उम्मत के हालात को तब्दील करने वाली जमात की तस्क़ीफ (तर्बियत) मे क्या खुसूसियत होनी चाहिये ?

उम्मत की हालते-ज़ार ऐसी है जो तब्दीली का शदीद मुतालिबा करती है और उसके हालात की तब्दीली का अमल ये मांग करता है कि ये काम एक सियासी अमल हो जो एक ऐसी सियासी (क़ुतले) जमात के ज़रीये किया जाये जो इस्लाम के नज़रिया-ए-हयात (मब्दा) पर तामीर हुई हो और उसी पर जारी और क़ायम हो । 

चुनांचे इस क़ुतले की विशेषताएँ क्या होनी चाहीए और वो कौन से तत्व हैं जिनसे मिल कर एक मुकम्मल क़ुतला तामीर होता है इन बातों का अध्ययन और ज्ञान होना ज़रूरी है, इसी तरह उन बातों का जानना भी निहायत ज़रूरी है कि विभिन्न पिछली जमातों की विशेषताएँ क्या थीं और वो किन तत्वों से मिल कर क़ायम हुए थे ताकि उनकी नाकामी के कारण मालूम किए जा सकें ताकि तय कर सकें कि उन वजूहात और कारणों से किस तरह बचा जाये, खास तौर पर क़ुतला (जमात) का वो पहलू जिसका ताल्लुक़ जमात के ढांचे और उसकी तशकील (sturcturing) से है, ढांचे का पहलू बुनियादी तौर पर उस्लूब के विषय से ताल्लुक़ रखता है जिसको मुसलमानों के इख़्तियार पर दिया गया है कि वो उनके काम की ज़रूरत के एतबार से बेहतरीन और उचित उस्लूब को इख़्तियार करें । ये बात भी जमात की सक़ाफ़्त के विषयों में से एक अहम विषय है।
चूँकि मुसलमान इस वक़्त में ऐसे समाज में रह रहे हैं जिनमें घुले मिले हुए मिश्रित अफ़्कार (विचार), जज़्बात और निज़ाम हैं ऐसे में इस्लामी रियासत के क़याम में समाज का सामना किए बगै़र कोई रास्ता मुम्किन नहीं चुनांचे ज़रूरी है कि समाज का अच्छी तरह से सामना किया जाये, इसके लिए समाज के मुकम्मल हालात और उसकी विभिन्न हक़ीक़तों को समझना होगा और किन तत्वों से मिल कर एक समाज बनता है समाज किन चीज़ों से प्रभावित होता है और किस तरह समाज को तब्दील किया जा सकता है इन तमाम अमली बातों को तय करना होगा ताकि एक ऐसे समाज की तामीर की जा सके जो विचार, जज़्बात, निज़ाम के बारे में इत्तिहाद और इत्तिफ़ाक़ रखता हो यानी यकसाँ एक जैसे विचार, जज़्बात और निज़ामों वाला एकरंगी इस्लामी समाज वजूद में लाया जा सके जो उसकी बुनियाद पर मुत्तहिद और मुत्तफ़िक़ हो।
1. एक व्यक्ति की हक़ीक़त समाज की हक़ीक़त से भिन्न होती है इसलिए एक फ़र्द जिन तत्वों या अज्ज़ा-ए-तर्कीबी (compositions/अंशों) से मिल कर एक बनता है वो समाज के अज्ज़ा-ए-तर्कीबी से भिन्न है जिनसे मिल कर एक समाज बनता है, चुनांचे इसी बुनियाद पर एक व्यक्ति के बारे में जो इस्लाम के शरई अहकामात हैं वो समाज के बारे में जो शरई अहकामात हैं उनसे भिन्न होंगे।
2. चूँकि जमात का काम समाज में तब्दीली लाने के बारे में है इसलिए जमात पर ज़रूरी है कि समाज की हक़ीक़त को अच्छी तरह जान कर इसके मुताबिक़ उन विचारों, अवधारणाओं और शरई अहकामात को उनकी छोटी बड़ी तमाम तफ़्सीलात के साथ इख़्तियार (तबन्नी/adopt) करे जो इस हक़ीक़त या मसले के ईलाज के लिए ज़रूरी है। इसके साथ साथ जमात व्यक्ति को और समाज को इस बात की दावत देगी कि वो इस अमल में उनकी जानिब आइद ज़िम्मेदारीयों से संबधित शरई अहकामात को अपनाएँ (तबन्नी करें) । ये शरई अहकामात चाहे समाज के व्यक्ति के लिए फ़राइज़ किफ़ाया हों जिनके नजरअंदाज़ हो जाने पर उसकी भी पकड़ होगी जैसे इस्लामी समाज का क़याम जो कि फ़र्ज़े किफ़ाया है और इसके बारे में कोई उज़्र क़ाबिले-क़बूल नहीं होगा या चाहे उन शरई अहकामात का ताल्लुक़ एक व्यक्ति से उसकी निजी ज़िंदगी के बारे में हो। जैसा कि जमात व्यक्ति को मामलात, इबादात और अख़्लाक़ वग़ैरा की दावत देगी जो उस व्यक्ति की रोज़मर्रा ज़िंदगी में इस्लामी अक़ीदे की जानिब से उस पर आइद होते हैं इस तरह जमात मुसलमान की निजी और सामाजिक ज़िंदगी में मुकम्मल तौर पर इस्लामी अक़ीदे को इख़्तियार करने की दावत देगी।
