्लाम के अधीन होंगे, पाबंद होंगे जो कुछ इस्लाम तय करेगा, इऩ्हें पसंद होगा जो इस्लाम की पसंद हो और नफ़रत होगी इस से जिसको इस्लाम नफ़रत करता है।

जमात आगे बढ़ती है और इस सक़ाफ़्त को अपने शबाब में मुनज़्ज़म हलक़ात (concentrated circles) के ज़रीये परवान चढ़ाएगी, जिसका मक़सद होगा कि शबाब दावत को इख़्तियार करके लोगों के बीच ले जाएं ताकि उन्हें दावत को इख़्तियार करने पर मुतमईन करें यूं शबाब को क़ियादत के लिए और दावती ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए तैय्यार करना होगा । जमात अक़्ल के ज़रीये हक़ीक़त या सूरते-हाल को समझ कर एक नतीजे पर पहुंचेगी, फिर अपने शबाब के सामने उस फ़िक्री अमल को पेश करेगी जिसके ज़रीये इसने अक़्ल और इसके इस्तिमाल का दायरा निर्धारित किया है यूं ये फ़िक्री अमल (intellectual process) और अक़्ल का दायराकार शबाब की रहनुमाई करेगा की हक़ीक़त या सूरते-हाल के साथ किस तरह का मामला किया जाये, और उन फिक्री तारीफ और तसव्वुरात तक कैसे पहुंचा जाये जो की दरअस्ल हक़ीक़त की तश्रीह (खोल-खोल कर बयान) करती है और जो मनात है जिन पर अहकाम शरीआ को लागू करना है।

चुनांचे जब जमात:
अक़्ल,
जिस्मानी हाजात,
इंसानी जिबिल्लतों (instincts),
निशाते-सानीया (नहदा/revival),
समाज
तहज़ीब और तमद्दुन (culture and civilisation)
वगैराह को निर्धारित करती है तो इनको इसलिए बयान करती है क्योंकि जमात और उसके शबाब के लिए इन तमाम को समझना हक़ीक़त और सूरते-हाल को समझने के लिए ज़रूरी है क्योंकि अक्सर व बेश्तर शरई अहकामात का ताल्लुक़ इन बातों से है।

जमात दलायल के ज़रीये हुक्मे शरई को हासिल करने की तरफ बढ़ती है, जमात उन अहकाम का इस्तिंबात (deduction) करेगी जो मुश्किल से संबधित हों या सूरते-हाल का हल देते हों । इसके लिए उन तमाम उलूम की (तबन्नी) को इख़्तियार करने की ज़रूरत है जो शरई नुसूस को समझने के लिए ज़रूरी हैं, ताकि इसके ज़रीये जमात अपने ऊपर लाज़िम अल्लाह (سبحانه وتعالى) के हुक्मों की मार्फ़त हासिल करे । जमात पर लाज़िम है कि वो तरीक़ा-ए-इस्तिदलाल को खोल खोल कर इस क़दर यूं आम कर दे ताकि इसके शबाब और मुसलमानों के सामने तरीक़ा-ए-इस्तिदलाल को साफ़ तौर पर बतला दे और वो उन्हें सिखलाए, यूं उनके ज़हनों में शरअ की वास्तविक और सही समझ और अहकाम के इस्तिंबात में इस्लामी तरीक़ा मज़बूती से जगह बना ले ।

जमात की सारी जद्दो जहद ये होनी चाहीए कि वो इस सक़ाफ़्त पर अमली तौर पर कारबन्द हों यूं जब अपने शबाब को ये सक़ाफ़्त दे तो इस बात को हमेशा सामने रखे कि असल मक़सद उसका अमली पहलू है । ये सक़ाफ़्त ना जानकारी के लिए है ना ही मालूमात इकट्ठी करने के लिए है ना ही इसका मक़सद शबाब की इल्मी सतह को बुलंद करना है, बल्कि इसके ज़रीये वैचारिक जंग और सियासी जद्दो जहद करनी है, और ये सक़ाफ़्त उम्मत में एक फ़िक्री (वैचारिक) क़ियादत बन कर जाये, जिसका मक़सद एक ऐसी रियासत का क़याम हो जिसका फ़िक्री नमूना ये सक़ाफ़्त लोगों के सामने पेश करती है। जमात पर लाज़िम है कि अमली तौर पर अपने क़ौल और फे़अल के ज़रीये साफ़ निहायत स्पष्ट तौर पर इस सक़ाफ़्त की तर्जुमानी करे। ऐसा ना हो कि जमात कहती कुछ हो और करती कुछ हो । ये मामला अल्लाह (سبحانه وتعالى) को सख़्त नापसंद है जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) को ग़ज़बनाक कर देगा अगर जमात सच्चाई और हक़ का दर्स दे और अमल इसके ख़िलाफ़ करने लगे।

जी हाँ जमात पर लाज़िम है कि इस सक़ाफ़्त की तबन्नी करे और शबाब की तामीर करें और उन्हें इसकी बुनियाद तर्बीयत दे और यूं ये सक़ाफ़्त उनके ज़हनों में पैवस्त होकर मज़बूती से जगह बना ले । फिर इस्लाम के उन बुनियादी अफ़्क़ार को लेकर जमात उम्मत की तरफ़ इस तरह मुतवज्जोह हो कि इनमें आम बेदारी पैदा करे ताकि उम्मत में इस बुनियादी फ़िक्र (अक़ीदा) के बारे में जनसमर्थन पैदा हो जाए। फिर उम्मत के सामने अक़ीदे और अहकामे शरीया के बारे में बुनियादी अहकामात को इस तौर पर उम्मत के सामने पेश करे कि जिसकी बुनियाद पर उम्मत एक ही मक़सद पर एकजुट और मुत्तहिद हो जाये जो कि अल्लाह (وحدہ لاشریک) की शरीयत को हाकिम बनाना है। यूं उम्मत सही रास्ते और दिशा पर चलने लगेगी और फिर इसके हक़ीक़ी और फ़ितरी मुक़ाम पर वापिस लौटेगी जो एक लंबे अर्से से इसने गंवाया हुआ है।