3. चूँकि मुसलमान पश्चिम से प्रभावित होकर उनकी तरह अक़्ल का इस्तिमाल करने लगीं हैं जिसके नतीजे में नफ़ा और नुक़्सान, ख़ूबसूरत बदसूरत को वो अक़्ल से तय करने लगे हैं । चुनांचे ऐसे हालात में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की बेहतरीन अंदाज़ में पैरवी इख़्तियार करने और शुद्ध तौर पर शरअ की पाबंदी करने की ज़िम्मेदारी के तहत मुसलमानों और ख़ास तौर से जमात पर ज़रूरी हो जाता है कि अध्ययन और जांच के ज़रीए अक़्ल और इसके विभिन्न अंशो और हिस्सों को समझा जाये ताकि अक़्ल के इस्तिमाल का दायरा और विभिन्न चीज़ों में उसका इस्तिमाल किस तरह किया जाये उसको तय करें, हक़ीक़त और मसले के मुताल्लिक़ सोचने में, अक़ीदा और अहकामे शरई में अक़्ल किस तरह इस्तिमाल की जाएगी, इन बातों को तय कर दिया जाये ।
3. चूँकि काम ये है कि ऐसी हुकूमत का क़याम करें जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करे और एक दारुल-इस्लाम को वजूद में लाएंगे, चुनांचे इसके लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के आमाल जिन पर आप (صلى الله عليه وسلم) मक्का में पाबंद रहे उनका इल्म जान लेना ज़रूरी है और रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के मक्की दौर और उन आमाल की पैरवी की जाएगी जिनको अंजाम देने के नतीजे में मदीने में एक इस्लामी रियासत क़ायम हो गई, उसका इल्म हासिल कर लेने के बाद हमें इसी हिदायत पर अमल करना होगा । ये काम तक़ाज़ा करता है कि वो अहकामात जो तरीक़े से संबधित हों और वो जो तरीक़े के उस्लूब और वसाइल (styles and means) के बारे में हों इन दोनों के बीच में फ़र्क़ और तमीज़ की जाये ताकि अल्लाह (سبحانه وتعالى) के रसूल की मुकम्मल तौर पर बारीक बीनी के साथ पैरवी की जा सके।
4. ये काम चूँकि अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत करने और मौजूदा निज़ामों को बदल डालने का है, चुनांचे इसका तक़ाज़ा है कि हुक्मरानों के कामों और हरकतों पर सियासी नज़र और छानबीन की जाये और उन हुक्मरानों की हक़ीक़त क्या है और दूसरों से उनके ताल्लुक़ात की हक़ीक़त क्या है इन तमाम को समझा जाये, इसी तरह उन बड़े ताक़तवर देशों की पॉलिसीयों पर नज़र रखी जाये जो इन हुक्मरानों को अपने क़ाबू में लेकर अपने मफ़ाद की ख़ातिर इस्तिमाल करते हैं, उनके मंसूबों को बेनकाब किया जाए।
5. चूँकि मुसलमानों की सरज़मीनों (देशों) पर इस वक़्त ऐसे कुफ़्रीया निज़ामों का क़ब्ज़ा है जो उन पर मुसल्लत कर दिया गया है खास तौर पर पश्चिमी सक़ाफ़्त या कल्चर और पश्चिम के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा व्यवस्था जो उन पर लाद दियें गए हैं जो उन पर हावी हो चुके हैं, इसलिए इस्लामी रियासत के क़याम के काम का अहम तक़ाज़ा ये है कि पश्चिम के नज़रियाते ज़िंदगी (मबादी/ideologies), उनके अक़ाइद (creeds) और उनकी बुनियाद पर तैय्यार होने वाले विचार और उनसे निकल कर आने वाले निज़ामों का अध्ययन किया जाये।

6. चूँकि शरई मक़सद इस्लाम का निफ़ाज़ करना, और इस्लाम की दावत को एक पैग़ाम के तौर पर दुनिया के सामने पेश करना है, चुनांचे इसके लिए ज़रूरी है कि इस्लामी हुकूमत और इस से जुड़ी तमाम बातों का अध्ययन किया जाये और मौजूदा हुकूमत और इसके ढांचे का भी अध्ययन किया जाये ताकि दोनों के बीच का फ़र्क़ स्पष्ट हो जाये, और साथ ही हुकूमत की बुनियाद किन बातों पर रखी गई है इसका भी इल्म लिया जाये, चुनांचे इसमें अमल का तक़ाज़ा ये है कि हुकूमत, इस्लामी रियासत,उसकी शक्ल व सूरत, इसके स्तंभ, ढांचा और इसके दस्तूर के बारे में एक जनसमर्थन पैदा की जाये जो अनक़रीब अमल में लाए जाऐंगे ताकि लोगों के ज़हनों में एक आम ख़ाका बन जाये कि इस्लामी हुकूमत में क्या चीज़ें होंगी, इसके साथ मौजूदा हुकूमतों का ढांचा और उनकी हक़ीक़त बयान की जाये और इस्लामी हुकूमत और उसके ढांचे के बीच के फ़र्क़ को स्पष्ट किया जाये ताकि हम उनके ढांचे से दूर रहें और उनसे प्रभावित होकर कुछ ना लें, इसके साथ उन बातिल बुनियादों को भी बतलाया जाये जिन पर मौजूदा रियासतें क़ायम हैं और वो बुनियादें जिस पर रियासत इस्लामी क़ायम होगी।

इस तरह से जमात जो रियासते इस्लामी के क़याम के लिए काम करती है उसको चाहीए कि वो अपने काम यानी दुनिया में इस्लामी ज़िंदगी की दुबारा वापसी और ख़िलाफ़ते इस्लामी के क़याम के अमल की मुनासबत से दरकार अपनी जमाती सक़ाफ़्त के अहम पहलूओं को बयान और उनकी वाज़ेह तारीफ कर दे ताकि उन पर अमल किया जा सके और लोगों को उसकी जानिब दावत दी जा सके, ख़िलाफ़ते इस्लामी मुसलमान और ग़ैर मुसलमान शहरीयों पर इस्लाम के मुताबिक़ हुकूमत करेगी और फिर वो दावत और जिहाद के ज़रीये इस्लाम का पैग़ाम दुनिया में पहुंचाएगी।

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