ये बुनियादी अफ़्क़ार और बुनियादी शरई अहकामात वो अहमतरीन इस्लामी नज़रियात हैं जो हुकूमत और क़ानूनसाज़ी (legislation) और इबादत व परस्तिश में अल्लाह (وحدہ لاشریک) को तन्हा और यकता ठहराते हैं और साथ ही वो ज़ाते अक़्दस जिसकी नक़्ल और पैरवी की जा सकती है उसका हक़ सिर्फ़ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को देते हैं, ये बुनियादी नज़रियात लोगों में जन्नत की तमन्ना और शौक़ जगाते हैं और इनमें जहन्नुम का डर पैदा करते हैं और साथ ही ये बुनियादी नज़रियात लोगों पर साफ़ तौर पर ये हक़ीक़त खोल देते हैं कि इस्लामी हुकूमत को क़ायम करने के लिए काम करना इस्लाम का कितना अहम तरीन फ़र्ज़ है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعالى) के कई सारे अहकाम जो फ़राइज़ हैं इनका दारो मदार इस्लामी रियासत पर है, उन बुनियादी नज़रियात की ही वजह से उम्मत ख़ुद को एक उम्मत समझने लगती है और ये कि दीगर दूसरे लोग उम्मत का हिस्सा नहीं हैं और उनको ना ही कोई नस्ली भिन्नता अलग कर सकती है और ना ही कोई रियासत उन्हें उम्मत से अलग कर सकती है, मुसलमान उम्मत एक भाई चारा (اخوہ/brotherhood) हैं और कोई क़ौमी या वतनी रिश्ता उन्हें इस भाई चारे से जुदा नहीं कर सकता है, शरीयते रबुल्ल-आलमीन को नज़रअंदाज और तर्क करने पर उनका ये हाल हुआ है कि आज वो ज़िल्लत व ख़्वारी से दो चार हैं, मुस्लिम पर ज़रूरी है कि वो अपने माबूद की जानिब से दी गई शरअ पर पाबंदी करे और वो कोई काम ना करें सिवाए जब तक उन्हें उस बारे में उनके रब का हुक्म मालूम ना हो, इसलिए वो दलील की मार्फ़त के बगै़र कोई काम नहीं कर सकते। यही विचार हैं जो लोगों के ज़हनों में जाकर ज़मीन को हमवार और उपजाऊ बनाते हैं जिन पर इस्लाम के अहकामात वृद्धि पाकर फल लाएंगे और दुनिया में अमन और सलामती फैलाएगे । जो कुछ भी हम ने ऊपर बयान किया है उस जमात की सक़ाफ़्त में ये तमाम बातें शामिल होनी चाहिए। हमारा मक़सद ये है कि हम उस दुरुस्त इस्लामी तरीक़े की निशानदेही करें जिसका शरअ हमें हुक्म इसलिए देती है ताकि इस सक़ाफ़्त को तय और मुतय्यन करें और किन बुनियाद पर ये सक़ाफ़्त इख़्तियार की (तबन्नी) जाये उन बुनियादों को निर्धारित करें ।

यूं जमात के पास अफ़्क़ार, राय और अहकामे शरीया की एक बड़ी तादाद होगी जो इस काम के लिए ज़रूरी हैं, ताकि जमात एक वैचारिक जद्दो जहद और सियासी कशाकश में कूद पड़े और उन अफ़राद के अंदर ज़बरदस्त सक़ाफ़्त को तैय्यार और परवान चढ़ाए जो इस दावत की ज़िम्मेदारी का बोझ उठाएंगे, ये अफ़्क़ार उम्मत में जनसमर्थन बनाने के लिए ज़रूरी हैं चुनांचे उम्मत जनसमर्थन के नतीजे में उस फ़िक्र को क़बूल कर लेगी जिस फ़िक्र पर ये जमात क़ायम है।

ये तमाम वो बुनियादी दायराकार (framework) है जिस से बाहर नहीं निकलना जमात पर लाज़िम है और जमात का उस पर खुले तौर पर जमे रहना ज़रूरी है । जमात अगर इसके ताय्युन (outlining) में कामयाब हो जाती है तो फिर इसके बाद जमात पर कोई इल्ज़ाम नहीं होगा अगर फरुई अहकाम में इस से कुछ ग़लती भी सरज़द होती है या वो किसी दूसरी जमात से इख़्तिलाफ़ करती है या दूसरी जमातें इस से इख़्तिलाफ़ करते हों तो ये फिर उसको कोई नुक़्सान नहीं पहुंचा सकता। क्योंकि फ़रु में इख़्तिलाफ़ होना एक फ़ितरी और नाक़ाबिले ग़ुज़ीर (unavoidable) मामला है ।

ये है वो सक़ाफ़्त, जमात को अपने अज़ीम मक़सद तक पहुंचने के लिए जिसकी ज़रूरत पड़ती है और ये अज़ीम मक़सद अल्लाह (سبحانه وتعالى) की शरीयत को हाकिम बनाना और पूरे आलम में इस्लाम की दावत को फैलाना है । बेशक वो अल्लाह (سبحانه وتعالى) ही है जो तौफ़ीक़ और कामयाबी अता करता है।
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